किस्सा किताब से : जब सुल्ताना डाकू का शिकार होने से बच गए जिम कॉर्बेट
PEN POINT, DEHRADUN: रेलवे की नौकरी के बाद जंगलों की जानकारी ने जिम कॉर्बेट को महान शिकारी बना दिया था। पहली बार 1907 में 31 साल की उम्र में उन्होंने चंपावत में एक आदमखोर बाघ का शिकार किया। शिकार और जंगलों की गहन जानकारी रखने की वजह से उनके किस्से मशहूर हो गए। लेकिन जहां लोग जानवरों के हमलों से परेशान थे, वहीं उस दौर में यानी 1920-22 के आस पास सुल्ताना डाकू पुलिस के लिए सिरदर्द बना हुआ था। वह जीते जी किंवदंति बन चुका था। खौफ इतना कि जिस पुलिस थाने के आगे से सुल्ताना की कुमुक गुजरती वहां सिपाही उसे अपने हथियार सौंप देते। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के जंगलों में उसके रहने के कई अड्डे थे। जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर पंजाब तक वह डकैती डाल कर आ जाता था। उसका खुफिया तंत्र भी पुलिस से ज्यादा मजबूत था। उसे पकड़ने की कई नाकाम कोशिशों के बाद अंग्रेज सरकार ने तेज तर्रार पुलिस अफसर फ्रेडी यंग को तैनात किया।
सुल्ताना को पकड़ने की मुहिम
चूंकि जिम कॉर्बेट प्रमुख तौर पर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के तराई के जंगलों में शिकार किया करते थे। उनके जंगलों में लम्बे अनुभव के चलते ही फ्रेडी यंग ने सुलताना को पकड़ने में अपने साथ जुड़ने को कहा। जिम कॉर्बेट महीनों फ्रेडी यंग और उनके 300 सैनिकों और 50 घुड़सवारों वाले दस्ते के साथ जंगलों में भटकते रहे। इस दौरान कई बार ये लोग सुल्ताना के ठिकानों के नजदीक पहुंचे लेकिन वह बच निकला।
छापामारी और बड़ का पेड़
ऐसे ही एक छापे के दौरान जिम कॉर्बेट और फ्रेडी यंग नजीबाबाद के जंगलों में सुल्ताना के अड्डे के नजदीक पहुंच गए। अभी वे कुछ ही दूरी पर थे कि उनके साथ के एक जोशीले सिपाही ने एक मचान पर निगाह पड़ते ही अपनी बंदूक दाग दी। मचान पर चौकीदारी कर रहे दोनों आदमी सीढि़यों से नीचे उतरे और घोड़ों पर सवार होकर अड्डे की तरफ हवा हो लिए। फ्रेडी ने गरजदार आवाज में अड्डे पर हमले का हुक्म दे दिया। सुल्ताना का अड्डा एक छोटे से टीले पर था। वहां तीन टैंट लगे हुए थे और फूस की एक झोपड़ी में रसोई थी। डाकू बंदूकें, कारतूस, कपड़े वगैरह काफी सामान छोड़ वहां से गायब हो चुके थे। सामने पेड़ पर जिबह किए गए तीन बकरे भी लटक रहे थे।
अड्डे के पास वाले नाले में दस बारह लोगों के भागने के निशान थे। जिम अपनी किताब माय इंडिया में बताते हैं- यहां नाला करीब पंद्रह फीट चौड़ा और पांच फीट गहरा था। नाले के किनारे फ्रेडी एंडरसन और मैं करीब दो सौ गज चले होंगे कि डकैतों के पांव के निशान कंकड़ीली जमीन में गुम हो गए। वहां नाला कुछ चौड़ा हो गया था। बाएं किनारे पर जहां हम खड़े थे उसके नजदी ही बरगद का पेड़ बड़ी शान से खड़ा था। इस बड़ की टहनियां इतनी घनी थीं कि अपने आप में ही जंगल जैसी मालूम होती थी। इस पेड़ की डालियां नीचे तक आकर धरती को छू रही थीं। मुझे लगा कि यह पेड़ किसी के छिपने के लिए बेहतर जगह हो सकती है। मैं नाले के किनारे बढ़ रहा था और इस वक्त पानी मेरी ठुड्डी तक था। मैंने किनारे पर चढ़ने की कोशिश की लेकिन मुझे कोई पकड़ नहीं मिल पा रही थी। लिहाजा मैंने ठोकर मारकर नरम मिट्टी में पांव रखने की कोशिश की लेकिन मिट्टी मेरे पांव का बोझ पड़ते ही पानी में घुल जा रही थी। मैं पार जाने की कोशिश कर ही रहा था कि मुझे गोलियों की बौछार सुनाई दी। वापस दौड़कर हम अड्डे के पास पहुंचे तो देखा वहां हमारा एक हवलदार जख्मी हालत में पड़ा था। गोली हवलदार का सीना पार कर गई थी। उसके पास ही एक डाकू भी जख्मी हालत में था।
इन दोनों लोगों का अस्पताल पहुंचाने के फेर में डाकुओं का पीछा करने का ये काम फिलहाल रद्द करना पड़ा और सुल्ताना एक बार फिर बच निकला। कुल मिलाकर चौदह बार ताबड़तोड़ छापेमारी के बाद भी वह हाथ नहीं लगा। आखिर दिसंबर 1923 में मुखबिरों की सूचना पर फ्रेडी ने जाल बिछाकर सुल्ताना को पकड़ने में सफलता पाई।
जिम कॉर्बेट ने अपनी किताब में सुल्ताना को हिंदुस्तान का रॉबिनहुड कहा है। उन्हें सुल्ताना से काफी हमदर्दी थी सुल्ताना के पकड़े जाने के बाद वे भेद खोलते हैं कि उस दिन बड़ के पेड़ के पास पीछा करते हुए उसने मेरी और मेरे दोस्तों की जान बखश दी थी।
किताब- माय इंडिया, जिम कॉर्बेट।