नरेंद्र कठैत : ‘स्वच्छंद हैं कविताएं’ विडम्बनाओं के बीच हल तलाशती सम्भावनाएं
क्या है कविता? यूं तो- कम से कम शब्दों में भावों को -व्यक्त करने का माध्यम रही है कविता। अक्सर हमने कविता को कम से कम जगह ही घेरते देखा। लेकिन जड़ और तने के बीच का संवाद, अन्धेरे और उजाले के बीच का संग्राम, सुख और दुख के बीच टकराव, भक्त और भगवान के बीच अव्यक्त भाव भी है कविता। दरअसल कविता को हमने कई रूपों में ढलते देखा। ऊॅ एकाक्षर से महाकाव्य तक है कविता का डेरा। मां नाद के पीछे हमने कविता को दौड़ते देखा।
लेकिन बिजली के दो खंबों के बीच झूलते तारों की भांति नहीं है कविता। सत्य यह है कि -भले ही हमने कविता को कई परिभाषाओं में ढलते देखा – फिर भी-किसी अवरोध का नाम कतई नहीं है कविता। कहने को तो तुकान्त, अतुकान्त और छन्दबद्ध भी होती है कविता। लेकिन स्वच्छंद दौड़ भी लगा लेती है कविता। अतः ‘स्वच्छंद हैं कविताएं!’
यदु जोशी ‘गढ़देशी’ इसी नाम के काव्य संग्रह के रचनाकार हैं। ‘बुक्स क्लीनिक पब्लीशिंग,विलासपुर, छतीशगढ़’ से निकले ‘स्वच्छंद हैं कविताएं’ काव्य संग्रह में यदु जी की 95 कविताएं हैं। ये हकीकत है कि ‘स्वच्छंद हैं सभी कविताएं’, लेकिन- स्वच्छंद का आशय यह नहीं है कि कविताएं, कविता मीटर से बाहर हैं।
इन कविताओं में हम और तुम, सच-झूठ, बुरा वक्त, शब्दों की अर्हता, मेरी आवाज,पहाड़ का सत्य, संस्कार, आस्था और विश्वास,रीता ही रह गया। आशाओं के बीज, खाली जमीन, गांव, पहाड़ की विवशता, आखिर कब तक? प्रेम पथ का चांद, आजादी, शहर की जिन्दगी, आंसुओं की नदी। वक्त के आगे, पलायन के गीत, प्रेम रस, मन का भेद, फैसले, समय नहीं सुनता। बरसती बूंदें, चट्टानों के नीचे, दरारें, जिन्हें समय छू न सका – ऐसे ही तमाम तरह के अलग-अलग भावनाएं हैं। कविताएं पढ़कर लगता है कि कविवर ने इन कविताओं के मीटर फकत हवा से नहीं घुमाए हैं। हर मीटर में कविता के भाव रचनाकार के गहरे तजुर्बाें को दर्शाते हैं।
‘आंखें’- संग्रह में कविवर की यह पहली रचना हैं। उसके बाद हम ‘समय सगा नहीं होता’ तक हर एक के गहरे बिंबों को नापते चले जाते हैं। ‘आंखें’ ही है जिसमें हम पढ़ते हैं- ‘जरूरी नहीं कि/आंखों से तब दिखना बन्द हो जाए/जब आंखों में मोतियाबिंद आ जाय/या फिर आंखें चली जाएं/दिखना तब भी बन्द हो जाता है/जब देख कर भी/अत्याचार के विरुद्ध/आवाज न उठे/दिखना तब भी बन्द हो जाता है/जब किसी की अच्छाइयों पर पर्दा डाल दिया जाय..।’ आंखों पर चश्मे हैं, लेकिन चश्मों का भी ख्याल रखते हैं – ताकि विसंगतियों पर सटीक नजर रखी जा सके- लिखते हैं- ‘कहने को दिलासे बहुत हैं/मगर फेफड़ों में हिसाब से/रोकनी पड़ती है हवा/नजर का चश्मा/मौजूदा नंबर से आगे न बढ़ सके/इसका ख्याल रखता हूं/ जितना जरूरत है/आंखों के लिए।’ और परिस्थितिजन्य अनुभव क्या रहे? -‘मैं जोड़ना चाहता हूं/पूरे होशोहवास में/शब्दकोश में नए पन्ने/चिपकाना है/गली-गली,चौराहों में/बड़े-बड़े इश्तहार/कि धूप में हुए अनुभवी सफेद बाल/रंगे जाते हैं अब/ बड़ी आसानी से! ’ आज का कटु सत्य भी यही है।
विघटित होते घर-परिवार के लिए एक ही शब्द है जिम्मेदार- इसे कवि ने नाम दिया है ‘दरार!’ और दरार पर लिखा क्या है?- ‘दरारें तब नहीं पड़ीं/जब लोग/एक साथ,एक ही छत के नीचे/रहा करते थे/दरारें तब बनने लगीं/जब लोग स्वार्थवश/अपने तक ही/सीमित होकर रह गए/दरारों को रोकने की कला/मर्यादा,समझदारी/प्रेम और एक दूसरे के/मान-सम्मान के अभाव में/ दम तोड़ गई/अन्यथा दरारें इस तरह /घरों तक/ कभी नही पहुंच पाती।’ दरारें बढ़ी तो उच्छृंखलता ने हदें पार कर दी। न तमीज रही न तहजीब। अब तो स्थिति यह है कि – ‘अब तो खासंने से /लोग नहीं चौंकेगे…/पहले डरे क्योंकि/खासंना श्रेष्ठों की उपस्थिति का/ संकेत भर थी/आज निजता से विहीन है/घर-बार/रुई सी हल्की मानसिकता/संस्कृति से प्रवंचना/यहीं आग से खेलती है/स्वछंदता/और इस आपाधापी से त्रस्त/संस्कारों की पदचाप / घर की चौखटें/लांघ रही हैं/और मैं जानकर भी/ एकांत में रह कर/ न मालूम किस सुना रहा हूं/जागरण मंत्र!’ और दूसरी ओर विडम्बना देखिए- ‘घरों की छत पर/उग रहे हैं/पेड़-पौधे और सब्जी-फल/जमीन पर हो रहा है अतिक्रमण/झुग्गी-झोप्पड़ियों में/पैदा हो रहे हैं बे-हिसाब बच्चे/और सड़कों में रोज/खड़ी हो रही हैं रुकावटें/मेरी आवाज/नक्कारखाने में तूती है/फिर भी बुलंद रखना चाहता हूं/ अपनी आवाज/ इसलिए चढ़ा रहा हूं/कलम की नोक पर/ध्वनि विस्तारक।’ आखिर कब तक रहेगा मौन?
चुप्पी तोड़ो! तटस्थता छोड़ आप भी कहो – ‘कान फोड़ता है शोर/शरारती बच्चें का/लाउडस्पीकर और वाहनों का/विवाह समाराहों में डीजे का/बिंदास हैं थिरकते लोग/फिर भी जिन्दा है बीमार /बिस्तर पर लेटा हुआ/देखा नहीं मैंने/पंछियों को आजाद/शहर में चहचहाते-मंडराते कभी/ बस सुना है आवारा कुत्तों को / रात भर भूंकता हुआ।’ बड़ी विचित्र स्थिति हो गई है मान्यवर! -‘यह सिर है या बारुद का घर/कितना आधिपत्य है/बनाव,जद्दोजहद, निराशा और क्रोध का/उस के उपर तैनात हैं समाज के प्रहरी/हाथों में जलती हुइ तिलियांे के साथ/किस तरह इस/छुपे संभावित खतरे से बाहर निकलूं/बर्फ की सिल्लियों से लिपट/इस तपन को शीतल कर लूं/इसी उधेड़बुन में वक्त को जाते हुए/और आग को निकट आते हुए/ देखता हूं…।’ ये सब एक सांस में पढ़ गया हूं!
क्या लिखा है-छुपा नहीं रहा हूं- कह रहे हैं – ‘क्या बताऊं/सब कुछ पाकर भी/ उग रही हैं इच्छाएं/भर-पेट होकर भी/पैदा हो रही है भूख/भीरु हूं/इन को मार नहीं पाता/तुम्ही बताओ/किससे कहूं और क्यों कहूं ।’ प्रश्न यह भी है कि ‘लड़ने के लिए हमारे पास अब/न हौसला है, न पंख/और न ही सख्त नाखून/देखो तुमने एकलव्य सा लाचार/और अर्जुन की तरह गांडिवहीन/कर दिया है मुझे/ऐसे में अब कैसे अपने /जीवित होने का प्रमाण दूं/अपने तप से अर्जित किए हुए/पुण्य का भोग कर सकूं/और कैसे /जीवन की इस जंग को/जारी रख सकूं? किन्तु ठहरिए! ऐसा नहीं कि शोर शहरों में ही है पहाड़ में नहीं। ‘आंसुओं की नदी’ में आपने यह बात भी सत्य कही कि ‘निशब्दता अब नहीं बची/उसे चीर दिया गया है/बीचों-बीच।’ बिल्कुल सटीक!
सवाल यह भी है कि इतनी भीड़ अब पगडंडी पर कैसे चलेगी? इसलिए आगे बढ़ना है तो ‘सड़क’ भी है जरूरी लगी। सड़क बनी। सड़क ने कुछ हद तक विकास को गति दी। आज भी- ‘सड़क से ही हम तय करते हैं/नई मंजिलें,नए मुकाम/सड़क कराती है नित नए चेहरों से साक्षात्कार/इसीलिए सड़क के लिए/घर्षण,तपन, बरसात सभीं हैं स्वीकार/तभी सड़क होती है खास /हम सबके लिए’। लेकिन सड़क दर सड़क ये आपाधापी-छौंपादौड़ी किसलिए?
जवाब यही- सपनों के लिए! किन्तु ‘अन्याय’ है कि सपनों को आकार नहीं होने देता।
कविवर ने सही कहा- ‘सही को गलत /गलत को सही ठहराना/ यदि कोई खेल होता/ तो अब तक/यहीं बात खत्म हो जाती/यह युद्ध भी नहीं/यहां हार-जती भी नहीं होती/जिंदगी की यह अदालत है/यहां हम ही जज होते हैं/और हम ही वकील/बिना संवाद ही /तारीख पर तारीख हैं/ हक में/फैसले की उम्मीद में/ गवाह थे/ जो मुकर गए!’ और एक बात और है- ‘न जाने क्यों उम्मीदें भी/टूट जाया करती हैं/बिना हथौड़ी-छेनी के/जब अपने ही दगा देते हैं/तब दर्द /बेइंतहा बढ़ जाता है/और बह निकलता है/बरसाती झरने सा/आंखों के रास्ते।’ हाय! कितनी बेदर्दी है जमाने में!
एक कवित्त में चौकन्ने होकर यदु भाई लिखते हैं- ‘कुछ सपने सदाबहार होते हैं/जो खिलते-खिलते/दिन डूबते ही मुरझा जाते हैं/ऐसे सपनों का संसार/रद्दी कागज सा होता है/जिसमें शब्द नही उतर पाते/तो भी सपने हैं/हाव की तरह छूकर निकल जाते हैं/किसी मेहमान की तरह/सोते-जागते!’ किन्तु एक कटु सत्य यह भी है कि इंही सपनों के पीछे भागते-भागते- ‘जेबें सिकुड़ जाती हैं/मंहगी दवाओं के बिल से/शरीर ढल जाता है/बढ़ती उम्र और बीमारियों से/…वक्त के साथ /सब कुछ चला या/नदी से रेत/मिट्टी,गारा और दरख्त आंखों के आगे से/गुम हो जाती है नदी भी/बहते बहाते /न कभी लौटाती है/न कभी पीछे लौटती है/वक्त भी निष्ठुर है/वह भी लौटना नहीं चाहता/हां/कुछ यादें छोड़ जाता है अपने पीछे-पीछे..।’ क्या कहें इन्हें प्रकृत! नहीं ये कृतिमता के ही नतीजे हैं!
जमीन और जंगल के लिए पानी जरूरी है। पानी है -लेकिन सवाल यह है कि पानी को जाना किसने? कविवर लिखते हैं- ‘आखिर कितने थपेड़े/सहता होगा पानी भी/बहता है,उड़ता है/बादलों की मनमानी से/बिखरता है/फिर वहीं जा मिलता है/जहां उपेक्षा और धोखा है/…किन्तु सनद रहे/पानी इसी तरह होता है आजाद/उराता है दरिया में/मौजो के रूप में/बार-बार जमीन से टकराकर भी/ पानी कभी नहीं हारता/वह फिर उठता है/ और मुसीबतों से/दो -दो हाथ कर लेता है।’ पानी की प्रकृति के ऐसे भाव केवल यदु भाई ही व्यक्त कर सकते हैं।
फूल प्रकृति की अनुपम कृति हैं, लेकिन सूल वहां भी हैं। कविवर के मन में फूल के वजूद को लेकर भी सवाल उठते हैं कि-‘फूलों की डालियों को भी/ आता होगा/ मन का भेद छुपाना/रात भर की उदासी/और भोर होते ही/ दर्द को भूल कमर कस लेना/तुम्हें भी घेर लेती होगी निराशा/कांटों भरे सवालो से/ रोजमर्रा के झंझावतों से/ जब सांझ उतरती है धीरे-धीरे/तुम्हारे चैतन्य मन में।’ और बीजों के क्या हाल हैं? लिखते हैं – ‘बगलों में पनप जाते हैं/बीज बे-हिसाब/और घर के गमलें/लाख जतन कर भी /मुर्झा जाते हैं गुलाब/…गन्दे पानी में नहाते खेलते/भूख से बिलबिलाते/गरीब-गुरबों के बच्चे/ऐसे बीमार नहीं होते/जिस तरह पढ़े -लिखों के लाडले/ घर में ही पड़ जाते हैं बीमार/यह गुत्थी/अनसुलझी है अभी तक/फिर भी समझदारों ने/लिख दी है/पूरी की पूरी किताब/कुपोषण पर।’ वास्तव में कटघरे में खड़ी है वह कलम!
‘पलायन पहाड़ से’- आज एक विकट समस्या है ये! लेकिन कविवर स्वयं को भी घेरने से बाज नहीं आते। बेबाक लिखते हैं -‘और हम सरीखे /पलायन के गीत गाते हुए/मौसमी पक्षियों की तरह/चहचहाने चले आते हैं/वह भी बर्फवारी के गीच/या फिर तब,जब मुसीबत में/ कुलदेवता याद आते हैं।’ या कि- ‘चोर-लुटूरों से बचने का/इंसान का गांव लौटना/आसान नहीं,है बड़ा कठिन/चाहे नदी की कल-कल हो/पंक्षियों का कलरव/या फिर हवा की सर-सर/फिर भी जाते हैं कभी-कभार/सैर -सपाटे पर/ लिए चलते हैं मिनरल वाटर/ और कुछ दवाईयां…।’ अजीब दौर देख रहे हैं ये ‘रिवर्स पलायन’ का!
पलायन!पलायन!पलायन! सुनते-सुनते पक गए कान! ठहरो! अब- ‘पलायन न कहो इसे/लौटूंगा एक दिन/…जब लौटूंगा तब दीवार पर टंगी/मां बाबूजी की तस्वीर/झट से मुस्कराएगी और कहेगी/आ गई न घर की याद/जिसे बरसों पहले तुम छोड़ गए/तब भला कह पाऊंगा/ कि मैं शहरी तिलिस्म में घिरा/जिंदगी के शेष पन्नों पर/लिखता-मिटाता हूं/अर्थहीन इबारतें।/खरीदता रहा हूं/रुपहले सपने/कंक्रीट की दीवारों के बीच सिमटे/एक अदद कुनबे के लिए/जहां रात घिरते ही/दीवार घड़ी की सुईयों के साथ/चस्पा हो जाता हूं /एक नई सुबह के लिए…।’ ये भी भूख और पेट के बीच का एक अजीब खेल है।
लेकिन भूख और पेट के इस खेल में से मातृभूमि के लिए वक्त शेष है या नहीं है? कवि की दूर दृष्टि देखिए -लिखते हैं- ‘एक बार ही सही तुम आना/यहां की विवशता को/गांव तक ले जाना/संभवतः कोई शहर की/उंगलियों को पकड़कर/गोंव तक ले जाए/ताकि आजाद हवा से/मन मस्तिष्क चैतन्य हो उठंे/तुम आना/घर छोटा ही सही/परन्तु हजारों होटल है यहां/बस इतना ही संभव है अभी/कुछ दिन ठहराने के लिए।’ सत्य लिखा है कि सेर सपाटे के लिए आ जाते हैं हम यूं ही कभी कभार! अपनों के बीच न भाषा का आदान प्रदान। ऐसे में मन कैसे रह पायेगा शांत! -‘सपनों के रुपहले पंख /और मन की उंची उड़ान/धड़कनों के शोर में/कैसे लिखें यात्रा वृतांत…।’ आपने बड़ा गम्भीर प्रश्न उठाया है श्रीमान!
सत्यता के बिल्कुल करीब एक तथ्य यह भी है कि ‘तकदीर को कोस कर/किसी को क्या मिला/समय की चाल देखो/क्योंकि वह/किसी की नही सुनता… अलाव से हाथ गर्म हो सकते हैं/पीठ नहीं/चेतना से जल शांत लगता है/भीतर से नहीं/तैराकी सीखना बेहद जरूरी है/फिर समन्दर हो या नदी।’ और हमने संघर्ष के बल पर यह भी देखा है कि -‘हर-बार की जद्दोजहद से/मुक्ति और दर्द से आराम/यदि ठीक से चीरफाड़ हुई तो/सहजता से/ घाव भी भर जाते हैं।’ चेतना को जागृत करने के लिए ये शब्द ही यथेष्ठ हैं।
यदु भाई मां सरस्वती की सेवा में दशकों से साधनारत हैं। आपकी रचनाएं सरिता,गृहशोभा,कादम्बिनी, सरस सलिल आदि-आदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में जब-तब छपती रही हैं। अब तो कविताएं उनकी रग-रग में बसी हैं। आपने लिखा भी है कि-‘अब कविताएं साथ-साथ चलती हैं/परछाई की तरह/कदमबोशी करते हुए/… कविताएं बचपन में उंगलियों को थाम/ठुमक-ठुमक कर चलती थीं/कभी हाथ छुड़ाकर सरपट दौड़ लगाती थी। अब जवानी में पूर्णतः/स्वछंद हैं कविताएं/कभी प्रेम में आशक्त होती हैं/कभी गूढ़ शब्दावली में उलझाती हैं/और कभी करती हैं प्रहार/बिना हथियार/पता नहीं और कितने भेष धरेंगी/ ये कविताएं।’ यदु भाई इस मायने आप धनी हैं! आपकी इस कविता में निहित अर्थ भी यही है।
किन्तु एक बात और है जिसका ‘स्वच्छंद हैं कविताएं’ काव्य संग्रह में कहीं उल्लेख नहीं है कि- आप ख्यातनाम कलम कुल तिलक भगवती प्रसाद जोशी ‘हिमवन्त वासी’ जी के कुल दीपक और- व्यंग्य चित्रकार, स्तम्भकार श्री जागेश्वर जोशी के अग्रज भ्राता हैं! लेकिन यहां समग्र पंक्तियों का निष्कर्ष यही है कि काव्य संग्रह ‘स्वच्छंद हैं कविताएं’ पठनीय और संग्रहणीय है। साथ ही आपकी ‘कविताएं’ स्वच्छंद भले ही हैं लेकिन उनमें तमाम विडम्बनाओं के हल तलाशती सम्भावनाएं भी हैं।
यदु भाई! इस अनुपम कृति के लिए सप्रीति बधाई स्वीकार करें!