नई किताब : इसे पढ़ने से पहले लंबी सांस लें और दिमाग को शांत रखें
Pen Point, Dehradun: चर्चित लेखक लक्ष्मण सिंह बटरोही की खास शैली में इस आख्यान ने पहाड़ी समाज के मिथकीय चरित्रों की पड़ताल पेश की है। जिसे पढ़ने के बाद पहाड़ को लेकर कई गलतफहमियां दूर हो सकती हैं और नजरिये में बदलाव आ सकता है। लेकिन इसे पढ़ने के लिये खुद को वर्जनाओं से मुक्त करना होगा। किताब की शुरूआत में लेखक ने खुद भी इसकी जरूरत बताई है। वैसे भी बंद दिमाग या पूर्वाग्रहों के साथ बेहतरीन साहित्य पढ़ा और समझा भी नहीं जा सकता। आख्यान के परिचय में बटरोही लिखते हैं- इस आख्यान के उपसंहार के रूप में अनंतकाल से साधनारत तपस्वी पंडितों की दरकती देह से जुड़ी एक रूपक कथा और एक लोकथा के जरिये मानसिक रूप से अलग समझे जाने वाले प्राणियों के शक्ति संसार को उजागर करने की कोशिश की गई है। यह कोई चुनौती भरा प्रयास नहीं है। आस्तिक इंद्र और अहल्या तथा नास्तिक हॉकिंग और हरारे को चुनौती देने की कूबत भला इस लाटे लेखक में कहां?
किताब की कहानी में एक दिलचस्प क्षेपक भारतीय क्रिकेट के चमकते सितारे महेंद्र सिंह धोनी को लेकर जोड़ा गया है। जिसमें लेखक खुद को और धोनी को दानव वंश का बताते हुए काली कुमूं के अतीत में ले जाते हैं। महेंद्र सिंह धोनी के उन पुरखों का भी विस्तार से वर्णन किया गया है, जो खेतीहर होने के साथ ही बड़े योद्धा थे।
किताब की भूमिका बताती है कि यह एक फैंटेसी है जो सुदूर अतीत के नायकों को उनके विकृत कर दिये चेहरों को ढोती हुई आज के सभ्य समाज से रूबरू कराती है। ये सभी चरित्र अपने अपने दौर के नायक रहे हैं, लेकिन उन्हें उनके समकालीनों ने नायक मानने से इनकार कर दिया था। इन चरित्रों में स़ृष्टि के आरंभ से ही आकार धारण किये हुए देहधारी जीव हैं, विशाल पहाड़ी शिखर, उनके बीच समस्त जड़ चेतन को पोषित करती जैव संपदा और वे समाज हैं जिन्हें मनुष्य ने अपने अथक परिश्रम से खुद ही गढ़ा और तराशा है। इसमें वे लोग हैं जिन्होंने अपनी सारी जिंदगी दांव पर लगाकर अपनी पारिस्थितिकी को उनके समय का नायक बनाने की कोशिश की मगर लोग इसलिये उन्हें अपना नायक नहीं स्वीकार कर पाए क्योंकि उनका कोई लिंग नहीं हैं। वो ना पुल्लिंग हैं ना स्त्रीलिंग। इसके प्रमुख नायकों में किम्पुरूष, किन्नर, वृहन्नला जैसे धुर अतीत के गौरी सावंत, हरदा शास्त्री और रजनी रावत जैसे वर्तमान के और कश्मीर, किन्नौर और केदारनाथ के अजेय समझे जाने वाले भू-शिखर तथा उनके बीच रहने वाली मानव बससासतें हैं, वे अभागे प्राणी और जैव संपदा है जो आदमी के मनमाने दोहन से अपना नायकत्व खोते चले गए थे।
इस कहानी के चरित्र भारत की आजादी के बाद सामने आए उन तीन बड़े नायकों से वैचारिक और पर्यावरणीय प्रदूष्ज्ञण के घटाटोप के बीच अपने अस्तित्व की रक्षा और खुद की पहचान प्रदान करने की गुहार लगाते हैं, जिनमें दो राजनीति के पुरोधा पंडित हैं और तीसरे वर्ण से पंडित तो नहीं, लेकिन वर्तमान बौद्धिक समाज के बीच पंडित के सामान ही पूजनीय हैं।