पहाड़ में धान की रोपाई : शौक ए दीदार ग़र है तो नज़र पैदा कर
Pen Point, Dehradun : मानसून के साथ रोपाई का मौसम भी आ गया है। पहाड़ में रोपाई या रोपणी किसी उत्सव से कम नहीं है। हालांकि पलायन और अन्य कारणों से अब खेती का रकबा बहुत कम हो गया है। लेकिन एक समय था जब सेरों (सिंचित खेतों) में खूब धान लहलहाता था। इसकी कई किस्में बोई जाती थी और सामुहिक रूप से लोग रोपाई करते थे। ढोल और हुड़के की थाप पर गीत गाते और अन्न धन के भंडार भरने की कामना करते। आषाढ़ के इस महीने में पहाड़ी जीवन का उल्लास अब भी कई जगह पर देखते ही बनता है। अगर हमारा कृषि विभाग धरातल पर काम करे तो इस मामले में राज्य आत्म निर्भर हो सकता है। आईए जानते हैं उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में धान की खेती के बारे में।
रामा सिरांई का लाल धान
राज्य के पश्चिमी हिस्से यानी उत्तरकाशी जिले के रवांई में कमल और टोंस घाटी के सेरे श्रेष्ठ माने जाते हैं। कमल सिरांई और रामासिरांई के इन सेरों में लाल धान उगाया जाता है। जिसने अब दिल्ली तक धूम मचा दी है। रवांई के इन सेरों का दूर तक फैलाव हर किसी का मन मोह लेता है। स्थानीय लोग इसे च्वार धान भी कहते हैं, जो कभी किसी जमाने में हिमांचल की च्वार घाटी से यहां लाया गया।
कुमाऊं का जमाली और जमाई धान
राज्य के पूर्वी हिस्से पिथौरागढ़, चंपावत व बागेश्वर जिले भी धान की खेती में अव्वल रहे हैं। यहां भी सिंचाई सुविधा वाले इलाकों में सिलसिलेवार धान के सेरे हैं। जिनमें जमाली और जमाई धान होता है। जिसकी लाल, काला और सफेद तीन किस्में हैं और इनका बासमती से ज्यादा सम्मान किया जाता है। बागेश्वर में कत्यूरी काल से ही धान के सेरों की बड़ी श्ऱंखलाएं रही हैं। कत्यूरी राजाओं ने बागेश्वर को सैनिक छावनी धान की पर्याप्त उपलब्धता के कारण ही बनाया था।
सोमेश्वर की खूबसूरत धान पट्टी और थापाचीनी धान
इधर राज्य के बीच के हिस्से में अल्मोड़ा जिले के सोमेश्वर इलाके में कैडा रौ बौरा रौ धान की उपजाऊ पट्टियां हैं। यहां उगाए जाने वाला धान लंबा और रोग प्रतिरोधक होता है। जिसका नाम भी दिलचस्प है- थापाचीनी। संभवत: पुराने समय में भारत तिब्बत व्यापार के चलते धान का ये बीज यहां पहुंचा होगा। यहां कत्थतई रंग का परगाईं धान भी लोकप्रिय है। पश्चिमी रामगंगा तट के चौखुटिया खतरसार, वैराट, हाटगांव मासी आदि प्रसिद्ध सेरे रहे हैं।
गढ़वाल का स्वादिष्ट सट्टी धान
गढ़वाल में साठ दिन में फसल देने वाला सट्टी धान बहुतायत में उगाया जाता है। चमोली जिले की पिंडरघाटी में सिंचाई सुविधा नहीं है, लिहाजा यहां पौष्टिक उखड़ीधान की खूब पैदावार होती है। पिंडर की सहायक नैणागाड पर कुलसारी और पैठाणी सेरे महत्वपूर्ण हैं। चांदपुर परगने में ढलान वाले सीढ़ीदार खेतों उखड़ीधान की कई किस्में मिलती हैं। गौचर नगरासू घोलतीर के विशाल सेरे अब सड़क और कस्बों के फैलाव के कारण सिमट गए हैं। रुद्रप्रयाग जिले में लस्या मयाली, धारगौ कवरतोली के बड़े सेरे हैं।
बचणस्यूं का लाल मकरंद
पौड़ी जिले में बचण्स्यूं इलाके में सेरे भी हैं और उखड़ी धान भी। अन्न उत्पादन के लिए महत्व्पूर्ण रहे इस इलाके का लाल मकरंद धान प्रसिद्ध रहा है। किसी जमाने में गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर बछणस्यूं क्षेत्र के धान अपने खरेपन के लिए जाना जाता था। इसके अलावा नयारघाटी के सिंचित सेरे भी धान की उपज के लिए महत्वपूर्ण रहे हैं। सतपूली में मच्छी भात का चलन आज का नहीं बल्कि धान की खेती के बूते ही काफी पुराना है।
माधो सिंह का मलेथा रेल लाइन के सुपुर्द
टिहरी जिले में अलकनंदा के तटवर्ती इलाके में चौरास और इससे लगे कड़ाकोट, अगरी डागर वडियारगढ़ में धान के सेरे हैं। श्रीनगर के समीप टिहरी जिले में मलेथा के ऐतिहासिक सेरे थे, जो अब रेलवे लाइन के सुपुर्द हो गए हैं। इन सेरों की सिंचाई लिए वीर भड़ माधो सिंह भंडारी ने पहाड़ी के दूसरी ओर बह रही गाड़ से गूल बनाई थी। मलेथा से टिहरी रोड पर डांगचौरा, दुगड्डा, जखंड, टकोली में छोटे-छोटे सेरे हैं। इसके बाद पौखाल क्षेत्र में भद्रासौड़, मंगरौं और स्याालकुंड के शानदार सीढ़ीदार मगर सिंचित खेत हैं। कहा जाता है कि यहां के कुछ किसान खेती के चलते इतने संपन्न हो गए थे कि गोरखा आक्रमण के दौरान उन्होंने अपना धन डेगों में रखकर गडोलिया के समीप दबा दिया था।
बिजली के लिए धान के सेरों ने जलसमाधि
टिहरी और उत्तरकाशी के चिन्यालीसौड़ तक भागीरथी प्रवाह क्षेत्र अब बांध की झील में तब्दील हो गया है। जिसके चलते कई विशाल सेरे डूब गए हैं। लेकिन चिन्यालीसौड़ के पार दिचली व मल्ली सेरा अब भी हैं। मल्ली का सेरा वही है जिसमें लोककथाओं का नायक भड़ जीतू बगड्वाल बैलों समेत समा गया था। आगे धरासू के पास बड़ेथी सेरे का उल्लेख अंग्रेज खोजी दलों ने भी अच्छे सेरे के रूप में किया है। उत्तरकाशी जिले में बाडागड्डी में भागीरथी का तटवर्ती इलाका भी धान की खेती की लंबी श्रृंखला के लिए पसिद्ध रहा है। इंद्रावती के पानी से सिंचित गांव मानपुर, अलेथ, गिंडा, धनपुर, साड़ा, बोंगाड़ी आदि गांव अन्न धन संपन्न माने जाते थे।
धनारी और अन्न धन का भंडार भंडारस्यूं
उत्तरकाशी जिले में डुण्डा से थाती धनारी मार्ग पर ऐतिहासिक सेरे हैं। धनारी पट्टी का नाम धान से ही उपजा लगता है। यहां धनपति गाड़ से सिंचित सेरों के साथ ही कुछ उंचाई पर उखड़ी लाल धान कभी बहुत प्रसिद्ध था। इसी वजह से श्रीनगर राजवंश के परिवार के सदस्यों को यहां खेती के लिए भूमि दी जाती थी। उत्तरकाशी जिले के राड़ी डांडा के जंगलों से घिरा भंडारस्यूं क्षेत्र है। जहां अलग ही रंगत वाली मिट़टी है। कभी इसे टिहरी रियासत का भंडार कहा जाता था। यहां लोगों के कोठारों में दो तीन साल के लिए अन्न सुरक्षित रखा जाता था। इसीलिए अकाल या दुर्भिक्ष के दिनों में भंडारस्यूं पट्टी का ही सहारा होता था, और यहां से दूसरी जगहों को अनाज की मदद पहुंचाई जाती थी । कुरमोला गाड के प्रवाह क्षेत्र में भंडारस्यूं के सेरे आज भी दिलकश नजर आते हैं।
हेंवल में धान के बीजों को बचाने की मुहिम
टिहरी जिले में भिलंगना और उसकी सहायक नदियों के किनारे थाती कठूड़, चमियाला, केमर बासर और घनसाली में भी सेरों की लंबी श्रंखलाएं हैं। लेकिन इस जिले में सबसे महत्वपूर्ण है हेंवल घाटी। जहां बीज बचाओ आंदोलन जैसी अनूठी मुहिम दशकों से चल रही है। यही वजह है कि चंबा से जाजल के बीच नागणी के इन सेरों में 30 से 35 धान की किस्में आज भी बोई और संरक्षित की जा रही हैं। यहां के किसानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने परंपरागत खेती को लेकर देश दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है।
जहां धान था वहां मकान उग आए हैं
ऋषिकेश के निकट तपोवन क्षेत्र में अब कंक्रीट का जंगल उग आया है। लेकिन अब भी खेत नजर आ जाते हैं। जो कभी बासमती के लिए प्रसिद्ध थे। ऐतिहासिक जानकारी के मुताबिक इस सेरे को पाने के लिए हिमांचल का सिरमौर राजवंश गढ़राज्य में तनातनी भी हो गई थी। पौड़ी जिले के भाबर इलाके में देखें तो यहां का भावरी चावल प्रसिद्ध रहा है। इस चावल की अत्यधिक उपज के कारण ही कोटद्वार और इसके आस पास लोग बसते गए। लिहाजा खेती की जमीन भी अब सिमट कर रह गई है।
फिलहाल समय बदला है, लोगों की जरूरतें और प्राथमिकताएं बदली हैं, अब खेत बंजर हैं, जलस्रोत कम हो चले हैं और जंगली जानवरों के कहर से किसान परेशान हैं। लेकिन ये इतनी बड़ी समस्या नहीं है जितनी हमारे पुरखों ने पहाड़ों की पीठ काटते हुए झेली होंगी। बिना आधुनिक संसाधनों के खेतों के लिए पानी का रुख मोड़ना, औजार जुटाना, पशुओं की देखरेख, खाद का इंतजाम और मीलों तक खेतों की कतार तैयार करना आसान तो नहीं रहा होगा।
(संदर्भ स्रोत- डा.शिवप्रसाद नैथानी, श्री भरत सिंह असवाल, ग्राम क्वाली, बछणस्यूं , श्री राधाकृष्ण उनियाल, पुरोला, श्री जीवन सिंह वल्दिया पिथौरागढ़)
आलेख- पुष्कर सिंह रावत