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समान नागरिक संहिता पर बाबा साहेब अंबेडकर क्या सोचते थे… पढें

PEN POINT, DEHRADUN : उत्तराखंड राज्य संभवतः देश का पहला राज्य बनने वाला है जो समान नागरिक संहिता लागू करेगा। भाजपा ने विधानसभा चुनाव 2022 के दौरान जीतने पर राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करने का वायदा किया था। विधानसभा चुनाव में बहुमत मिलने के बाद मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने बीते साल ही इसके लिए कमेटी का गठन कर यूसीसी को धरातल पर उतारने का काम शुरू किया। अब दावा किया जा रहा है जून आखिर तक समान नागरिक संहिता के लिए बनाई गई कमेटी पहला ड्राफ्ट सरकार को सौंपेगी।
इसके बाद अब केंद्र सरकार भी समान नागरिक संहिता को लेकर आगे बढ़ती दिख रही है। कानून मंत्रालय ने समान नागरिक संहिता पर जल्द ही आम जन के सुझाव लेने का फैसला किया है और इस पर आगे बढ़ने के संकेत दे दिए हैं। संविधान लागू होने के सात दशक बाद भी समान नागरिक संहिता देश में लागू नहीं हो सकी। यह हमेशा से संवेदनशील मुद्दा रहा हो मुस्लिम धर्म गुरूओं, मुस्लिम नेताओं के विरोध के चलते कोई भी सरकार इस पर हाथ डालने से झिझकती रही है। अब जब समान नागरिक संहिता पर इतना शोर मचा है। तो यह जानना बेहद जरूरी है कि संविधान निर्माता बाबा साहेब अंबेडकर समान नागरिक संहिता को लेकर क्या सोचते थे। संविधान निर्माण के दौरान उनके अलग अलग मौकों पर दिए गए इन भाषणों के जरिए स्पष्ट हो जाएगा कि बाबा साहेब अंबेडकर समान नागरिक संहिता को लेकर क्या सोचते थे
23 नवंबर और 2 दिसंबर 1948 को संविधान सभा की बैठक में उन्होंने समान नागरिक संहिता को संविधान का अभिन्न अंग बनाने को लेकर एक महत्वपूर्ण भाषण दिए थे। पेन प्वाइंट आपके लिए वह भाषण हूबहू पेश करता है –

‘श्रीमान अध्यक्ष महोदय,
मुझे डर है कि मैं इस अनुच्छेद से संबंधित संशोधनों को स्वीकार नहीं कर सकता। इस विषय पर विचार करने में मैं इस प्रश्न के गुण दोषों में नहीं जाउंगा कि क्या इस देश में एक नागरिक संहिता होनी चाहिए या नहीं। वह एक ऐसा मामला है जिस पर मैं समझता हूं अवसर के अनुसार मेरे मित्र श्री मुंशी और अल्लादि कृष्णस्वामी अय्यर द्वारा पर्याप्त रूप से प्रकाश डाला जा चुका है। जब कुछ मूलभूत अधिकारों पर संशोधन प्रस्ताव रखे जाएंगे, मेरे लिए इस विषय पर एक पूरा बयान देना संभव होगा और इसलिए मैं उस पर यहां बोलना प्रस्तावित नहीं करता।
इन संशोधनों के समर्थन में खड़े होते हुए मेरे मित्र श्री हुसैन इमाम ने पूछा है कि क्या भारत जैसे विशाल देश के लिए एक यूनीफार्म कोड ऑफ लॉज का होना संभव और वांछनीय होगा। अब मुझे स्वीकार करना होगा ि कइस सीधी सी बात के कारण मुझे इस कथन पर घोर आश्चर्य है इस देश में मानवीय संबंधों के लगभग हर पहलू को अपने दायरे में लिए हुए पहले ही एक यूनीफार्म कोड ऑफ लॉज समान विधि संहिता है। हमारे पास एक पूरा क्रिमिनल कोड है जो पूरे देश में चलन में है और जो दंड संहिता और क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में समाहित है। हमारे पास संपति हस्तांतरण कानून है जो संपति से जुड़े संबंधों का नियमन करता है और जो पूरे देश में चलन में है। फिर नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट है और मैं ऐसे असंख्य कानूनों का हवाला दे सकता हूं जो यह साबित करेंगे कि इस देश में व्यावहारिक रूप से एक नागरिक संहिता है जिसकी अंतर्वस्तु समान है और पूरे देश में लागू है।
केवल एक क्षेत्र ऐसा है जिस पर दीवानी कानून अब तक अपनी पकड़ नहीं बना पाया है और वह है विवाह और उत्तराधिकार, यही एक छोटा सा काना है जिस पर हम अब तक हमला नहीं कर पाए हैं और यही उन लोगों की मनीषा है जो अनुच्छेद 35 को संविधान का हिस्सा बनाकर ऐसा बदलाव लाना चाहते हैं, इसलिए मुझे यह सवाल कुछ बेतुका लगता है कि क्या हमें ऐसा कोई कोड अपनाने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि सीधी सी बात है कि हम असल में समान नागरिक संहिता के अंतर्गत आने वाले विषयों में से अधिकांश को पहले ही ले चुके हैं, इसलिए यह सवाल पूछने में बहुत देर हो चुकी है कि क्या हम ऐसा कर सकते हैं। जैसा मैं कहता हूं कि हम पहले ही ऐसा कर चुके हैं।
संशोधनों पर आएं तो मैं केवल दो टिप्पणियां करना चाहूंगा, मेरी पहली टिप्पणी यह होगी कि जिन सदस्यों ने ये संशोधन पेश किए हैं, कहते हैं कि मुस्लिम पर्सनल लॉ, जहां तक इस देश का संबंध है, अपरिवर्तनीय और पूरे भारत में एकसमान है, अब मैं इस कथन को चुनौती देना चाहता हूं। मैं समझता हूं कि मेरे अधिकांश मित्र, जो इस संशोधन पर बोले हैं, यह बात बिल्कुल भूल गये हैं कि सन 1935 तक उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत शरीयत कानून के अधीन नहीं था, उत्तराधिकार और अन्य मामलों में वह हिंदू कानून का अनुसरण करता था और बात यहां तक पहुंची थी कि उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत के मुसलमानों पर प्रभावी हिंदू कानून को रद्द करने उन पर शरीयत कानून लागू करने के लिए 1939 में केंद्रीय विधानमंडल को मैदान में उतरना पड़ा था और कहानी यहीं खत्म नहीं होती।
मेरे माननीय मित्र भूल गये हैं कि उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत से अलग शेष भारत के विभिन्न भागों, जैसे संयुक्त प्रांत, मध्य प्रांत और मुंबई में भी सन 1937 तक उत्तराधिकार के मामले में मुसलमान एक बड़ी हद तक हिंदू कानून से शासित थे, उन्हें उन मुसलमानों को जो शरीयत कानून का पालन करते थे, उनकी धारा में लाने के लिए सन 1937 में विधानमंडल को हस्तक्षेप करके एक कानून पास करना था जो शरीयत कानून को शेष भारत में लागू करता था।
मेरे मित्र श्री करूणाकर मेनन द्वारा मुझे यह भी बताया गया कि उत्तरी मलाबार में मरूमक्कथायम कानून न केवल हिंदुओं बल्कि मुसलमानों पर भी लागू होता है। यह याद रखा जाना चाहिए कि मरूमक्कथायम कानून का पितृसत्तात्मक नहीं बल्कि मातृसत्तात्मक स्वरूप है। इसलिए उत्तरी मलाबार के मुसलमान अब तक मरूमक्कथायम कानून का पालन करते आए थे। इसलिए पक्के तौर पर यह कहना फिजूल होगा कि इस्लामिक कानून एक अपरिवर्तनीय कानून है जिसका वे प्राचीन काल से पालन करते आए थे। अपने मूल स्वरूप में यह कानून कुछ भागों में लागू नहीं था और केवल दस साल पहले उसे लागू किया गया है। इसलिए अगर यह जरूरी समझा गया है कि उनके धर्म से निरपेक्ष, सभी नागरिकों के लिए एक एकल नागरिक संहिता तैयार करने के उद्देश्य से अनुच्छेद 35 के अनुसरण में बनाई जाने वाली नागरिक संहिता में हिंदू कानून के कुछ हिस्से समाविष्ट कर लिए जाते हैं इसलिए नहीं कि वे हिंदू कानून का हिस्सा थे बल्कि इसलिए कि वे सबसे उपयुक्त पाए गए थे, तो मेरा दृढ़ मत है कि मुसलमानों के लिए यह कहने का विकल्प खुला नहीं है कि नई नागरिक संहिता के निर्माताओं ने मुस्लिम समुदाय की भावनाओं को गहरी चोट पहुंचाई है।
मेरी दूसरी टिप्पणी उन्हें एक आश्वासन देना है। मैं इस मामले में उनकी भावनाओं को अच्छी तरह से समझता हूं, परंतु मेरा विचार है कि उन्होंने अनुच्छेद 35 से कुछ ज्यादा ही अर्थ निकाल लिया है, वह केवल यह प्रस्तावित करता है कि सरकार देश के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने के लिए काम करेगी, वह यह नहीं कहता है कि संहिता तैयार होने जाने के बाद सिर्फ इसलिए कि नागरिक हैं, राज्य उन्हें सभी नागरिकों पर जबरन लागू कर देगा। यह बिल्कुल संभव है कि शुरूआत के तौर पर भावी संसद इस आशय का प्रावधान कर दे कि यह संहिता केवल उन लोगों पर लागू होगी जो यह घोषणा करते हैं कि वे उनसे बंधने के लिए तैयार हैं, ताकि शुरूआती दौर में वे शुद्धतया स्वैच्छिक रूप से लागू हों, इस तरह के किसी उपाय से संसद जनता की नब्ज टटोल सकती है।
यह कोई नया तरीका नहीं है। शरीयत अधिनियम 1937 में अपनाया गया था, जब उसे उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत से इतर क्षेत्रों में लागू कर दिया गया था। इस कानून में यह कहा गया था कि वहां एक शरीयत कानून है जिसे मुसलमानों पर लागू किया जाना चाहिए, जो मुस्लिम भाई चाहता हो कि उसे शरीयत एक्ट के प्रावधानों से बांध दिया जाना चाहिए, उसे राज्य के एक अधिकारी के पास जाकर यह घोषणा करनी चाहिए कि वह उससे बंधने के लिए तैयार है तथा ऐसी घोषणा कर देने के बाद यह कानून उसके और उसके उत्तराधिकारियों के लिए बाध्यकारी होगा। संसद के लिए इस तरह को कोई प्रावधान करना पूर्णतया संभव होगा, ताकि मेरे मित्रों ने जो भय व्यक्त किया है वह पूरी तरह से दूर हो जाए, इसलिए मेरा निवेदन है कि इन संशोधनों में कोई सार नहीं है मैं उनका विरोध करता हूं।
(23 नवंबर 1948 को संविधान सभा में दिया गया भाषण। )

पर्सनल लॉ को बचाने के सवाल पर आएं तो मैं समझता हूं इस मामले में पूरी तरह और पर्याप्त रूप से उसी समय चर्चा और बहस हो चुकी थी जब हमनें संविधान के एक निर्देशक सिद्धांत जो राज्य पर एक समान नागरिक संहिता लाने की दिशा में सक्रिय रहने की जिम्मेदारी डालता है, पर चर्चा की थी और मैं नहीं समझता कि उस पर आगे विचार किए जाने की जरूरत है परंतु मैं यह कहना चाहूंगा कि अगर संविधान में इस तरह बचाने के सेविंग क्लॉज का समावेश किया गया तो यह भारत के विधानमंडलों को किसी भी सामाजिक विषय पर कानून बनाने में अक्षम बना देगा। इस देश में धार्मिक धारणाएं इतनी व्याप्त हैं कि वे जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन के हर पहूल को अपने दायरे में लिए हुए हैं, ऐसा कुछ भी नहीं है जो धर्म न हो और अगर पर्सनल लॉ को बचाना है तो मुझे पक्का विश्वास है कि सामाजिक विषयों पर कानून बनाने का कार्य ठप पड़ जाएगा। मैं नहीं समझता कि उस तरह की स्थिति को स्वीकार करना संभव है।
यह कहने में कुछ भी असाधारण नहीं है कि हमें अब से धर्म को इस तरह परिभाषित करने की दिशा में काम करना चाहिए कि हम विश्वासों और ऐसे विधि विधानों से आगे नहीं जाएंगे जो ऐसे अनुष्ठानों से जुड़ें हों जो आवश्यक रूप से धार्मिक हैं। यह जरूरी नहीं है कि इस तरह के कानून उदाहरण के लिए काश्तकारी या उत्तराधिकार से संबंधित कानून धर्म द्वारा शासित हों। यूरोप में ईसाइयत हैं परंतु ईसाइयत का अर्थ यह नहीं है कि पूरी दुनिया के ईसाई या यूरोप के किसी भाग में बसे ईसाइयों को उत्तराधिकार के मामले में एक जैसा कानून हो। ऐसी कोई चीज अस्तित्व में नहीं है। मैं व्यक्तिगत रूप से यह नहीं समझ पाता कि धर्म का दखल इतने विस्तृत क्षेत्र में क्यों होना चाहिए ि कवह पूरे जीवन को ही समेट ले और विधानमंडल को उस क्षेत्र में घुसने न दें।
आखिर हम यह आजादी क्यों लेना चाहते हैं। हम यह आजादी ऐसी ही हमारी समाज व्यवस्था में सुधार के लिए लेना चाहते हैं जो इतने अन्याय, असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरती पड़ी है और जो हमारे मूलभूत अधिकारों के मार्ग में आती है। इसलिए किसी के लिए इस बात की कल्पना करना भी असंभव है कि पर्सनल लॉ को राज्य के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा जाना चाहिए।
यह कह चुकने के बाद में बताना चाहूंगा कि इस मामले में सरकार केवल कानून बनाने की अपनी शक्ति का दावा कर रही है, सरकार के लिए ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि वह पर्सनल लॉज को हटाए , वह केवल शक्ति प्रदान कर रहा है। इसलिए किसी को भी इस सच्चाई से आशंकित होने की जरूरत नहीं है कि अगर सरकार के पास ऐसी शक्ति है तो वह तुरंत ही उस शक्ति का उपयोग इस तरह से करने लगेगी जो मुसलमानों या ईसाइयों या किसी अन्य समुदाय को आपत्तिजनक लगे।
मुस्लिम समुदाय के उन सदस्यों सहित जो इस विषय पर बोले हैं यद्यपि उनकी भावनाओं को अच्छी तरह समझा जा सकता है, हम सबको याद रखना चाहिए कि प्रभुसत्ता हमेशा सीमित होती है, भले ही आप दावा करें कि वह असीमित है, क्योंकि उस सत्ता के उपयोग में प्रभुसत्ता को विभिन्न समुदायों की भावनाओं के साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिए। कोई भी सरकार अपनी शक्तियों का उपयोग इस तरह से नहीं कर सकती कि मुस्लिम समुदाय विद्रोह पर उतर आए, मैं समझता हूं कि अगर उसने ऐसा किया तो वह एक पागल सरकार होगी परंतु मामला स्वयं शक्ति से नहीं, शक्ति के उपयोग से संबंधित है।
(2 दिसंबर 1948 को संविधान सभा में दिया गया भाषण। )

 

स्रोत – भाषण अशं नरेंद्र जाधव की किताब ‘डॉ. आंबेडकरः राजनीति, धर्म और संविधान विचार’ से साभार।

 

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