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पंजाब का वह वित्त मंत्री, जिसने लगाई थी आजाद भारत में खालिस्तान की आग

– जगजीत सिंह चौहान जब पंजाब में चुनाव हार गया तो विदेश जाकर बुलंद करने लगा पृथक खालिस्तान देश की मांग, कई संगठनों का किया निर्माण
PEN POINT, DEHRADUN : इन दिनों खलिस्तान आंदोलन को लेकर कनाडा सरकार और भारत सरकार के रिश्तों में कड़वाहट घुल गई है। कनाडा की ओर से वरिष्ठ भारतीय राजनयिक को बाहर निकालने के बाद भारत ने भी जवाब में कानाडा उच्चायोग के वरिष्ठ राजनयिक को पांच दिनों में देश से बाहर निकलने का फरमान सुना दिया। राजनयिक संबंधों में तनाव लगातार बढ़ता जा रहा है। इस तनाव के पीछे खलिस्तान आंदोलन को कारण माना जा रहा है। आजादी के बाद अलग खालिस्तान देश की मांग नेपथ्य में चली गई थी लेकिन साल 1969 में पंजाब में एक शख्स ने चुनाव हारने पर विदेशों में जाकर फिर से खालिस्तानी देश का अभियान शुरू कर दिया। विदेशों में कई संगठन खड़े किए, हौसले इतने बुलंद थे कि विदेशों में खालिस्तानी दूतावास तक खोल दिए।
भारत कनाडा के संबंधों में आए तनाव के पीछे कारण बने खालिस्तान आंदोलन का इतिहास यूं तो देश की आजादी से पहले ही शुरू हो जाता है लेकिन आजादी के कुछ समय बाद पृथक सिख राष्ट् की मांग भी दम तोड़ने लगे। लेकिन, भाषा के आधार पर बने पंजाब राज्य में दूसरे विधानसभा चुनाव के नतीजों ने स्थिति बदल दी। पंजाब राज्य गठन के बाद पहले विधानसभा चुनाव में जीतकर विधायक बने एक शख्स जिसे पंजाब विधानसभा का डिप्टी स्पीकर भी बनाया गया और सरकार में वित्त मंत्री। वह जब चुनाव हार गया तो विदेश जाकर खालिस्तान देश की मांग उठाने लगा। 1929 में अविभाविज पंजाब प्रांत के उमर टांडा में पैदा हुए जगजीत सिंह चौहान नाम के इस शख्स की लगाई आग ही आज भारत और कनाडा के बीच राजनयिक संबंधों में तनाव लाए हुए है। पंजाब राज्य के गठन के पांच साल पूरे होने से पहले ही 13 अक्टूबर, 1971 अमेरिकी अखबार न्यू यॉर्क टाइम्स में एक विज्ञापन छपा। इस विज्ञापन में खालिस्तान नामक नए देश की घोषणा की गई थी और दुनिया भर में रहने वाले सिखों से मदद देने को कहा गया था। विज्ञापन छपवाने वाला पंजाब विधानसभा का डिप्टी स्पीकर भी रह चुका था और नाम था जगजीत सिंह। 1969 में हुए विधानसभा चुनाव में हारने के बाद जगजीत सिंह ब्रिटेन चला गया था और वहां रह रहे सिखों को जोड़कर खलिस्तान के नाम पर एक अलग देश के लिए अभियान शुरू कर दिया। हालांकि, ब्रिटेन में रहने वाले सिखों समेत अन्य संगठनों ने जगजीत सिंह के इस अभियान में जरा सी भी दिलचस्पी नहीं दिखाई। 1971 में भारत पाकिस्तान का युद्ध हुआ तो पाकिस्तान ने इस युद्ध में खालिस्तान आंदोलन को हवा देने की कोशिश की जिससे वह भारत के भीतर ही अलगाववाद की आग लगा सके। पाकिस्तान ने ब्रिटेन में रह रहे जगजीत सिंह को पाकिस्तान बुलाया और उससे खलिस्तान पर अपने समर्थन की बात की। कहा जाता है कि पाकिस्तान ने खलिस्तान बनने पर अपने नियंत्रण में आने वाले ननकाना साहिब को खलिस्तान की राजधानी के लिए प्रस्तावित किया। इसके बाद अगले कुछ सालों में जगजीत सिंह की खलिस्तान के अभियान को यूरोप, अमेरिका में रहने वाले सिखों का समर्थन मिलने लगा और जगजीत सिंह का रूतबा भी बढ़ने लगा।
हालांकि, इस बीच देश में अकाली दल खलिस्तान देश की मांग से खुद को अलग कर चुका था लेकिन वह स्वायत्त राज्य की मांग पर टिका हुआ था। वह केंद्र सरकार से मांग कर रहा था कि पंजाब के सुरक्षा, विदेश नीति और मुद्रा जैसे मामले ही सिर्फ केंद्र सरकार देखे बाकी मामले पंजाब सरकार पर छोड़ दिए जाएं। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर इसे देशद्रोही गतिविधि बताया। करीब 8 सालों से भारत से बाहर रहकर खलिस्तान की मांग को मजबूत करने वाले जगजीत सिंह ने 1977 में पंजाब में अकाली सरकार की वापसी पर अपनी वापसी की। भारत आकर उसने फिर खलिस्तान राष्ट्र की मांग को हवा दी और फिर ब्रिटेन लौटकर उसने 1980 में उसने खालिस्तान नामक नए देश का ऐलान कर दिया। खलिस्तान हाउस’ नाम की एक इमारत से उसने खालिस्तान के पासपोर्ट, डाक टिकट और खलिस्तानी डॉलर भी जारी कर दिए। उसके हौसले इतने बुलंद थे कि उसने ब्रिटेन और यूरोप के दूसरे देशों में खालिस्तान के दूतावास भी बना डाले। भारत में अकाली द्वारा खलिस्तानी देश की मांग को किनारे लगाने के बाद जगजीत सिंह को तब उम्मीद की किरण दिखी ज बवह जनरैल सिंह भिंडरावाले के संपर्क में आया। भिंडरावाले के रूप में पंजाब को एक नया हीरो मिल गया था जिसने बंदूक के दम पर शासन करना शुरू कर दिया था। केंद्र सरकार भिंडरावाले से परेशान थी। पंजाब अब रोजाना हत्याओं, हिंसाओं का केंद्र बन गया था। भिंडरावाले को खालिस्तान आंदोलन का चेहरा बन गया। 1984 में भिंडरावाले की ऑपरेशन ब्लू स्टार में मौत के बाद पंजाब अगले कुछ सालों तक उग्रवाद की चपेट में आ गया और जनता भी इस हिंसा से तंग आ चुकी थी लिहाजा जगजीत सिंह का खलिस्तानी अभियान भी धूमिल हो रहा था। इस बीच जगजीत सिंह के ऊपर राजीव गांधी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने के आरोप लगे। सरकार ने उसका पासपोर्ट रद्द कर दिया। लेकिन साल 2001 में अटल बिहारी सरकार से माफी मांगने के बाद जगजीत सिंह भारत वापिस आ गया। भारत आकर भी उसने खालिस्तान की मांग छोड़ी नहीं। और भारत लौटते ही उसने खालसा राज पार्टी का गठन किया और अब वह लोकतांत्रित तरीके से खलिस्तान बनाने की मांग उठाने लगा। हालांकि, पंजाब की जनता ने उसे खारिज कर दिया। साल 2007 में हार्ट अटैक से उसकी मौत हो गई और उसकी मौत के बाद भारत में खलिस्तान आंदोलन भी खत्म हो गया। लेकिन, विदेशों में खलिस्तान के नाम पर लगाई जगजीत सिंह की आग सुलगने लगी थी। विदेशी जमीन पर खालिस्तान कमांडो फ़ोर्स, खालिस्तान लिबरेशन फ़ोर्स जैसे कई संगठन थे। जिनमें से ज्यादातर को आतंकी संगठनों में शामिल किया गया था। अब विदेशों में ही यह संगठन खलिस्तान की मांग उठाते रहे हैं। हाल के सालों में कनाडा में इन संगठनों की ओर से कई बार भारत विरोधी प्रदर्शन किए हैं और खलिस्तान आंदोलन के कई मोस्ट वांटेंड आतंकियों की शरणस्थली भी कनाडा बना हुआ है। हाल के सालों में आस्ट्रेलिया, कनाडा में हिंदू विरोधी आंदोलनों में खलिस्तानी संगठनों का हाथ है। कनाडा में राजनीतिक हैसियत के बाद सरकार में मजबूत स्थिति के चलते खलिस्तानी संगठन वहां खूब फल फूल रहे हैं।

खालिस्तान का यह रहा इतिहास
15वीं सदी के आखिर में गुरु नानक ने सिख धर्म की स्थापना की। इस परंपरा में सिखों के कुल 10 गुरु हुए। जिनमें आखिरी सशरीर गुरू गोविंद सिंह थे। गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की शुरुआत कर सिख धर्म को एक औपचारिक रूप प्रदान किया और इस धर्म के नियम कायदे तय किए। साल 1799 में रणजीत सिंह ने मुगलों को हराकर लाहौर जीता और 1801 में खुद को पंजाब का महाराजा घोषित कर दिया। उन्होंने सिख धर्म में गुरू गोविंद सिंह के दौर में बांटी गई 12 मिस्लों को एक किया और सिख साम्राज्य की शुरुआत की। महराजा रणजीत सिंह ने अपने राज को सरकार खालसा का नाम दिया. और अगले दशकों में सिख साम्राज्य को तिब्बत और अफगानिस्तान की सीमाओं तक पहुंचाया। रणजीत सिंह द्वारा जीता गया यह साम्राज्य करीब 50 सालों तक चला। देश में अब अंग्रेजी सेना हावी हो रही थी। साल 1849 में अंग्रेजों से हार मिलने के बाद रणजीत सिंह का बनाया यह सिख साम्राज्य कई टुकड़ों में बंट गया। अब यह क्षेत्र अंग्रेजों के अधीन था और अंग्रेजों ने खालसा राज्य का नाम बदलकर पंजाब प्रावेंस रख दिया। अंग्रेजों द्वारा सिख साम्राज्य को ध्वस्त करने के बाद भी सिखों और अंग्रेजों के बीच रिश्तों में कटुता नहीं आई। अंग्रेज सिखों की बहादुरी से प्रभावित थे और उन्हें अपनी सेना का हिस्सा भी बनाया। लेकिन, जलियांवाला बाग कांड के बाद सिखों के मन में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ गुस्से का उबाल आ गया।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद दुनिया की तस्वीर बदल रही थी तो भारत में अंग्रेजी सरकार ने भी संकेत देने शुरू कर दिए कि वह भारत में कुछ ही सालों की मेहमान है। 1930 का साल था और अब देश भर में यह संदेश फैलने लगा था कि अंग्रेज जल्दी ही देश छोड़ कर जा सकते हैं। ऐसे में हिंदु मुस्लिम अपने लिए अलग अलग मुल्कों की बात करने लगे तो सिखों ने भी सिख होमलैंड की मांग उठानी शुरू कर दी। इस मांग को उठाने में सबसे आगे था ‘शिरोमणी अकाली दल’। 1920 में बना ये संगठन खुद को सिखों का प्रतिनिधि मानता था और सिखों के लिए अलग देश बनाए जाने की वकालत भी करने लगा। 1940 में मुस्लिम लीग ने लाहौर रेज्युलेशन पास मुस्लिमों के अलग देश पाकिस्तान बनाने की मांग उठा दी तो अकाली दल ने भी सिखों के लिए अलग देश बनाने की मांग जोर शोर से उठाने लगे। लेकिन, कुछ ही सालों में अंग्रेज देश से तो चले गए लेकिन विभाजन के रूप में ऐसी लकीर खींच गए जिसने दो देशों को तो जन्म दिया लेकिन इस विभाजन ने सिखों के अलग देश की मांग पर भी मिट्टी डाल दी। विभाजन का दंश हिंदुओं, मुस्लिमों के साथ ही सिखों ने भी झेला तो कुछ समय से सिख देश की मांग भी बंद हो गई। हालांकि, आजादी के कुछ साल बाद सिखों ने अलग देश की मांग फिर उठा दी हालांकि इस बार वह अलग देश के साथ ही भारत के अंदर एक अलग और स्वायत्त राज्य की मांग भी उठाने लगे।

 

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