राउंडटेबल डायलॉग: जानिये कितने घातक हो सकते हैं क्लाइमेट चेंज के प्रभाव
Pen Point, Dehradun : अगर आप धूम्रपान नहीं करते हैं तो भी शहरों में रहते हुए आपके फेफड़े काले पड़ सकते हैं। यह बात क्लाइमेट चेज के प्रभावों पर आयोजित एक राउंडेबल डायलॉग में सामने आई। उत्तराखंड में लोगों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर क्लाइमेट चेंज के प्रभावों पर चर्चा करने के लिये पहली बार इस डायलॉग का आयोजन किया गया। जिसमें स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों ने हिस्सा लिया। राउंडटेबल में इन प्रभावों से निपटने के लिए प्रदेश स्तर पर ठोस रणनीति बनाने की जरूरत बताई गई।
पर्यावरण, कचरा प्रबंधन और सतत शहरीकरण पर काम करने वाली सामाजिक संस्था एसडीसी फाउंडेशन की ओर से आयोजित राउंडटेबल डायलॉग में सर्जन और लेखक डॉ. महेश भट्ट, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के पूर्व वैज्ञानिक डॉ. पी.एस. नेगी, मुख्य चिकित्सा अधिकारी (सीएमओ) एलबीएसएनएए, मसूरी डॉ. मयंक बडोला, स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. मेघना असवाल, उत्तराखंड स्वास्थ्य विभाग के पूर्व अपर निदेशक डॉ. एस.डी. जोशी, यूएनडीपी राज्य प्रमुख उत्तराखंड डॉ. प्रदीप मेहता, सेंटर फॉर इकोलॉजी, डेवलपमेंट एंड रिसर्च में फेलो डॉ. निधि सिंह, उत्तराखंड स्वास्थ्य विभाग के आईईसी अधिकारी अनिल सती, सामाजिक कार्यकर्ता राकेश बिजल्वाण के साथ ही एसडीसी फाउंडेशन के संस्थापक अनूप नौटियाल और लीड रिसर्च एंड डॉक्यूमेंटेशन प्रेरणा रतूड़ी ने हिस्सा लिया।
राउंडटेबल डायलॉग की शुरुआत करते हुए डॉ. महेश भट्ट ने क्लाइमेट जस्टिस के पहलुओं और प्रभावों पर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि मैदान में तमाम सुविधाओं का इस्तेमाल कर रहे हम लोग पहाड़ों में जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली बादल फटने जैसी घटना के लिए कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं।
वाडिया के पूर्व वैज्ञानिक डॉ. पीएस नेगी ने उदाहरण दिया कि कैसे हम तापमान बढ़ाने और ग्लेशियरों के घटने का कारण बन रहे हैं। उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन से पारिस्थितिकी, अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य और उच्च हिमालय में औषधीय पौधों की पूरी प्रजाति खतरे में है।
डॉ. मयंक बडोला ने कहा कि जलवायु परिवर्तन से स्वास्थ्य पर पड़ रहे प्रभावों से निपटने के लिए उत्तराखंड सरकार विभिन्न प्रयास कर रही है। उन्होंने कहा कि हमें बीमारियों पर निगरानी के लिए मॉनीटरिंग प्रणालियों को मजबूत करने की जरूरत है। एक बड़ा खतरा वेक्टर जनित बीमारियों से है। उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने की दिशा में सभी हितधारकों को साथ मिलकर काम करने की जरूरत है।
डॉ. मेघना असवाल ने कहा कि बढ़ते तापमान का गर्भवती महिलाओं पर सीधा असर पड़ रहा है। समय से पहले प्रसव और जन्म के समय नवजात शिशुओं का कम वजन कहीं न कहीं जलवायु परिवर्तन का प्रभाव है। उन्होंने कहा कि जब कोविड अपना असर दिखा रहा था, हमने अस्पताल में वायु प्रदूषण के निम्न स्तर के कारण अस्थमा के रोगियों में कमी देखी। वैज्ञानिक प्रमाण भी वायु प्रदूषण और न्यूरोडेवलपमेंटल और न्यूरोडीजेनेरेटिव विकारों के बीच संबंध दिखाते हैं।
डॉ. एस.डी. जोशी ने बताया कि उन्होंने एक बार काले फेफड़ों वाले एक युवक की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट देखी थी, जबकि वह धूम्रपान नहीं करता था। उन्होंने कहा, माइक्रोप्लास्टिक्स, ब्लैक कार्बन और प्रदूषण के कई अन्य रूप स्ट्रोक, दिल के दौरे, मधुमेह, थायराइड, डिसफंक्शन जैसी बीमारियों में वृद्धि का कारण बन रहे हैं।
यूएनडीपी के डॉ. प्रदीप मेहता ने अपने अध्ययन का हवाला देते हुए कहा कि सेब की बेल्ट लुप्त हो रही है। राजमा की कई किस्में भी विलुप्त हो रही हैं। फसलों की विविधता और बारा अनाज (12 अनाज) की हमारी संस्कृति तेजी से ख़त्म हो रही है, जिसका असर हमारे पोषण पर पड़ रहा है। नैनीताल जैसी जगह में अब मच्छर और एयर कंडीशनर दिख रहे हैं। उन्होंने कहा कि जलवायु प्रवासियों की संख्या युद्ध प्रवासियों की संख्या से कहीं अधिक हो गई है, जो चिंता का कारण है।
सीडर संस्था की डॉ. निधि सिंह ने कहा कि जलवायु परिवर्तन के खतरों को देखते हुए विकास को नहीं रोका जा सकता, लेकिन आवश्यकता आधारित विकास के बजाय प्रभाव आधारित विकास पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि लैंगिक समानता, विकलांगता और सोशल इंक्लूजन को भी चर्चा में लाने की जरूरत है, क्योंकि महिलाएं, बच्चे और विकलांग किसी भी आपदा का सबसे ज्यादा खामियाजा भुगतते हैं।
सूचना, शिक्षा एवं संचार (आईईसी) अधिकारी अनिल सती ने कहा कि मैदानों में ही नहीं पहाड़ों में भी वेक्टर जनित बीमारियां बढ़ रही हैं। डेंगू अब महीनों तक रहता है और दूर-दराज के चमोली जिले तक लोग डेंगू की चपेट में आ रहे हैं। कहीं न कहीं यह जलवायु परिवर्तन का असर है। हमें अपनी आदतों और जीवनशैली को बदलने की जरूरत है।
माइग्रेशन और रिवर्स माइग्रेशन के क्षेत्र में काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता राकेश बिजल्वाण ने विवेकहीन उपभोग और बेतरतीब शहरीकरण पर सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि लोग पेट्रोल की जगह इलेक्ट्रिक कार बदलना चाहते हैं, लेकिन बैटरियों से होने वाले प्रदूषण के बारे में सोचने की ज़रूरत है।
एसडीसी फाउंडेशन के अनूप नौटियाल और प्रेरणा रतूड़ी ने प्रतिभागियों का आभार व्यक्त किया और कहा कि यह उत्तराखंड में स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन पर चर्चा को सामने लाने की शुरुआत है। उन्होंने इस चर्चा को सभी नेटवर्क और मंचों पर ले जाने का आग्रह किया, ताकि आने वाले समय में उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए प्रभावी रणनीति तैयार हो सके।