पुण्यतिथि : देश की पहली महिला शिक्षक, जिसने अपमान सहकर भी नहीं छोड़ी समाजसेवा की राह
PEN POINT : 18वीं सदी का तीसरा और चौथा दशक था, शिक्षा तक सबके लिए पहुंच आसान न थी न ही सबको पढ़ने लिखने का हक था। दलित दमितों के साथ ही महिलाओं को भी शिक्षा लेने पर पाबंदी थी। ऐसे रूढ़िवादी समाज में महिलाओं और पिछड़ों की शिक्षा के लिए अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर देने वाली सावित्रीबाई फुले के हिस्से भारत की पहली महिला शिक्षिका होने की उपलब्धि है। लेकिन, इसके लिए उन्हें समाज के ठेकेदारों से भीषण अपमान भी सहना पड़ा। आलम यह था कि जब वह बच्चियों को पढ़ाने स्कूल जाती तो लोग उन पर पत्थर फेंकते, कीचड़ उछालते लेकिन यह सब भी उनका हौंसला नहीं डिगा सके।
महाराष्ट्र के सतारा जिले के नयागांव में एक दलित परिवार में 3 जनवरी 1831 को जन्मी सावित्रीबाई फुले भारत की पहली महिला शिक्षिका थी। इनके पिता का नाम खन्दोजी नैवेसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले शिक्षक होने के साथ भारत के नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता, समाज सुधारक और मराठी कवयित्री भी थी। इन्हें बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए समाज का कड़ा विरोध झेलना पड़ा था। जब लड़कियों का स्कूल जाना प्रतिबंधित था तो सावित्रीबाई फुले स्कूल जाया करती थी। समाज के ठेकेदारों को यह रास नहीं आता तो वह उस पर पत्थर और गोबर फेंकते। उन्हें आधुनिक मराठी काव्य का अग्रदूत माना जाता है। भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई ने अपने पति समाजसेवी महात्मा ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर 1848 में उन्होंने बालिकाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की थी।
नौ साल की उम्र में हो गया था विवाह
सावित्रीबाई का विवाह महज नौ साल की उम्र में वर्ष 1840 में ज्योतिराव फुले से हो गया। शादी के बाद वह जल्द ही अपने पति ज्योतिराव फुले के साथ पुणे आ गईं। विवाह के समय वह पढ़ी-लिखी नहीं थीं न ही उन्होंने कभी स्कूल का दरवाजा भी देखा था। लेकिन पढ़ाई में उनका मन बहुत लगता था। उनके पढ़ने और सीखने की लगन से प्रभावित होकर उनके पति ने उन्हें आगे पढ़ना और लिखना सिखाया। सावित्रीबाई ने अहमदनगर और पुणे में शिक्षक बनने का प्रशिक्षण लिया और एक योग्य शिक्षिका बनीं।
पहले कन्या विद्यालय की स्थापना
सावित्रीबाई ने 3 जनवरी 1848 में पुणे में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ महिलाओं के लिए पहले स्कूल की स्थापना की। एक वर्ष में सावित्रीबाई और महात्मा फुले पांच नये विद्यालय खोलने में सफल हुए। तत्कालीन सरकार ने इन्हे सम्मानित भी किया। लड़कियों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी। सावित्रीबाई फुले उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ीं, बल्कि दूसरी लड़कियों के पढ़ने का भी बंदोबस्त किया।
एक साड़ी झोले में लेकर चलती थी
भारत में आजादी से पहले समाज के अंदर छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह और विधवा-विवाह जैसी कुरीतियां व्याप्त थी। सावित्रीबाई फुले का जीवन बेहद ही मुश्किलों भरा रहा। दलित महिलाओं के उत्थान के लिए काम करने, छुआछूत के खिलाफ आवाज उठाने के कारण उन्हें एक बड़े वर्ग द्वारा विरोध भी झेलना पड़ा। वह स्कूल जाती थीं, तो उनके विरोधी उन्हें पत्थर मारते और उनपर गंदगी फेंकते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुंच कर गंदी हुई साड़ी बदल लेती थीं। आज से एक सदी पहले जब लड़कियों की शिक्षा एक अभिशाप मानी जाती थी उस दौरान उन्होंने महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी पुणे में पहला बालिका विद्यालय खोल पूरे देश में एक नई पहल की शुरुआत की।
महिला अधिकारों की अग्रदूत
देश में विधवाओं की दुर्दशा भी सावित्रीबाई को बहुत दुख पहुंचाती थी। इसलिए 1854 में उन्होंने विधवाओं के लिए एक आश्रय खोला। वर्षों के निरंतर सुधार के बाद 1864 में इसे एक बड़े आश्रय में बदलने में सफल रहीं। उनके इस आश्रय गृह में निराश्रित महिलाओं, विधवाओं और उन बाल बहुओं को जगह मिलने लगी जिनको उनके परिवार वालों ने छोड़ दिया था। सावित्रीबाई उन सभी को पढ़ाती लिखाती थीं। उन्होंने इस संस्था में आश्रित एक विधवा के बेटे यशवंतराव को भी गोद लिया था। उस समय आम गांवों में कुंए पर पानी लेने के लिए दलितों और नीच जाति के लोगों का जाना वर्जित था। यह बात उन्हें और उनके पति को बहुत परेशान करती थी। इसलिए उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर एक कुआं खोदा ताकि वह लोग भी आसानी से पानी ले सकें। उनके इस कदम का उस समय खूब विरोध भी हुआ।
रूढ़ियों को तोड़ किया पति का अंतिम संस्कार
सावित्रीबाई के पति ज्योतिराव फुले का निधन 1890 में हो गया। आज भी हिंदू समाज में महिलाओं को अंतिम संस्कार का हक नहीं दिया जाता है लेकिन तब सावित्रीबाई फुले ने रूढ़ियों को तोड़ अपने पति का अंतिम संस्कार किया था। इसके करीब सात साल बाद जब 1897 में पूरे महाराष्ट्र में प्लेग की बीमारी फैला तो वे प्रभावित क्षेत्रों में लोगों की मदद करने निकल पड़ी, इस दौरान वे खुद भी प्लेग की शिकार हो गई और आज यानि 10 मार्च 1897 को उन्होंने अंतिम सांस ली।