सुमन : जिसने क्रूर राजशाही से जनता को मुक्ति दिलवाने के लिए दिया सर्वोच्च बलिदान
– आज अमर शहीद श्रीदेव सुमन की जयंती, राजशाही के अत्याचारों के खिलाफ 84 दिनों की ऐतिहासिक भूख हड़ताल के दी थी प्राणों की आहुति
PEN POINT, DEHRADUN : पूरा देश अंग्रेजों से आजादी के लिए लड़ रहा था तो टिहरी रियासत की प्रजा पर उनके अपने राजा और उसके कारिंदे ही जुल्म ढा रहे थे। टिहरी रियासत की क्रूरता, अत्याचार के खिलाफ संघर्ष को एक 29 साल के युवा ने अपने प्राणों की आहुति देकर धार दी। उस युवा के 84 दिनों के ऐतिहासिक अनशन के बाद दी गई शहादत ने राजशाही के अत्याचारों के ताबूत में भी आखिरी कील ठोंकने का काम किया।
आज अमर शहीद श्रीदेव सुमन की 108वीं जयंती है। आज के ही दिन 25 मई 1915 को टिहरी रियासत के चंबा के समीप स्थित जौल गांव में हरिराम बडोनी और तारादेवी के घर एक बालक का जन्म हुआ, नाम रखा गया श्रीदत्त बडोनी। वह दौर राजशाही का था और राजा को ईश्वर समान दर्जा दिया गया था। राजशाही जनता पर जुल्म ढा रही थी, पूरा देश जहां अंग्रेजों से देश की आजादी के लिए लड़ रहा था तो टिहरी राजशाही के अंतर्गत आने वाले लोगों पर उनकी राजशाही ही कहर बनकर बरप रही थी।
श्री देव सुमन ने प्राईमरी की परीक्षा चंबा स्कूल से पास की और सन 1929 ई. में टिहरी मिडिल स्कूल से हिन्दी की मिड़िल परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। मिडल परीक्षा के बाद वे शिक्षा के लिए राज्य की सीमा से बाहर निकल कर देहरादून चले आए। देहरादून आने के बाद वह उन दिनों आजादी की जंग लड़ रहे कई आंदोलनकारियों के संपर्क में आए। वह दौर नमक सत्याग्रह का था। देहरादून आकर स्वतंत्रता सैनानियों के संपर्क में आने के बाद वह भी देश को अंग्रेजों से आजादी की इस जंग में शामिल हो गए। 1930 में उन्होंने मात्र 14 वर्ष की किशोरावस्था में ‘नमक सत्याग्रह’ आंदोलन में हिस्सा लिया। उन्हें अंग्रेजी पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। करीब दो सप्ताह जेल में रखने के बाद श्रीदेव सुमन की कम उम्र को देखते हुए उन्हें रिहा कर दिया गया। इसके बाद स्कूली पढ़ाई पूरी कर पंजाब विश्वविद्यालय की रत्न भूषण व प्रभाकर तथा हिंदी साहित्य सम्मेलन की विशारद व साहित्य रत्न परीक्षा पास की। इसके बाद उन्होंने दिल्ली जाकर अध्यापन काम शुरू कर दिया। 17 जून 1937 को ‘‘सुमन सौरभ’’ नामक 32 पेजों का अपनी कविताओं का संग्रह भी प्रकाशित किया। उन्होंने 22 मार्च 1938 को दिल्ली में ‘‘गढ़देश सेवा संघ’’ की स्थापना की। इसके अलावा उन्होंने हिमालय सेवा संघ, हिमालय प्रांतीय देशी राज्य प्रजा परिषद, हिमालय राष्ट्रीय शिक्षा परिषद आदि संस्थाओं के स्थापना की। इसके आलावा छोटी सी उम्र में ही श्रीनगर गढ़वाल में आयोजित जिला राजनैतिक सम्मेलन में शामिल हुये, तथा इस अवसर पर उन्होंने पंडित जवाहर लाल नेहरु को अपने ओजस्वी भाषण से गढ़वाल राज्य की दुर्दशा से परिचित कराया, तथा खुद का मुरीद भी बना दिया। यहीं से उन्होंने ‘जिला गढ़वाल’ और ‘राज्य गढ़वाल’ की एकता का नारा बुलंद किया। साथ ही पूरी तरह से सार्वजनिक जीवन में आते हुए 23 जनवरी, 1939 को देहरादून में स्थापित ‘टिहरी राज्य प्रजा मंडल’ के संयोजक मंत्री चुने गये। अगस्त 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ शुरू होते ही इसमें हिस्सा लिया। 29 अगस्त 1942 को जब वह टिहरी लौट रहे थे तो देवप्रयाग में उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। पहले 10 दिन मुनि की रेती जेल में रखने के बाद ढाई महीने के लिए देहरादून जेल और उसके बाद 15 महीनों के लिए आगरा कारागार भेज दिया गया।
19 नवंबर 1943 को आगारा केंद्रीय कारागार से रिहा होने के बाद अब उन्होंने टिहरी रियासत में जुल्म का पर्याय बनी राजशाही के खिलाफ आवाज बुलंद करनी शुरू कर दी। वह राजशाही को ज्यादा जवाबदेह व उत्तरदायी बनाने की मांग कर रहे थे। जेल से छूटे के कुछ दिनों बाद ही 27 दिसंबर 1943 को उन्हें गिरफ्तार टिहरी जेल भेज दिया गया। 21 जनवरी 1944 को उन्हें दो साल की कैद और 200 रूपए जुर्माने की सजा सुनाई गई। हाथों में हथकड़ी और पैरों में बेड़ियां डाल राजशाही की पुलिस ने श्रीदेव सुमन को काल कोठरी में डाल दिया। राजशाही के इस व्यवहार और अत्याचार के विरोध में 29 फरवरी से श्रीदेव सुमन ने जेल में ही 21 दिन का अनशन शुरू कर दिया। इसके बाद 3 मई 1944 से टिहरी राजशाही के खिलाफ जेल में ही 84 दिन की ऐतिहासिक आमरण अनशन शुरु कर दिया। तमाम उत्पीड़न, उचित उपचार न दिये जाने व लंबे उपवास के कारण 24 जुलाई की रात से ही उन्हें बेहोशी आने लगी और 25 जुलाई 1944 को शाम करीब चार बजे इस अमर सेनानी ने अपने देश व अपने आदर्शों की रक्षा के लिये 209 दिन नारकीय जीवन बिताने के बाद अपने प्राणों की आहुति दे दी। राजशाही की पुलिस ने श्रीदेव की मौत के बाद भी उनके शव को कंबल में लपेटकर भागीरथी और भिलंगना नदी के संगम के पास तेज बहाव में बहा दिया। उनके परिवार को तक सप्ताह भर बाद उनकी मौत की खबर दी गई।
श्री देव सुमन की मौत ने टिहरी राजशाही के अत्याचारों के खिलाफ लोगां को मुखर स्वर दे दिया। सुमन की शहादत पर देश की आजादी का संघर्ष कर रहे पं. जवाहर लाल नेहरू समेत कई बड़े नेताओं ने दुख जताया।
श्रीदेव सुमन की शहादत ने राजशाही के खिलाफ आम जन के संघर्ष को तेज धार दी। राजशाही के खिलाफ खुला विद्रोह शुरू हो गया। विद्रोह के आगे झुककर आखिरकार टिहरी रियासत को प्रजामंडल को वैधानिक स्वीकृति देनी पड़ी। मई 1947 में प्रजामंडल का प्रथम अधिवेशन हुआ। 1948 में जनता ने देवप्रयाग, कीर्तिनगर और टिहरी पर अधिकार कर लिया और प्रजामंडल का मंत्रिपरिषद गठित हुआ। इसके बाद 1 अगस्त 1949 को टिहरी गढ़वाल राज्य का भारतीय गणराज्य में विलय हो गया।