STUDY! क्या नेहरू की तर्ज पर अध्ययन के नाम पर रीलांच की तैयारी में हैं कोश्यारी?
– 1958 में भी तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने अध्ययन और भ्रमण के नाम पर तत्कालीन राष्ट्रपति को भेज दिया था इस्तीफा, नेहरू प्रेम में डूबे राष्ट्रपति ने नेहरू का इस्तीफा नकार दिया
– इस्तीफा रद्द होने के बाद नेहरू के खाते में जुड़ी सबसे बड़ी नाकामियां, जीप कांड से लेकर चीन युद्ध में हार का ठीकरा भी फूटा नेहरू के सिर पर
PEN POINT, देहरादून। महाराष्ट्र के राजभवन को त्यागकर भगत सिंह कोश्यारी देहरादून पहुंच चुके हैं। देहरादून आगमन अपने इस दिग्गज नेता का भाजपा ने भव्य स्वागत किया। जाहिर हे कि महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य के राज्यपाल के पद से खुद इस्तीफा देकर कोश्यारी ने सब को चौंका दिया। आमतौर पर वरिष्ठ नेताओं के रिटायर्ड होम माने जाने वाले राजभवन से यूं बाहर जाने की इच्छा जताना किसी के गले नहीं उतरा। उनके इस मूवमेंट से उत्तराखंड की राजनीति में उधम मचने की संभावनाओं से किसी ने इनकार नहीं किया। पर कोश्यारी का दावा था कि वह बची हुई जिंदगी सिर्फ अध्ययन में खपाना चाहते हैं। हालांकि, अध्ययन के नाम पर रिटायरमेंट लेकर फिर से राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाने वाले कोश्यारी प्रकरण से पं. जवाहर लाल नेहरू का प्रकरण याद आ जाता है।
साल 1958 का था, करीब 11 साल देश के प्रधानमंत्री रहने के बाद नेहरू ने तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को एक पत्र भेज कर इत्तला किया कि वह प्रधानमंत्री बने रहने में रूचिकर नहीं हैं, वह घूमना चाहते हैं, वह पढ़ना चाहते हैं इसलिए उनकी इच्छा है कि प्रधानमंत्री पद पर किसी और की तैनाती हो। नेहरू रिटायरमेंट का पूरा विचार बना चुके थे। इतिहासकार रामचंद्र गुहा भी बताते हैं कि नेहरू 1958 में पूरी तरह से राजनीति से अलविदा कहने का विचार बनाकर अपने बाकी बचे जीवन की योजना बना चुके हैं। इंडिया आफ्टर गांधी में भी इस बात की तस्दीक होती है कि नेहरू ने तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को पत्र भेजकर इस फैसले से अवगत कराया लेकिन राजेंद्र प्रसाद इस फैसले पर उखड़ गये। राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू से आग्रह किया कि देश को उनकी जरूरत है और उन्हें बना रहना चाहिए। तब इंदिरा गांधी भी राजनीति में अपनी जड़ मजबूत कर रही थी। पुत्री को यूं ही पार्टी के विरोधी तत्वों से लड़ने के लिए छोड़ते हुए राजनीति छोड़ने का विचार नेहरू को भी अटपटा लगा तो उन्होनें अपना फैसला वापिस ले लिया और इंदिरा को अपनी छाया बना लिया।
हालांकि, इसके बाद जीप घोटाले को लेकर उनके दामाद फिरोज गांधी ने उन्हें संसद में घेरा तो 1962 में चीन ने भारत की सीमा पर युद्ध छेड़ कर उनके हिंदी चीनी भाई भाई विश्वास की हवा निकाल दी। आखिरकार 1964 में जब नेहरू ने देह त्यागी तो ज्यादातर कांग्रेसी यही कहते मिले कि काश नेहरू 1958 में ही राजनीति को अलविदा कह देते।
अब वापस लौटते हैं भगत सिंह कोश्यारी पर। उत्तराखंड की राजनीति में पिछले दो दशक से प्रासंगिक बने रहे कोश्यारी को मोदी सरकार ने महाराष्ट्र जैसे राज्य की कमान सौंपने के साथ ही उनके बेहद प्रिय अनुयाई पुष्कर सिंह धामी को उनकी विधानसभा हार के बाद भी मुख्यमंत्री की कमान सौंपी लेकिन कोश्यारी इससे भी शांत नहीं रहे। जब तक महाराष्ट्र विधानसभा में रहे राजनेताओं की तरह हर दिन किसी नए विवाद में उलझे रहे। करीब तीन महीने पहले उन्होंने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि उन्हें राजभवन से फारिग किया जाए।
उनके फारिग होने की खबर से उत्तराखंड की राजनीति में कोलाहल मच गया। हालांकि, उनका दावा था कि वह रिटायरमेंट लेकर अध्ययन करना चाहते हैं लेकिन उत्तराखंड की राजनीति गवाह है कि कोश्यारी कभी शांत नहीं बैठे। राज्य की राजनीति से करीब दो दशक पहले रिटायर हो चुके कोश्यारी आज भी राज्य की राजनीति में सबसे प्रासंगिक राजनेता है। ऐसे में उनकी अध्ययन के लिए छुट्टी लेने की बात किसी के गले नहीं उतर रही। ऐसे में उनकी रिटायरमेंट की बात नेहरू के रिटायरमेंट की बात के समान मानी जाने लगी है।