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अपने पीछे संघर्ष और आंदोलन के जज्बे की विरासत छोड़ विदा हुई सुशीला बलूनी

PEN POINT DEHRADUN: उत्तराखंड आंदोलन कोई मामूली आंदोलन नहीं रहा। उस दौर से वाकिफ लोग ही इसे समझ सकते हैं। कई मोर्चों पर लंबे संघर्ष हों या फिर मसूरी, खटीमा और मुजप्फरनगर में रामपुर तिराहा पर हुई त्रासदी हो, आंदोलन के लिए लोगों ने बहुत कुछ खोया। कहा जा सकता है कि पूरा राज्य ही आंदोलित था। इस आंदोलन के शुरूआत से लेकर राज्य गठन के बाद भी प्रमुख चेहरों में थी सुशीला बलूनी।

लंबी बीमारी के बाद 84 साल की उम्र में उन्होंने बीते मंगलवार को देहरादून के एक निजी अस्पताल में अंतिम सांस ली। उनके निधन की खबर सुनते ही कई लोग उनके डोभालवाला स्थित घर की ओर दौड़ पड़े। खास तौर पर उनके साथ राज्य आंदोलन और विभिन्न जनांदोलनों में शामिल हर शख्स बेहद गमगीन नजर आया। बुधवार की सुबह पहले उनके पार्थिव शरीर को पुष्पवर्षा करते हुए शहीद स्थल तक ले जाया गया। जब तक सूरज चांद रहेगा, सुशीला तेरा नाम रहेगा, इसी नारे के साथ लोगों ने उन्हें सम्मानजनक विदाई दी। इस दौरान उन्हें गार्ड ऑफ ऑनर भी दिया गया। इसके बाद हरिद्वार के खड़खड़ी घाट पर उनका अंतिम संस्कार हुआ। जहां बड़ी तादाद में राजनीतिक व गैर राजनीतिक संगठनों से जुड़े लोग पहुंचे।

 

दो लोगों के साथ शुरू किया था राज्य आंदोलन

देहरादून में ये वही शहीद स्थल है जहां कभी नीचे एक दरी और उपर तिरपाल डालकर सुशीला बलूनी ने रामपाल और गोविंदराम ध्यानी के साथ राज्य आंदोलन की अलख जगानी शुरू की थी। वरिष्ठ राज्य आंदोलनकारी मोहन सिंह रावत बताते हैं कि साल 1994 के अगस्त में पौड़ी में इंद्रमणी बडोनी उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर धरने पर बैठे थे। उस समय सुशीला ताई ने डीएम ऑफिस और कचहरी के पास धरना शुरू कर दिया था। तब हम डीएवी कॉलेज में पढ़ते थे और हमारी सीनियर छात्र भी राज्य आंदोलन से प्रभावित होने लगे थे। उनके साथ हमारा भी धरना स्थल पर आना जाना शुरू हो गया था, पहले मुट्ठी भर लोग ही वहां पर रहते थे, लेकिन धीरे धीरे आंदोलन जोर पकड़ता गया और हम सुशीला ताई के संघर्ष के जज्बे से वाकिफ होने लगे।

बेहद भावुक होते हुए मोहन सिंह रावत बताते हैं कि हम तब युवा थे और सुशीला जी हमारे लिए मां सरीखी थीं। आंदोलन के दौरान वे हमारा खूब ध्यान रखती थीं, और उसके बाद भी उन्होंने हमेशा अपना मातृ तुल्य व्यवहार बनाए रखा, जिसे हमें काफी मानसिक रूप से काफी संबल मिलता।

जितनी सरल थीं उतनी ही मजबूत

रावत कहते हैं कि वे जितनी सरल थीं उतनी ही मजबूत भी। एक वाकया है जब सुशीला ताई महिला आयोग की अध्यक्ष थीं और उनका श्रीनगर का दौरा था। जिसमें वे मुझे भी साथ ले गईं। बतौर अध्यक्ष उनके लिए जीएमवीएन में वीआईपी सुईट खुलवाया गया। जबकि वहां के कर्मचारी मुझे जीएमवीएन गेस्ट हाउस के नीचले तल पर एक मामूली कमरे पर ले गए। कुछ देर में सुशीला ताई ने मेरे बारे में पूछा तो उन्हें बताया गया कि उसके लिए नीचे एक कमरे का इंतजाम है। जिस पर वे बिफर पड़ीं वहां मौजूद कर्मचारियों फटकारते हुए उन्होंने कहा कि वो मेरा बेटा है, उसका बिस्तर भी मेरे सुईट में ही लगवाओ।

चक्का जाम : बस अड्डे के गेट पर अकेली जमीन पर लेट गईं

वरिष्ठ पत्रकार और राज्य आंदोलनकारी जितेंद्र अंथवाल भी सुशीला बलूनी का एक किस्सा बताते हैं, जिससे वे काफी प्रभावित हुए। बकौल अंथवाल, तब हम कॉलेज में पहुंच चुके थे और आंदोलन जैसी गतिविधियों में रूचि पैदा होने लगी थी। एक बार यूकेडी ने दो दिन के चक्का जाम का ऐलान कर दिया। आमतौर पर पहाड़ों पर तो इस तरह की कॉल पर बंद सफल हो जाता था, लेकिन देहरादून में ऐसा नहीं हो पाता था। लेकिन उस दिन सुशीला बलूनी ने कुछ और ही ठान रखा था। तब रोडवेज बस अड्डा राजपुर रोड पर घंटाघर के पास हुआ करता था। हम कॉलेज की ओर से रहे थे तो देखा कि सुशीला बलूनी बस अड्डे के गेट पर अकेली जमीन पर लेटी हुई हैं। उनके ऐसा करने से बसों के पहिए थमे हुए थे। वहां मौजूद अधिकारी कर्मचारी काफी मान मनौव्वल कर रहे थे। काफी देर बाद तत्कालीन डीएम वहां पहुंचे और उनके कान में कहा कि दीदी आप ऐसा मत करिये। काफी मान मनौव्वल के बाद वे जमीन से उठी और उन्हें गिरफ़तार कर लिया गया।
अंथवाल के बताते हैं कि आज जिसे हम शहीद स्थल कहते हैं उसे एक धरना स्थल से शहीद स्मारक बनाने का श्रेय सुशीला बलूनी को ही जाता है। पूरे आंदोलन में वे हमेशा केंद्रीय भूमिका में रहीं।

उत्तराखंड राज्य बनने के बाद भी वे राज्य के सवालों को लेकर मुखर रहीं। हालांकि भुवन चंद्र खंडूड़ी के मुख्यमंत्रित्व काल में वे बीजेपी में शामिल हो गईं। उन्हें राज्य आंदोलनकारी सम्मान परिषद का अध्यक्ष बनाया गया। इसके बाद वे एक बार मेयर का चुनाव भी लड़ीं पर हार का सामना करना पड़ा। फिर उन्हें राज्य महिला आयोग का अध्यक्ष भी बनाया गया। बीजेपी में शामिल होने पर उन्हें राज्य आंदोलन से जुड़े लोगों की नाराजगी भी झेलनी पड़ी। लेकिन राजनीति की पैंतरेबाजी उन्हें रास नहीं आई। लिहाजा उनकी छवि हमेशा बेदाग और निर्विवाद रही। कहा जा सकता है कि वे अपने पीछे संघर्ष और आंदोलन के जज्बे की विरासत छोड़ कर दुनिया से विदा हुईं।

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