डेरादून से देहरादून तक के 348 साल लंबे सफर का साथी है ऐतिहासिक झंडाजी मेला
– गुरू रामराय दरबार साहिब में आज शनिवार को आयोजित हो रहा है 348वां झंडा मेला, साल 1676 से शुरू हुआ था सालाना झंडे मेले के आयोजन का सिलसिला
Pen Point, Dehradun : करीब 349 साल पहले सिखों के सातवें गुरू हरराय महाराज के सबसे बड़े पुत्र गुरू रामराय महाराज ने साल 1675 में पहली बार आज की उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में कदम रखा था। चैत्र मास कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन अपने समर्थकों, शिष्यों के साथ पहली बार देहरादून की भूमि पर पहुंचे तो उनके घोड़े का पैर एक जगह धंस गया। ईश्वर का आदेश मानते हुए उन्होंने यहां डेरा जमाते हुए इसे अपना ठिकाना बनाया। इसके अगले साल यानि 1676 में पहली बार यहां झंडे का आरोहण किया गया। तब से लेकर अब तक हर साल होली के पांचवें दिन लगातार 348 सालों से गुरू राम राय दरबार में झंडेजी का आरोहण किया जाता है।
साल 2000 में उत्तर प्रदेश से पृथक हुए हिमालयी राज्य उत्तराखंड की राजधानी बना देहरादून शहर इन ढाई दशकों में खूब फला फूला है, अंग्रेजी हुकूमत के दौरान ब्रितानी सरकार की पसंदीदा जगहों में शामिल इस शहर को अंग्रेजी सरकार ने कई विश्व प्रसिद्ध संस्थान दिए लेकिन इस शहर की पहचान पिछली तीन सदियों से झंडेजी के मेले और गुरू राम राय दरबार के रूप में बनी हुई है। एक छोटे से गांव में आज के ही दिन साल 1675 में सिखों के सातवें गुरु हरराय महाराज के ज्येष्ठ पुत्र गुरु रामराय महाराज चैत्र मास कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन देहरादून पहुंचे थे। इसके एक साल बाद 1676 में इसी दिन उनके सम्मान में एक बड़ा उत्सव मनाया गया। इस आयोजन से ही झंडेजी मेले की शुरूआत हुई। जो अब देहरादून का वार्षिक समारोह बन गया है। गुरु राम राय महाराज सातवीं पातशाही (सिक्खों के सातवें गुरु) श्री गुरु हर राय के पुत्र थे। औरंगजेब महाराज से काफी प्रभावित था। औरंगजेब ने ही महाराज को हिंदू पीर की उपाधि दी थी। छोटी सी उम्र में वैराग्य धारण करने के बाद वह संगतों के साथ भ्रमण पर चल दिए। वह भ्रमण के दौरान ही देहरादून आए थे। जब महाराज जी दून पहुंचे तो खुड़बुड़ा के पास उनके घोड़े का पैर जमीन में धंस गया और उन्होंने संगत को रुकने का आदेश दिया। अपने तीर कमान से महाराज जी ने चारों दिशाओं में तीर चलाए और जहां तक तीर गए उतनी जमीन पर अपनी संगत को ठहरने का हुक्म दिया। दून पहुंचने पर औरंगजेब ने गढ़वाल के राजा फतेह शाह को उनका पूरा ख्याल रखने का आदेश भी दिया। क्योंकि इस गांव में गुरू रामराय महाराज ने अपना डेरा डाला था तो दून को डेरादून बुलाया जाने लगा जो कालांतर में देहरादून हो गया। गुरू रामराय महाराज के देहरादून पहुंचने के पवित्र दिन की याद में पिछले 348 सालों से हर साल गुरू रामराय दरबार में झंडेजी का आरोहण किया जाता है। जिसमें हिस्सा लेने के लिए देश विदेश भर से गुरू राम राय मिशन में विश्वास रखने वाले उनके अनुयाई हिस्सा लेते हैं।
महंत प्रथा शुरू हुई
गुरू राम राय महाराज जी की चार पत्नियां थीं। लेकिन, उन्हें पुत्र प्राप्त नहीं हो सका। साल 1687 में गुरू राम राय महाराज ने जीवनयात्रा पूरी कर ली तो उसके उनकी सबसे छोटी रानी पंजाब कौर ने उनकी जगह पूरा कार्यभार संभालाना शुरू कर दिया लेकिन वह इस दौरान कभी भी महाराज की गद्दी पर नहीं बैठी। माता पंजाब कौर ने इस दौरान चेला प्रथा शुरू की और पहला महंत श्री महंत औद दास जी को बनाया। इसके बाद ही यहां महंत प्रथा शुरू हुई। महंत औद दास 1687 से 1741 तक महंत पद पर रहे। इसके बाद महंत हर प्रसाद ने 1741 से 1766 तक महंत की जिम्मेदारी निभाई। उनके निधन के बाद महंत हर सेवक का कार्यकाल 1766 से 1818 तक रहा। इसके उपरांत महंत स्वरूपदास (1818-1842), महंत प्रीतमदास (1842-1854), महंत नारायणदास (1854-1885), महंत प्रयागदास (1885-1896), महंत लक्ष्मणदास (1896-1945), महंत इंदिरेश चरण दास (1945-2000) गद्दीनसीन रहे। महंत इंदिरेश चरण दास के निधन के बाद 25 जून 2000 को महंत देवेंद्रदास महंत की गद्दी पर बैठे।
दर्शनी गिलाफ से सजते हैं झंडेजी
मेले में झंडेजी पर गिलाफ चढ़ाने की परंपरा है। होली के पांचवें दिन पूजा-अर्चना के बाद पुराने झंडेजी को उतारा जाता है और ध्वजदंड में बंधे पुराने गिलाफ हटाए जाते हैं। जिसके बाद दरबार साहिब के सेवक दही, घी व गंगाजल से ध्वजदंड को स्नान कराते हैं। इसके बाद झंडेजी पर गिलाफ चढ़ाने की प्रक्रिया शुरू होती है। झंडेजी पर पहले सादे (मारकीन के) और फिर सनील के गिलाफ चढ़ाए जाते हैं। सबसे ऊपर दर्शनी गिलाफ चढ़ाया जाता है।