कहानी उस जासूसी अभियान की जिसने नंदा देवी पर्वत को तबाही का सामान बना दिया
PEN POINT, DEHRADUN : 16 अक्टूबर 1964, चीन के लोपनुर में सुबह सात बजे एक बड़ा धमाका होता है और उसे धमाके के बाद आसमान में धुएं का गुबार उठता है। 1960 से शुरू किए गए परमाणु अभियान के सफल होने का यह धमाका परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों में शामिल होने की चीन की धमक थी। प्रोजेक्ट 596 के नाम से बेहद गोपनीय तरीके से परमाणु हथियार बनाने और फिर परमाणु परीक्षण के धमाके की धमक पश्चिमी देशों में भी महसूस की गई। अमेरिका के साथ ही भारत की चिंता बढ़नी भी लाजमी थी। भारत तीन साल पहले ही चीन से युद्ध हार चुका था और चीन हड़पने वाली नीति के तहत अपना प्रसार करने में जुटा था। लिहाजा, अमेरिका ने भारत के साथ मिलकर तय किया कि चीन की परमाणु गतिविधियों पर नजर रखी जाए।
अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए ने भारत की खुफिया एजेंसी आईबी के साथ मिलकर चीन के परमाणु प्रसार पर नजर रखने के लिए भारत की सबसे उंची चोटी कंचनजंगा के जरिए जासूसी करने का फैसला लिया। भारत की खुफिया एजेंसी से मदद मांगने के बाद अमेरिका ने तय किया कि 8568 मीटर ऊंची कंचनजंगा चोटी पर जासूसी उपकरण स्थापित कर चीन की गतिविधियों पर नजर रखी जाए। इसके लिए भारतीय फौज से सलाह मशविरा लिया गया लेकिन कंचनजंगा चोटी की विषमता को देखते हुए भारतीय फौज ने इस चोटी पर ऐसे किसी अभियान को सुरक्षित नहीं माना। लिहाजा, अब अमेरिका ने चीन पर नजर बनाए रखने के लिए देश की दूसरी सबसे ऊंची चोटी चुनी। उत्तराखंड के चमोली में स्थित 7816 मीटर ऊंची नंदा देवी पर्वत को चीन की जासूसी के लिए चुना गया।
साल 1965 के अक्टूबर महीने में नंदा देवी पर्वत पर 56 किलो के वजन की एक मशीन स्थापित करने की योजना बनाई। इस मशीन में 10 फीट ऊंचा एंटीना, दो ट्रांस रिसीवर सेट और परमाणु सहायक शक्ति जनरेट शामिल था। परमाणु सहायक शक्ति जनरेट के न्यूक्लियर फ्यूल में प्लूटोनियम के साथ कैप्सूल भी थे, जिनको एक स्पेशल कंटेनर में रखा गया था। यह न्यूक्लियर फ्यूल जनरेटर साल 1945 में जापान के हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बम के आधे वजन का था। भारत और अमेरिका की खुफिया एजेंसियों के अधिकारियों के साथ ही नंदा देवी पर्वत पर आरोहण कर पाने वाले शेरपा और स्थानीय निवासी भी इस अभियान का हिस्सा बनाए गए। चीन पर नजर रखने वाले इन परमाणु चालित यंत्रों को चोटी तक पहुंचाने के लिए करीब 200 लोगों की टीम जुटी थी।
अक्टूबर के महीने में इन मशीनों के साथ टीम नंदा देवी पर्वत के 24 हजार फीट की ऊंचाईं पर स्थित कैंप 4 तक पहुंची तो मौसम बदलना शुरू हो गया। लगातार भारी बर्फवारी के बीच नंदा देवी चोटी तक पहुंचना मुश्किल था। अभियान में शामिल लोगों के लिए नंदा देवी की चोटी तक इस सामान को पहुंचाना मुश्किल था तो साथ ही वापिस अपने साथ नीचे उतारना भी खतरे से खाली नहीं था। टीम का नेतृत्व कर रहे कैप्टन मनमोहन सिंह कोहली ने अपनी टीम को बचाना चुना और प्लूटोनियम से भरे कैप्सूल और अन्य परमाणु सहायक यंत्रों को कैंप 4 में छोड़कर वापिस लौट गए।
फिर बर्फीले बियावाना में खो गया तबाही का सामान
1965 में नंदा देवी पर्वत पर प्लूटोनियम जैसे खतरनाक पदार्थ से भरी कैप्सूल और परमाणु सहायक मशीनों को कैंप 4 पर छोड़ कर आने के बाद फिर अगले साल इस अभियान को शुरू करने का फैसला लिया गया। अमेरिका और भारत की खुफिया एजेंसियों को उम्मीद थी कि जब वह नंदा देवी के कैंप 4 पर वापिस लौटेंगे तो उन्हें वहां छोड़ दिए गए जासूसी उपकरण फिर वापिस मिल जाएंगे। आठ महीने बाद यानि मई 1966 को फिर से यह अभियान शुरू किया गया। टीम कैंप 4 पर पहुंची तो वहां से सारा सामान गायब था। काफी खोज करने के बाद प्लूटोनियम से भरे वह कैप्सूल व अन्य उपकरण नहीं मिल सके। टीम ने अंदाजा लगाया कि भारी बर्फवारी के चलते वह उपकरण बर्फ में दब चुके होंगे। इसके साथ ही एक भारी तबाही का सामान नंदा देवी पर्वत में बर्फ के नीचे कहीं गुम है। बताया जाता है कि परमाणु उपकरण में शामिल प्लूटोनियम के वह कैप्सूल 100 साल तक सक्रिय रहेंगे लिहाजा अभी भी अगले चार दशकों तक नंदा देवी पर्वत की कोख में तबाही का सामान वैज्ञानिकों की चिंता बढ़ाता रहेगा।