दो सौ साल का हुआ उत्तराखंड में ‘आलू’ का सफर
– दो सौ साल पहले मेजर यंग ने सबसे पहले देहरादून में रोपे थे आलू के बीज, सफल प्रयोग के बाद कुमांऊ में होने लगी आलू की खेती
PEN POINT, DEHRADUN : आलू और भारतीय रसोई को एक दूसरे का पूरक माना जाता है। उत्तराखंड देश के सबसे बड़े आलू उत्पादक राज्यों में शामिल है। पहाड़ी आलू की किस्म अपने स्वाद के लिए खूब प्रसिद्ध है तो पहाड़ी किसानों के लिए आलू सबसे ज्यादा मुनाफा देनी वाली नकदी फसल के तौर पर भी प्रचलित है। आज पहाड़ी रंग ढंग में ढल चुके आलू को इसी साल उत्तराखंड में आए हुए 200 साल पूरे हो रहे हैं। दो साल पहले यूरोप से लाए गए आलू के बीज पहली बार उत्तराखंड के देहरादून में रोपे गए थे। हालांकि, देश में आलू के बीजों को पहुंचने के पचास साल बाद ही आलू उत्तराखंड में आ सका।
उत्तराखंड में करीब 12,422 हेक्टेयर कृषि भूमि पर हर साल 1,12,259 टन आलू का उत्पादन होता है। हालांकि, प्रति हेक्टेयर आलू उत्पादन के हिसाब से उत्तराखंड देश के औसत से आधा आलू ही उगा पाता है। राष्ट्रीय स्तर पर आलू का उत्पादन 205 कुंतल प्रति हेक्टेयर का औसत है। जबकि उत्तराखंड में प्रति हेक्टेयर में 90.37 कुंतल आलू का ही उत्पादन हो पाता है। उसके बावजूद आलू उत्पादन राज्य के पर्वतीय इलाकों में नकदी फसलों में सबसे महत्वपूर्ण फसल के तौर पर जानी जाती है। पहाड़ी इलाकों में नकदी फसलों में सबसे ज्यादा उत्पादन आलू का ही हो रहा है। लेकिन, आलू और उत्तराखंड का रिश्ता बहुत पुराना नहीं है। अंग्रेजों के साथ भारत पहुंचे आलू ठीक 200 साल पहले उत्तराखंड पहुंचा था। गोरखाओ को हराकर गढ़वाल राज्य को दो हिस्से में बांटने वाले अंग्रेजों ने टिहरी व उत्तरकाशी का हिस्सा गढ़वाल राजा को दे दिया था साथ ही देहरादून और गढ़वाल का आधा हिस्सा अपने पास रख लिया था। देहरादून की आबो हवा अंग्रेजों को खूब भाने लगी तो यहां फौजी बैरक तैयार करने के साथ ही अंग्रेजों ने कई महत्वपूर्ण संस्थानों की भी आधारशिला रखी। 1823 में देहरादून में मेजर यंग ने पहली बार आलू की फसल बोनी शुरू की। हालांकि, भारत में आलू की फसल साल 1773 से 1785 के बीच पहुंची थी। तत्कालीन भारत के गवर्नर जनरल वारेन हेंस्टिंग्स ने अपने कार्यकाल में सबसे पहले आलू को भारत पहुंचाया। गवर्नर जनरल वारेन हेंस्टिंग्स पहली बार 1773 में आलू भारत लेकर आए और यहां मैदानी इलाकों में इसकी खेती शुरू करवाई। इसके बाद यह फसल देश भर में तेजी से लोकप्रिय हुई और किसानों के लिए निर्यात के लिए प्रमुख नकदी फसल बन गई। देहरादून में आलू की फसल के सफल प्रयोग के बाद कुमांऊ में सर हेनरी रैम्जे आलू की फसल को लेकर पहुंचे। इतिहासकारों की मानें तो साल 1864 में हैरी बर्जर नाम की अंग्रेज महिला ने नैनीताल व उसके आसपास के क्षेत्र में आलू की फसल बोनी शुरू की। आलू उत्पादन के शुरूआती परिणाम उम्मीदों से बेहतर रहे तो नैनीताल के आसपास के इलाकों में भी स्थानीय लोगों ने बागवानी के साथ आलू का उत्पादन शुरू कर दिया। कुमांऊ की आबोहवा आलू उत्पादन के अनुकूल पाने पर अंग्रेजी सरकार ने यूरोप से काला और लाल आलू मंगवाकर कुमांऊ क्षेत्र में व्यापक पैमाने पर उगाना शुरू कर दिया। साल 1884 में काठगोदाम और बरेली के बीच रेल सेवा शुरू होने से अल्मोड़ा, नैनीताल, हल्द्वानी से आलू देश के अलग अलग शहरों में भेजा जाने लगा। आलू के बेहतर उत्पादन से उत्साहित तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने साल 1909 में ज्योलिकोट में आलू के उन्नत बीजों के लिए कुमांऊ सरकारी उद्यान की स्थापना की।
दो सौ सालों के सफर में आलू को उत्तराखंड की आबोहवा खूब भाने लगी और दो सौ साल पहले प्रयोग के तौर पर जमीन के एक छोटे हिस्से में रोपे गए आलू का उत्पादन आज राज्य में एक लाख टन पार कर गया है।