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CINEMA DAY : चार दशक के सफर में ही फूलने लगा उत्तराखंडी सिनेमा का दम

– साल 1983 में जग्वाल फिल्म के साथ हुई थी उत्तराखंड के आंचलिक सिनेमा की शुरूआत, अब तक 70 के करीब बन चुकी है गढ़वाली कुमाऊंनी फिल्में, सरकारी इमदाद के भरोसे खींच रही आंचलिक सिनेमा की गाड़ी
PEN POINT, DEHRADUN : आपने हाल ही में आखिरी फिल्म कौन सी देखी। आपमें से ज्यादातर का जवाब होगा कोई हिंदी फिल्म या हिंदी में डब की गई कोई दक्षिण भारतीय फिल्म। लेकिन, बहुत कम ही होंगे जिन्हें हाल ही में कोई गढ़वाली या कुमाऊंनी फिल्म देखी होगी। ऐसा नहीं है कि गढ़वाली या कुमाऊंनी फिल्में बन रही है, हर साल बन रही है और रीलिज भी हो रही है लेकिन न तो इन फिल्मों को प्रदर्शन के लिए थिएटर मिल रहे हैं न ही दर्शक। उत्तराखंड के आंचलिक सिनेमा का सफर बहुत पुराना नहीं है तो बिल्कुल नया भी नहीं है।

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भारतीय सिनेमा सौ साल पूरे कर चुका है, हिंदी फिल्मों के साथ ही देश भर में आंचलिक फिल्मों का भी सफर शुरू हुआ और वह फली फूली भी। आज से ठीक चालीस साल पहले 4 मई 1983 को जग्वाल नाम की गढ़वाली फिल्म रीलिज हुई। पराशर गौड़ के निर्देशन में बनी इस फिल्म के साथ ही उत्तराखंड के आंचलिक सिनेमा का सफर शुरू हुआ। जग्वाल यानि लंबा इंतजार, यूं तो यह पहली गढ़वाली फिल्म थी लेकिन इस फिल्म को दर्शकों के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा। पहली गढ़वाली फिल्म होने के बावजूद इसके हिस्से मुनाफा नहीं आया लेकिन इस फिल्म के साथ आंचलिक सिनेमा का सफर शुरू हो चुका था। दो साल बाद यानि साल 1985 में एक अन्य गढ़वाली फिल्म रीलिज हुई। करीब 35 लाख के बजट में बनी घरजवैं पहली गढ़वाली फिल्म थी जिसे दर्शकों का खूब प्यार मिला। दिल्ली के संगम सिनेमा घर में यह फिल्म 29 हफ्तों तक चली तो दूर दराज के पहाड़ी जिलों में स्थित तब के सिंगल स्क्रीन सिनेमा घरों में भी इसे देखने खूब दर्शक उमड़े। घरजवैं फिल्म पहली व आखिरी सफल गढ़वाली फिल्म होने जो तमगा मिला वह करीब 35 सालों बाद टूट सका। घरजवैं के बाद हाल ही में रीलिज हुई मेरू गौं दूसरी गढ़वाली फिल्म बनी जिसे सफल करार दिया गया। मेरू गौं अपने निर्माण में लगी लागत निकालने में सफल साबित हो सकी तो साथ ही देश में सिनेमा क्षेत्र की दिग्गम कंपनी पीवीआर ने इस फिल्म को देश के अलग अलग शहरों में स्क्रीन दिए। साढ़े तीन दशक बाद दूसरी गढ़वाली फिल्म थी जो कमाई के लिहाज से सफल मानी गई तथा जिसे दर्शकों ने भी खूब पसंद किया।

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गढ़वाली बोली में अब तक 70 से अधिक फिल्में बन चुकी है तो कुमाऊंनी में भी 5 से अधिक फिल्मों का निर्माण हो चुका है। लेकिन, ज्यादातर फिल्मों को प्रदर्शन के लिए या तो सिनेमाघर मिल रहे हैं और अगर सिनेमाघर मिल भी रहे हैं तो दर्शक नसीब नहीं हो रहे है।
फिलहाल बीते सालों में हर साल एक गढ़वाली फिल्म रीलिज हो रही है। कुछ सिनेमाघरों में भी प्रदर्शित भी की जाती है लेकिन दर्शकों के न पहुंचने से उत्तराखंड की आंचलिक फिल्मों का उद्योग दम तोड़ रहा है। फिलहाल, राज्य के फिल्मों की गाड़ी का इंजन सरकार से मिलने वाली इमदाद के भरोसे चल रहा है। वर्तमान में राज्य सरकार आंचलिक फिल्मों के निर्माण में 30 फीसदी तक का अनुदान दे रही है। उत्तराखंडी फिल्मों को नया जीवन देने के लिए फिल्म उद्योग से जुड़े लोग इस अनुदान को बढ़ाकर 50 फीसदी करने की मांग कर रहे हैं। बीते साल आंचलिक फिल्मों से जुड़े प्रतिनिधिमंडल ने मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से भी मुलाकात कर आंचलिक फिल्म निर्माण में 50 फीसदी अनुदान देने की मांग की थी। हालांकि, मुख्यमंत्री ने तब मौखिक तौर पर अनुदान राशि बढ़ाकर 40 फीसद करने का आश्वासन दिया था लेकिन इस संबंध में अब तक कागजी कार्रवाई नहीं हो सकी है।
मेरू गौं फिल्म के निर्देशक अनुज जोशी बताते हैं कि गढ़वाली फिल्मों के निर्माण में जो धनराशि खर्च होती है उसका वापिस आना बहुत मुश्किल हो जाता है लिहाजा यह उद्यम दम तोड़ रहा है। वह बताते हैं कि गढ़वाली फिल्मों के बुरे दिन के लिए इस क्षेत्र में गैर तकनीकि लोगों का आना भी कारण है जिनकी कहानियों में नया पन तो नहीं है लेकिन वह 70-80 के दशक की हिंदी फिल्मांे की कहानियों को पहाड़ की पृष्ठभूमि देकर फिर से रच बुन रहे हैं जिससे लोगों का मन गढ़वाली फिल्मों से उचटने लगा। अनुज जोशी बताते हैं कि गढ़वाली सिनेमा ने दर्शकों का विश्वास तोड़ा है जिस कारण इस आंचलिक फिल्म उद्योग की हालत बदहाल हुई है। वह कहते हैं कि अगर लोक की कहानियां, पहाड़ की कहानियां लोगों को रौचक तरीके से बताई जाए तो देश दुनिया में बसे गढ़वाली कुमाऊंनी लोग फिल्मों को देखने पसंद करेंगे और साथ ही अलग अलग भाषाई लोग भी फिल्मों की तरफ आकर्षित होंगे।

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