क्या है भालू का पित्त? जिसकी तस्करी उत्तराखंड में सबसे ज्यादा है
Pen Point, Dehradun : जानवरों के अंगों की तस्करी की खबरें हम आए दिन पढते और सुनते हैं। भालू का पित्त भी एक ऐसा ही अंग है जिसकी जमकर तस्करी होती है। खास बात ये है उत्तराखंड इस मामले में सबसे ज्यादा तस्करी वाला राज्य है। बीते सोमवार को भी चमोली जिले में भालू के पित्त के साथ दो तस्कर दबोचे गए। इससे पहले भी कई बार वन विभाग और पुलिस की टीमें ऐसे मामलों को पकड़ चुकी हैं। तस्करी के इन मामलों में जब्ती भी होती है, लेकिन जो मामले पकड़ में नहीं आते उनमें बहुत बड़ी खेप अवैध कारोबार के जरिये बाहरी चीन, रूस और कोरिया तक पहुंच जाती है। साइंस डायरेक्ट में प्रकाशित एक शोध रिपोर्ट के मुताबिक साल 2010 से 2019 तक भारत में उत्तराखंड में सबसे ज्यादा भालू के पित्त जब्त किये गए। जिनमें 33 मामलों में 63 पित्ताशय बरामद किये गए।
क्या है उपयोग?
पारंपरिक चीनी चिकित्सा भालू के पित्त के व्यापार का प्रमुख आधार है। सोने के रंग जैसे इसके तरल पदार्थ का उपयोग हजारों वर्षों से चीन में पारंपरिक चिकित्सा में किया जाता रहा है। जिसका पहला संदर्भ 659 ईस्वी में तांग राजवंश चिकित्सा पाठ में दिखाई देता है। यह मिर्गी, बवासीर, हृदय रोग, कैंसर, सर्दी और हैंगओवर की दवा बनाने में इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि 1950 के दशक से इसका उत्पादन कृत्रिम रूप से किया जाता रहा है, लेकिन पारंपरिक चिकित्सा में विश्वास रखने वाले प्राकृतिक रूप का उपयोग करना पसंद करते हैं।
भालू से पित्त निकालने के तरीके
एक बार जब भालू का शिकार किया जाता है, तो उसके पित्ताशय को निकाला जाता है और पित्त के लिए दूध निकाला जाता है। जिसे बाद में गोलियों, शीशियों और क्रीम में बदल दिया जाता है। ट्रैफिक की एक रिपोर्ट के अनुसार, जापान, मलेशिया, म्यांमार और वियतनाम में उत्पादन सुविधाएं हैं। हालांकि अधिकांश चीन में हैं। ऐनिमल एशिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि प्राकृतिक रूप से जहां भालू का पित्त निकालने के उसे मारा जाता है, वहीं इसके कृत्रिम तरीके में पाले गए भालुओं को असहनीय दर्द दिया जाता है। इस तरह पित्त निकालने के तरीके भालुओं में गंभीर पीड़ा, दर्द और संक्रमण का कारण बनते हैं। पित्त के लिये भालू पालने वाले ज्यादातर फ्री-ड्रिप विधि अपनाते हैं। जहां भालू के पित्ताशय से पेट के माध्यम से एक स्थायी खुला मार्ग बनाने के लिए सर्जरी की जाती है। ऐसी कच्ची सर्जरी साफ सुथरी नहीं होती और शायद ही कभी पशुचिकित्सक द्वारा की जाती है। इसके चलते कई भालू संक्रमण या अन्य जटिलताओं से मर जाते हैं, और जो बच जाते हैं उन्हें पीड़ा होती है।
अन्य तरीकों में धातु या लेटेक्स कैथेटर का स्थायी सर्जिकल प्रत्यारोपण शामिल है जो सीधे भालू के पेट से पित्त को निकालता है। कुछ भालुओं को मेटल जैकेट भी पहनाई जाती है। मध्ययुगीन शैली के यातना उपकरण की याद दिलाते हुए। इसे पित्त निकालने वाले कैथेटर को यथास्थान रखने के लिए डिज़ाइन किया गया है। भारी और आम तौर पर जंग लगने वाले, वे तेज स्पाइक्स और धातु की पट्टियों का उपयोग करके भालू की गतिविधियों को रोकते हैं।
कैसे होता है अवैध व्यापार
भालू के पित्त उत्पादों को अवैध रूप से निर्यात किया जाता है। इसे पूरे एशिया में बेचा जाता है। चीन और जापान को छोड़कर अधिकांश एशियाई देशों में यह व्यापार प्रतिबंधित है, जहां भालू के पित्त की घरेलू बिक्री वैध है। प्रमुख तौर पर चीन, जापान, कोरिया और रूस में इसके बड़े खरीददार हैं। जहां भालू के पित्त से जुड़ी परंपरागत चिकित्सा शैलियां अपनाई जाती हैं।
भारत में भालू का संरक्षण और कानून
भारत में वन्यजीव संरक्षण भारतीय वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम 1972 के अंतर्गत आता है। जिसके तहत भारत में पाई जाने वाली भालू की सभी चार प्रजातियां संरक्षित हैं। सन बियर और स्लॉथ भालू को अधिनियम की अनुसूची 1 में सूचीबद्ध किया गया है। एशियाई काले भालू को अनुसूची 1 के भाग 2 में सूचीबद्ध किया गया है। जबकि भूरे भालू को अनुसूची 2 के अनुसूची 1 और भाग 2 दोनों में सूचीबद्ध किया गया है, फिर भी, दंड और जुर्माने के संबंध में दोनों अनुसूचियों पर समान नियम लागू होते हैं। दोनों अनुसूचियों में सूचीबद्धता अनिवार्य रूप से सूचीबद्ध प्रजातियों या उनके उत्पादों, यानी ट्राफियां, मांस, पशु लेख इत्यादि के शिकार, हत्या, बिना लाइसेंस के कब्जे, बिना लाइसेंस के परिवहन और विरासत के अलावा हस्तांतरण के किसी भी तरीके पर रोक लगाती है।
Image- Animal Asia