क्या है, नवरात्रों के साथ त्योहारी मौसम में उत्तराखंड की ज्योति मातृका चित्र कला की मान्यता ?
Pen Point Dehradun : शनिवार 14 अक्टूबर को अमावस्या के मौके पर पितृपक्ष सपन्न हो गया है। वहीं आज रविवार 16 अक्टूबर से सनातन आस्था में विश्वास रखने वाले करोड़ों लोगों के लिए आज से शुभ कार्यों के साथ नौ दुर्गा स्वरूपा के शारदेय नव रात्रों की शुरूआत हो गयी है। देव भूमि के रूप में दुनिया भर में पहचान रखने वाले हिमालयी राज्य उत्तराखंड में सालभर ग्रामीण अंचलों में तमाम धार्मिक अनुष्ठान होते रहते हैं। ऐसे में करोड़ों सनातनियों के लिए विशेष त्योहारी मौसम आरम्भ होने से यहाँ विभिन्न पारम्परिक सफाई और साज-सज्जा के काम होने लगे हैं। जिसमें घरों में रंग रोगन से लेकर चित्रकारी और तमाम नयापन देखने को मिलता है।
उत्तराखंड में नवरात्री, दशहरा, दीवाली इत्यादि के मौकों पर सदियों से विभिन धार्मिक चित्रकारी और सज सज्जा परम्परा रही है। इसमें मुख्य रुप से देवताओं को विभिन्न आकारबद्ध स्वरुप में चित्रित कर या अंकित किया जाता है। कुमाऊँ क्षेत्र में महिलाएँ विभिन्न अनुष्ठानों के मौके पर जलरंगों की मदद से कई मनमोहक चित्रों को मूर्त रुप देती हैं। जिन्हें स्थानीय भाषा में ज्यूँति कहा जाता है। कई जगहों पर लोग इसे ज्यूँति मातृका पट्ट भी कहते हैं। ज्यूँति का मतलब सामान्यतः ज्योति से हुआ लगता है। ऐसे में नवरात्रों के मौके पर इस तरह की चित्रकला को जगत जननी शब्द से जोड़ कर देखा जाता है।
देवी-देवताओं को चित्र के तौर पर उकेरने को दो आयामी ज्यूँति को बनाया जाता है। इस चिरकारी संरचना में विभिन्न रंग व प्रतीक प्रयोग किए जाते हैं। ज्यूँति संरचना में जल रंगों का प्रयोग किया जाता है। इसके लिए पट्टे अथवा ज्यूँति में जो चित्र बनाया जाता है, वह दीवार या कागज पर तैयार किया जाता है। इसके बाद रुई के मदद से उकेरा जाता है। खास बात यह है कि इसमें देवता विशेष के बारे में जानकारी दर्शाई जाती है।
उत्तराखंड में ज्यूँति के अलावा भी कई चित्र हैं, जो खास तरह से भित्ति चित्रों के रुप में या कागज के धरातल पर तैयार किए जाते हैं। देवभूमि में मांगलिक अवसरों पर देव प्रतिष्ठा के रुप में इन्हें पूजा जाता है। भित्ति चित्रों में ज्यूँति के अतिरिक्त ज्यूँति मातृका चौकी, दुर्गा थापे कृष्णजन्माष्टमी जैसे प्रमुख अवसरों पर इन्हें उकेरा जाता है।
ज्यूँति को यहाँ खास तौर रुप से विवाह, नामकरण, छटी, यज्ञोपवीत संस्कार में पूजने कि परम्परा रही है। खास कर इसे पूजाकक्ष व घर के मुख्य कक्ष की दीवार पर बनाया जाता है। यहाँ महिलाएँ इसको बनाने में गुलनार (लाल) लड्डू – पीला व बैगनी रंग इस्तेमाल करती हैं। ज्यूँति आयताकार बनाई जाती है। इसे घर के कमरे की दीवार या जरूरी पट पर ऊपर से नीचे की तरफ उकेरा जाता है। सबसे बाहरी किनारों पर बेलों का चित्रण कर सजाया जाता है। इसके भीतर की ओर लाल रंग से छोटे हिमांचल, बेलबूटे, और बड़े हिमांचल बनायें जाते हैं। मुख्यतः हिमांचल को गेरुई अथवा लाल – गुलनार रंग से सफेद बैकग्राउंड पर किया जाता है। पर्वतीय क्षेत्र को हिमालय के दूसरे नाम हिमांचल के नाम से भी जाता ही इसलिए ही अनुमन लगाया जा सकता है कि इसे हिमांचल नाम दिया गया प्रतीत होता है। यही वजह है कि ये छोटे व पर्वतों के चोटियों जैसे दिखते हैं।
जानकार बताते हैं कि छट्टी व नामकरण संस्कार के मौके पर बनने वाली ज्यूँति में तीन देवियों महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी, दाहिनी ओर गणेश नीचे की ओर एक विशिष्ट डिजायन षोढ्श मात्रा के रूप में बनायी जाती है। चारों ओर किनारों पर बनी छाजी बेल कहलाती है। इसके बाहर क्षैतिज आर ऊर्ध्वाधर विन्दुओं से बनी पुष्प बेल होती है, जो इसे बेहद दर्शनीय बना देती है।
उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में यज्ञोपवित के अवसर पर बनने वाली ज्यूँति केन्द्र में तीन जीव माताएं व गणेश के चित्र अपने वाहन सहित बनाये जाते हैं। वहीँ नीचे की तरफ प्रतीकात्मक रूप में सोलह माताओं व सबसे ऊपर सूर्य, चन्द्रमा और तारे तथा दोनों ओर की पट्टियों में सांगालियावार बनाये जाते हैं। इसे एक तरह से मंदिर की कल्पना तौर पर उकेरा जाता है। जिसमें मंदिर का छज्जा या झरोखा साफतौर पर दर्शाया प्रतीत होता है।
विवाह संस्कार में प्रयुक्त होनेवाली ज्यूँति में जनेऊ तथा छापरी नहीं बनती। हरे का वृक्ष के पास विशिष्ट आकृति के कमल का फूल और राधाकृष्ण बनाये जाते हैं। यहाँ बनायी जानेवाली ज्यूँति देवियां महाकाली और महालक्ष्मी मानी जाती हैं। इन मातृकाओं व गणेश को भी लाल, पीले, हरे रंग से तैयार किया जाता है तथा स्थानीय परिवेश के अनुरुप राधा को सिर पर मुकुट, लहंगा, पिछौड़ा, से सज्जित किया जाता है।
पारम्परिक तरीके से पूर्व में ज्यूँति का चित्रण घर के मुख्य कक्ष की दीवारों पर घर में बने रंगों से होता था। इसके लिए लाल रंग में गुलनार मिलाकर बनाते थे। अब पीले रंग के हल्दी व लड्डू पीला रंग मिलाया जाता है। सरलता से वरबूँद बनाने के लिए बिन्दुओं बनाये जाते हैं। जिन्हें महिलाएँ अब अक्सर गुड़ व कोयला मिलाकर बनातीं थी। पूरी ज्यूँति बनाने के लिए मालू के पत्ते की डंठल का उपयोग सींक या ब्रुश बनाकर किया जाता है। लेकिन अब तेजी से बदलते परिवेश और समय की कमी और आधुनिकता के समावेश ने ज्यूँति का अंकन भी तेल व जल से कागज पर किया जाने लगा है। जानकारी बताते हैं कि उत्तराखंड की इस ज्यूँति चित्रों की शैली पर पर सेन और पाली चित्रकला का प्रभाव दिखाई देता है। इस शैली में अल्पनायें लाल, नीले, पीले काले व सफेद रंग से निर्मित होती थी जो कुमाऊँ के बरबूँद, थापा, ज्यूँति पट्टे और अन्य भित्ति चित्रों पर दिखाई देती है।
कुमाऊँ में ज्यूँति के अलावा घरों में जो चित्र अधिक बनाये जाते हैं उनमें दुर्गा, दुर्गा पूजा के लिए पूजा के कमरों में जमीन पर लिखे जानेवाले आलेखनों के अलावा दीवारों पर थापे उकेरे जाते हैं। इनमें दूर्गा थापा प्रमुखता से स्थापित किया जाता है। थापा शब्द का मतलब -प्रतिष्ठा से लगाया जाता है। थापे विशेषकर नवरात्रियों में पूजे जाते हैं। वरबूँद की भाँति थापे रंगीन लाल, हरे, पीले रंग से निर्मित होते हैं। इनमें शक्ति के कई स्वरुपों, प्रतीकों, क्षेज्त्र विशेष के देवताओं का चित्रण होता हैं। इसी कारण शैली की दुष्टि से ये चित्रात्मक शैली के तहत आते हैं।
इसमें अष्टभुजाधारी देवी दुर्गा को सिंह पर आरुढ़ दिखाया जाता है। देवी के दाहिनी ओर कोटकांगड़ा देवी, बायीं ओर अट्ठारह ङाथ वाली नव दिर्गा की आकृति बनायी जाती है जिनके आगे बायीं ओर पुण्यागिरी और दायीं ओर दूनागिरी देवी अंकित होती हैं। पुण्यागिरी देवी नैनीताल में टमकपुर के पास तथा दूनागिरी देवी अल्मोड़ा जनपद में द्वारहाट के पास द्रोणागिरी पर्वत पर स्थित हैं। इस विशेष चित्रकारी में बारहदलों के कमलदल से घिरा रहता है। सबसे ऊपर लक्ष्मी और विष्णु के प्रतीक सुवासारंग, ब्रह्माण्ड, सरस्वती, सूर्य, चन्द्र तथा लोक देवताओं के रुप में भोलानाथ तथा गोलानाथ अंकित किए जाते हैं। गोलानाथ इसमें अश्व की रास पकड़े दिखाये देते हैं। दाहिने कोने पर नवचंडी का यंत्र और चामुण्डा यंत्र बनाये जाते हैं।
इसके साथ नीचे कि तरफ रात्रि के प्रतीक अंधियारी उजियारी देवीयाँ दर्शित की जाती हैं। स्वास्तिक, रामलक्ष्मण, बालाबर्मी, लमकुरा छः शीश वाली दुर्गा, लक्ष्मी तथा गणेश आदि देवता चित्रित किये जाते हैं। इनमें से कुछ क्षेत्र विशेष के देवता हैं। इस थापे की देवी के कई प्रतीकों और चिन्हों की स्थापना करके पूर्ती की जाती है।
ज्यूँति पट्टों में जहाँ तक रंगों के प्रयोग से यह बताने का प्रयास जान पड़ता है कि रंग इंसानों की भावनाओं को जगाये रखने की असीमित ताकत रखते हैं। रंगों का जीवन के साथ गहरा लगाव होता है, साथ ही सौन्दर्य बोध भी रंगों के विभिन्न सम्मिश्रणों से ज्यादा निखर उठता है।