मूल निवासियों बगैर ही नेलांग जादुंग को आबाद करने की यह कैसी तैयारी
– भारत चीन युद्ध के दौरान जादुंग, नेलांग के ग्रामीणों को बगोरी व डुंडा में किया गया था विस्थापित, अब इन दोनों गांवों को फिर से आबाद करने की कवायद शुरू
PEN POINT, DEHRADUN : साल 1962 में भारत चीन युद्ध के दौरान भारत तिब्बत सीमा से सटे जादुंग नेलांग गांवों के 16 परिवारों को सुरक्षा की दृष्टि से हर्षिल के समीप बगोरी में विस्थापित कर दिया गया था। अब छह दशक बाद जादुंग नेलांग को फिर से आबाद करने की योजना पर सरकार काम कर रही है। मिनी लद्दाख के नाम से पर्यटकों में मशहूर इस इलाके को फिर से आबाद करने की पिछले आठ सालों में दर्जन भर बार मुख्यमंत्री व पर्यटनमंत्री घोषणा कर चुकी है लेकिन छह दशकों से हिमालयी रेगिस्तान में तब्दील हो चुके इस इलाके के मूल निवासियों को अब तक इस पूरी प्रक्रिया में शामिल नहीं किया गया है। सरकार की ओर से जादुंग नेलांग को आबाद करने की योजना धरातल पर उतारने के लिए कई सर्वे टीम भी भेजी पर जिन परिवारों को यहां वापिस बसाने की योजना है उन्हें न तो अब तक सूचित किया गया है न उनसे कोई संवाद स्थापित किया गया है। जबकि, यह परिवार इंतजार कर रहे हैं कि सरकार उनसे भी पूछे कि वह वापिस जाना भी चाहते हैं या नहीं।
1962 भारत चीन युद्ध के दौरान सीमांत नेलांग जादुंग को खाली कर अन्यत्र विस्थापित कर दिया गया था। एक दशक पहले तक आम लोगों के लिए इन इलाकों में आवाजाही की भी इजाजत नहीं थी, लेकिन साल 2012-13 में सरकार ने इनर लाइन परमिट जारी कर इन इलाकों में पर्यटकांे को जाने की अनुमति दी तो करीब पांच दशक बाद इस इलाके के दिलकश नजारे लोगों के सामने आए। लद्दाख की तरह बेहद खूबसूरत इलाके को फिर से आबाद करने की मांग जोर पकड़ने लगी। उत्तरकाशी जनपद का नेलांग और जादुंग, भारत तिब्बत सीमा से सटा यह इलाका जाड़ गंगा के तट पर बसा था। समुद्रतल से करीब 12 हजार फीट से अधिक ऊंचाई पर बसे इस आबाद इलाके को हिमालयी रेगिस्तान कहा जाता था क्योंकि यहां पेड़ पौधे बेहद कम मात्रा में थे। लेकिन, जाड़ गंगा किनारे रहने के कारण जाड़ समुदाय के नाम से जाने जाने वाले जादुंग और नेलांग के ग्रामीण भारत चीन युद्ध से पहले इस सीमांत इलाके के पहरेदार होने के साथ ही भारत तिब्बत व्यापार के समृद्ध दिनों में इस व्यापार की महत्वपूर्ण कड़ी भी थे। जाड़ समुदाय के लोग भारत की तरफ से व्यापार करने तिब्बत पहुंचते है और वहां मंडियों से नमक भारत में पहुंचाते। नेलांग जादुंग से तिब्बत का यह मार्ग नमक के व्यापार के चलते साल्ट रूट भी कहलाता था। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था लेकिन पचास के दशक के बाद तिब्बत पर चीन अतिक्रमण करता रहा तो व्यापार पर भी असर पड़ने लगा। 1962 में चीन ने भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। सुरक्षा की दृष्टि से चीन सीमा से सटे आबाद इलाकों को खाली किया गया। जादुंग के ग्रामीणों को भी विस्थापित कर करीब चालीस किमी दूर हर्षिल के समीप बगोरी नाम के स्थान पर बसा दिया गया और शीतकालीन प्रवास के लिए जिला मुख्यालय से पंद्रह किमी दूर डुंडा कस्बे में जमीने उपलब्ध करवा दी गई। अपनी जमीन से जुदा हुए जादुंग के ग्रामीणों को छह दशक बीत चुके हैं। साल 2012-13 तक नेलांग जादुंग इलाके में आम नागरिकों को प्रवेश की अनुमति नहीं थी। सिर्फ सेना, सड़क निर्माण में जुटे मजदूरों और उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ग्रीष्मकाल के दौरान चरान चुगान करने जाने वाले गड़रियों को नेलांग जादुंग क्षेत्र में जाने की अनुमति मिलती। लेकिन इसके बाद आम नागरिकों के लिए नेलांग तक ईनर लाइन परमिट जारी कर प्रवेश की अनुमति जारी की गई लेकिन यह अनुमति एक दिन के लिए ही अनुमन्य है। यहां आबाद क्षेत्र न होने के चलते पर्यटकांे को यहां ठहरने की अनुमति नहीं है। हालांकि, साल 2017 में तत्कालीन गंगोत्री विधायक गोपाल सिंह रावत के साथ स्थानीय निवासियों ने मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत से जादुंग गांव को फिर से आबाद करने की मांग की थी। इसके बाद मुख्यमंत्री ने भी जादुंग और नेलांग गांवों को फिर से आबाद कर पर्यटकों को यहां ठहरने की अनुमति की घोषणा की। इसके बाद लगातार हर बार मुख्यमंत्री, पर्यटन मंत्री पिछले आठ सालों में दर्जन भर बाद जादुंग और नेलांग में फिर से स्थानीय लोगों को वापिस बसाने की घोषणा कर चुकी है। लेकिन, इन सालों में वापसी की आस लगाए विस्थापित परिवारों का इंतजार हर साल लंबा होता जा रहा है। जाड़ भोटिया समिति से जुड़े व स्थानीय निवासी भगवान सिंह राणा कहते हैं कि अखबारों, मीडिया के जरिए पता चल रहा है सरकार जादुंग गांव को फिर से आबाद कर वहां होमस्टे विकसित करना चाहती है लेकिन वहां के हम मूल लोगों से अब तक संवाद स्थापित तक नहीं किया गया है। वह बताते हैं कि हम पूर्व में भी सरकार से कई बार अनुरोध कर चुके हैं कि हमारी समस्याओं का निस्तारण कर दे और हमें वापिस बसने दिया जाए लेकिन अब सुनने में आ रहा है कि सरकार वहां बसावट को फिर से बहाल कर रही है लेकिन जिन्हें बसाना है उनसे अब तक बात भी नहीं है।
भगवान सिंह राणा कहते हैं कि जब हमें विस्थापित कर जादुंग गांव की हमारी जमीनों का सरकार, सेना से अधिग्रहण किया तो उसका मुआवजा हमें छह दशक बाद भी नहीं मिल सका है, जबकि नियमों के अनुसार हमारी अधिग्रहित जमीनों का मुआवजा हमें दिया जाना चाहिए था लेकिन यह मांग पिछले छह दशकों से लंबित पड़ी हुई है। वह बताते हैं कि पर्यटन विभाग के दल ने जादुंग में कई बार सर्वे किया लेकिन जादुंग से कुछ किमी पहले बगोरी में विस्थापित जादुंग के ग्रामीणों से मिलने और उनसे योजना के बारे में बाते साझा करने तक की जेहमत नहीं उठाई।
बगोरी में विस्थापित जादुंग गांव के ग्रामीणों की भी यही पीड़ा है। बगोरी वर्तमान में एक पर्यटक ग्राम है जहां साल भर पर्यटकों का तांता लगा रहता है। जबकि, सरकार की योजना है कि जादुंग में पुराने गांव में कुछ होमस्टे बनाकर ग्रामीणों को वापिस बसाया जाए जिससे पर्यटक वहां रात को भी रूक सके। लेकिन, सरकार की इस महत्वकांक्षी योजना से ग्रामीण ही गायब है।