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जब पांच लाख ‘आबादी’ के हिस्से दो साल बाद आई ‘आजादी’

– अंग्रेजों की दासता से मुक्ति के दो साल बाद भी टिहरी रियासत में रही राजशाही, 1949 में ही मिल सकी आजादी
– टिहरी रियासत की स्थापना के साथ ही आंदोलनों का दौर भी हुआ था शुरू, आजादी के लिए देनी पड़ी थी लोगों को शहादत
PEN POINT, DEHRADUN : 15 अगस्त 2023, पूरा देश आजादी की 76वीं वर्षगांठ मनाने की तैयारियों में जुटा है, लेकिन उत्तराखंड के टिहरी और उत्तरकाशी जनपद की पांच लाख की आबादी के हिस्से आजादी की सुबह देश की आजादी के ठीक दो साल बाद आई थी। यानि, जब पूरा देश आजादी के 76वें जश्न की तैयारियों में डूबा है कह सकते हैं कि उत्तरकाशी जनपद और टिहरी जनपद आजादी के 74वीं वर्षगांठ मना रहा है। 1 अगस्त 1949 का वह ऐतिहासिक दिन था जब टिहरी के तत्कालीन राजा मानवेंद्र शाह ने गोविंद बल्लभ पंत की मौजूदगी में भारत के साथ टिहरी रियासत के विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए। एक ओर जहां पूरा देश अंग्रेजों से मुक्ति के लिए चले लंबे सघर्ष के बाद 15 अगस्त 1947 को एक नए युग में प्रवेश कर चुका था वहीं टिहरी रियासत के बाशिंदों को इस आजादी की सुबह के लिए दो साल का इंतजार करना पड़ा। 'Pen Point
हाल ही में बीते मंगलवार को टिहरी रियासत के भारत संघ के साथ विलय की 74वीं वर्षगांठ मनाई गई। हालांकि, इसमंे न कोई शोर शराबा हुआ न कोई कार्यक्रम आयोजित किए गए। हर बार टिहरी रियासत की भारत संघ के साथ विलय के इस ऐतिहासिक अवसर को यूं ही खामोशी से गुजर दिए जाने की परंपरा स्थापित हो चुकी है। लेकिन, टिहरी रियासत से भारत संघ में विलय की यात्रा यूं ही आसान नहीं रही। श्रीदेव सुमन समेत कई वीर सेनानियों को टिहरी राजशाही की क्रूरता व दमन से जनता को मुक्त करवाने के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर करने पड़े। विद्वान आज भी मानते हैं कि टिहरी भारत की अकेली ऐसी रियासत थी, जहां जनता ने देश की आजादी के बाद निर्णायक जनक्रांति कर राजशाही से खुद की आजादी गढ़ी, खुद की विधानसभा बनाई, सरकार बनाई और फिर आजाद भारत में विलय का लक्ष्य हासिल किया। अन्यथा अंग्रेजों ने तो 500 से ज्यादा देसी रियासतों के रजवाड़ों को अपनी इच्छा से भारत या पाकिस्तान में मिलने अथवा स्वतंत्र बने रहने की छूट दे दी थी। तब सरदार वल्लभ भाई पटेल को कुछ रियासतों को विलय के लिए कार्रवाई तक का डर दिखाना पड़ा और कुछ पर कार्रवाई भी करनी पड़ी थी।
गोरखों से कब्जे से गढ़वाल की रियासत को मुक्त करवाने के बाद अंग्रेजों ने गढ़वाल राजा का शासन आधा कब्जा कर उसे टिहरी क्षेत्र तक सीमित कर दिया। जुलाई 1815 में टिहरी से शुरू हुआ राजा सुदर्शनशाह द्वारा स्थापित टिहरी रियासत का सफर 1949 राजा मानवेंद्र शाह तक चला। 25 अक्टूबर 1946 को मानवेंद्र शाह का टिहरी के राजा के रूप में राज्याभिषेक हुआ। 'Pen Pointदूर दराज के राजाओं, अतिथियों को इस राज्याभिषेक को भव्य बनाने के लिए टिहरी की गढ़वाली भाषा में निमंत्रण भेजा गया। 25 अक्टूबर 1946 को टिहरी के राजा मानवेंद्र शाह के राजगद्दी पर बैठने के कुछ महीनों बाद ही अंग्रेजों की दासता से भी देश को आजादी मिल गई। 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ तो अंग्रेजों ने देश की रियासतों को भारत या पाकिस्तान में शामिल होने का विकल्प दिया लेकिन टिहरी रियासत स्वतंत्र रियासत बने रहने का ख्वाब पाले हुए थी। लेकिन, टिहरी रियासत में आजादी का संघर्ष भी देश में चल रहे आजादी के संघर्ष जितना ही पुराना था। लिहाजा आजादी के छह महीनों के भीतर ही टिहरी की आंदोलनरत जनता ने 11 जनवरी, 1948 को टिहरी रियासत में खुद को देवता समान दर्जा दिए हुए राजशाही जिसे सैकड़ों सालों से ‘बोलांदा बदरी यानि बोलने वाला बदरीनाथ‘ कहा जाता उस सत्ता पर बड़ी चोट कर दी। तत्कालीन आजाद भारत की सरकार की निगरानी में 11 जनवरी 1948 को टिहरी की अंतरिम सरकार गठित हुई और टिहरी विधानसभा का गठन किया गया व चुनाव भी हुए। स्वतंत्र भारत में मताधिकार के आधार पर चुनी गई यह पहली विधानसभा थी। खास बात यह कि चुनाव में महाराजा टिहरी के समर्थकों ने भी जनहितैषिणी सभा के नाम से हिस्सा लिया। आखिरकार भारत सरकार की एक अगस्त, 1949 की आधिकारिक घोषणा के अनुसार, टिहरी का उत्तर प्रदेश में विलय हुआ ।
टिहरी रियासत का भारत संघ में विलय को भव्य और यादगार बनाने के लिए उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने नरेंद्रनगर में आयोजित इस विलय समारोह में बतौर मुख्य अतिथि हिस्सा लिया।

क्रांतिकारियों ने दी शहादत
'Pen Pointयूं तो टिहरी रियासत में राजशाही के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का इतिहास भी टिहरी रियासत की स्थापना जितना ही पुराना है। लेकिन, राजशाही का ज्यादातर विरोध राजशाही के कर्मचारियों की ओर से जनता पर किए जा रहे अत्याचारों के खिलाफ ही केंद्रित रहा था। दंडक आंदोलन के जरिए जनता राजा की ओर से थोपे गए करों का विरोध करती लेकिन राजा भी निर्दयतापूर्ण तरीके से इन आंदोलनों को दबाता। आखिरकार, राजशाही की बढ़ती क्रूरता से आजादी के लिए भी जनता में कुलबुलाहट मच गई। महात्मा गांधी से प्रेरणा पाकर टिहरी रियासत में राजशाही के खिलाफ अहिंसक सत्याग्रह शुरू हो गया। टिहरी रियासत में अहिंसक सत्याग्रह को सशक्त बनाने में क्रांतिकारी श्रीदेव सुमन की अहम भूमिका रही। उन्होंने 23 जनवरी, 1939 को रियासत से बाहर देहरादून में टिहरी राज्य प्रजामंडल का गठन किया। फिर अप्रैल 1939 में चुनाव कराकर प्रजामंडल का रियासत में पंजीकरण कराने और उत्तरदायी शासन की मांग करने लगे। जिसके लिए उन्हें कई बार कैद और राज्य से निष्कासित भी किया जाता रहा। अंतिम बार टिहरी में कारावास झेलते हुए मांगें मनवाने को उन्होंने मई, 1944 से ऐतिहासिक आमरण अनशन शुरू किया और 25 जुलाई, 1944 को दोपहर इसी अवस्था में अपना सर्वस्व बलिदान दिया। वहीं, देश की आजादी के बाद टिहरी रियासत को भी आजाद घोषित करने की मांग जोर पकड़ने लगी। 15 दिसंबर, 1947 को सकलाना में आजाद पंचायत की घोषणा कर दी गई थी। सकलाना की आजादी के बाद आजाद पंचायत की घोषणा के बाद बडियारगढ़ में भी आजाद पंचायत की घोषणा हो चुकी थी। वहां टिहरी पर कब्जा करने के लिए प्रजामंडल ने सत्याग्रहियों की भर्ती शुरू की थी। आजाद कीर्तिनगर में डांगचौरा से दादा दौलतराम के नेतृत्व में कोर्ट परिसर में पहुंचे किसान व ग्रामीण आंदोलनकारी जत्थों पर चलाई गई महाराजा के अधिकारियों की गोली से नागेंद्र दत्त सकलानी व मोलू भरदारी शहीद हो गए।

राजपरिवार को ही सौंपते रहे हैं प्रतिनिधित्व
यूं तो टिहरी रियासत से राजशाही को खत्म कर इसे आजाद भारत का हिस्सा बनाने के लिए लंबा संघर्ष चला, लोगांे ने शहादत दी लेकिन आजादी के बाद लोगों ने मतदाता के रूप में हमेशा टिहरी राजशाही परिवार को ही वरियता दी। पहले संसदीय चुनाव से लेकर बीते 2019 के संसदीय चुनाव तक 12 बाद टिहरी राजपरिवार से जुड़े लोगों को संसद भेजा। टिहरी रियासत के आखिरी राजा रहे मानबेंद्र शाह को सबसे ज्यादा आठ बार लोगों ने संसद भेजा। मानबेंद्र शाह 2004 में अपनी मृत्यु तक सांसद रहे। वह पहले तीन चुनाव कांग्रेस पार्टी के टिकट पर जीते उसके बाद अगले पांच चुनाव उन्होंने भाजपा के टिकट पर जीते। उसके बाद उनकी बहू राज्यलक्ष्मी शाह तीसरी बार टिहरी संसदीय सीट से सांसद हैं। 2012 उपचुनाव में भाजपा के टिकट पर पहली बार सांसद बनने के बाद राज्यलक्ष्मी शाह लगातार तीन चुनाव जीत चुकी हैं।

 

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