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जब महात्मा गांधी के ‘देसी अंग्रेज’ के सामने ‘सरदार’ चार बार फीका पड़ा

– सरदार वल्लभ भाई पटेल हमेशा से ही कांग्रेस में नंबर वन रहे लेकिन महात्मा गांधी की पसंद हमेशा जवाहर ही रहे
PEN POINT, DEHRADUN : 2014 के बाद केंद्र के सत्तारूढ़ दल के साथ ही दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग लगातार देश की आजादी के दौरान महात्मा गांधी पर सरदार पटेल की उपेक्षा कर जवाहर लाल नेहरू को प्रधानमंत्री बनाने का आरोप लगाते रहे हैं। वे दावा करते हैं कि देश के पहले प्रधानमंत्री के तौर पर सरदार पटेल को चुना जाना चाहिए थे। खैर, बातों की बात जो भी है लेकिन ऐसा नहीं है कि सरदार पटेल ने भी कभी खुद को प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करने की कोशिश न की हो। आजादी से पहले का दौर था और कांग्रेस को आंतरिक सरकार बनाने का मौका मिला, यह वह दौर था जब कांग्रेस का अध्यक्ष ही प्रधानमंत्री बनाया जाता। ऐसे में सरदार पटेल ने पांच बार दावेदारी की लेकिन महात्मा गांधी ने ‘देशी अंग्रेज’ पं. नेहरू को वरीयता दी और यही कारण रहा कि देश के पहले प्रधानमंत्री बनने की उपलब्धि भी नेहरू के हिस्से आई।

महात्मा गांधी को लगता था कि जवाहरलाल नेहरू बतौर कांग्रेस अध्यक्ष अंग्रेजी सरकार से बेहतर तरीके से समझौता वार्ता कर सकते थे। महात्मा गांधी का मानना था कि कांग्रेस के उस दौरान जवाहरलाल नेहरू अकेले देशी अंग्रेज थे। महात्मा गांधी को ऐसा लगता था कि जवाहरलाल अंतर्राष्ट्रीय मामलों में भारत का प्रतिनिधित्व सरदार पटेल से बेहतर कर पाएंगे। नेहरू को वरियता देने पर संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद ने यह कहकर गांधी की आलोचना की थी कि चमक धमक वाले नेहरू के लिए महात्मा गांधी ने अपने विश्वासी साथी की बलि चढ़ा दी। नेहरू 1946 में कांग्रेस पार्टी में मौलाना अबुल कलाम आजाद की जगह अध्यक्ष बन रहे थे। मौलाना आजाद इस पद पर 1940 से काबिज थे। मौलाना आजाद ने जब अध्यक्ष का पद छोड़ा और इस पद पर नेहरू काबिज हुए तो इस बात से मौलाना आजाद भी खुश नहीं थे। उन्होंने बाद में अपनी किताब में भी जिक्र किया था कि अध्यक्ष पद छोड़ना मेरी राजनीतिक जिंदगी का सबसे गलत फैसला था। उनकी माने तो अपने किसी भी फैसले पर इतना पछतावा नहीं किया जितना उस मुश्किल समय में अध्यक्ष पद को छोड़ने पर हुआ थ। सरदार पटेल के अध्यक्ष नहीं बनने पर उन्हें पछतावा हुआ, अपनी किताब में इस बारे में भी उन्होंने लिखा ‘मेरी दूसरी गलती ये थी कि जब मैंने अध्यक्ष पद छोड़ने का फैसला किया तब मैंने सरदार पटेल का समर्थन नहीं किया। बहुत सारे मुद्दों पर हम दोनों की अलग राय थी लेकिन मुझे यकीन है कि सरदार पटेल वो गलतियां नहीं करते जो जवाहरलाल नेहरू ने की। यह लंबे समय से ही बहस का मुद्दा रहा है कि अगर सरदार पटेल आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री होते तो क्या होता।

जिस समय आज़ादी मिली, पटेल 71 साल के थे जबकि नेहरू सिर्फ 56 साल के। उम्र के इस फर्क का असर भी सरदार पटेल की दावेदारी पर पड़ा। आजादी के वक्त देश नाजुक दौर से गुजर रहा था, अंग्रेज एक लुटा पिटा और विभाजित मुल्क भारतीयों के हाथों में सौंप रहे थे ऐसे में गांधी जी को लगने लगा था कि देश का नेतृत्व सरदार पटेल की बजाए कम उम्र के नेहरू को दिया जाना चाहिए।

वहीं, महात्मा गांधी जानते थे कि अंग्रेजी तौर तरीकों से रहने वाले जवाहर सरकार में कभी नंबर दो की पोजिशन नहीं लेंगे। यह बात उन्होंने अपने कई प्रेस वार्ताओं में भी बताई थी कि नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष चुनने और फिर प्रधानमंत्री बनाने के लिए कई वजहें हो सकती है लेकिन यह प्रमुख वजह है कि नेहरू कभी सरकार में दूसरा स्थान स्वीकार नहीं करेंगे। महात्मा गांधी का मानना था कि नेहरू की अंतरराष्ट्रीय मामलों में भी अच्छी पकड़ है।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ 1946 में ही सरदार पटेल को महात्मा गांधी की वजह से पीछे हटना पड़ा। इससे पहले वह तीन बार महात्मा गांधी के कारण कांग्रेस के अध्यक्ष पद अपना नामांकन वापिस ले चुके थे। साल 1929, 1936, 1939 में भी सरदार पटेल ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए नामांकन किया था। वह देश में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के बीच काफी मशहूर थे और उनके पास नेहरू से ज्यादा समर्थन था लेकिन महात्मा गांधी ने हर बार सरदार पटेल को उनका नामांकन वापिस लेने में मजबूर किया। हालांकि, विद्वान इसके पीछे कारण बताते हैं कि महात्मा गांधी नहीं चाहते थे कि कांग्रेस में एक ही प्रांत का ज्यादा असर हो जिसका बुरा प्रभाव कांग्रेस की विविधता वाली विरासत पर पड़े। लेकिन जब 1946 में मौलाना आजाद ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया और नया अध्यक्ष चुनने की बारी आई तो इस बार सरदार पटेल अध्यक्ष पद के लिए डटे रहे। नेहरू के मुकाबले सरदार पटेल के समर्थन में ज्यादा कार्यकर्ता खड़े थे। लेकिन, यहां यह मौका था कि जो भी कांग्रेस का अध्यक्ष बनेगा उसे ही आतंरिक सरकार का प्रधानमंत्री बनना था। तीन बार सरदार पटेल को कांग्रेस अध्यक्ष पद से नामांकन वापिस करवाने में सफल रहे महात्मा गांधी के लिए इस बार यह आसान नहीं था। क्योंकि, आजादी की बेला नजदीक ही थी और दूसरे विश्व युद्ध के बाद लुटे पिटे ब्रिटेन ने भी साफ कर दिया था कि वह किसी भी वक्त भारतीयों को सत्ता हस्तांतरण कर वापिस लौट सकते हैं। लिहाजा, यह मौका भारतीय राजनीति, भारत के भविष्य को लेकर बेहद नाजुक था। पर पर्याप्त समर्थन होने के बावजूद महात्मा गांधी ने नए भारत की कमान सरदार पटेल से कम उम्र के जवाहर नेहरू को देने का फैसला किया। कांग्रेस में तो किसी में हिम्मत नहीं थी कि वह बापू से पूछे कि सरदार पटेल जैसे योग्य नेता को छोड़कर आपने नेहरू को क्यों चुना?

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