जब गंगोत्री के लिये बना था पहाड़ का पहला झूला पुल, यात्रियों को देना पड़ा टोल
-साल 1844 में जाड़गंगा में आए आए ग्लेशियर ने पारंपरिक रास्ते को कर दिया था ध्वस्त, आवाजाही के सभी रास्ते नदी में बह जाने के बाद गंगोत्री के कपाट खुलने पर भी मंडराने लगा था खतरा
-चार महीनों की कड़ी मेहनत कर विल्सन ने तैयार किया पहाड़ का पहला झूला पुल, तब जाकर खुल सके गंगोत्री धाम के तय समय पर कपाट, हर यात्री को चुकाने पड़े 50 आना का टोल
Pen Point ( Pankaj Kushwal) : साल था 1844 और मार्च का महीना। गंगोत्री धाम समेत पूरा उपला टकनौर बर्फ की चादर ओढ़े था। मां गंगा की भोग मूर्ति अपने शीतकालीन प्रवास मुखबा में थी। जिसे कुछ ही हफ्तों में अक्षय तृतीया के मौके पर पुजारी सेमवाल परिवारों और उपला टकनौर के ग्रामीणों के साथ गंगोत्री जाना था। मुखबा गांव इसकी तैयारियों में जुटा था। लेकिन इसी महीने नेलांग से जाड़गंगा में बहकर आए एक ग्लेशियर ने गंगोत्री के रास्ते को तहस नहस कर दिया। हालात ऐसे बने कि मां गंगा की भोग मूर्ति को अक्षय तृतीया के दिन गंगोत्री पहुंचाना असंभव सा हो गया था। ऐसे में ग्रीष्मकाल के लिये गंगोत्री धाम के कपाट खोलना भी मुमकिन नहीं था। अब तक गंगोत्री तक पहुंचने के लिए भैंरोंघाटी से नीचे उतरकर जाड़गंगा पर बनी एक अस्थाई पुलिया के जरिए ही आवाजाही होती थी। लेकिन नेलांग से आए ग्लेशियर ने इस पुलिया को बहाने के साथ ही एक गहरी खाई बना दी। जिस पर अस्थाई पुलिया बनाना भी संभव नहीं था। इस विकट इलाके में आवाजाही के लिए कोई दूसरा इंतजाम भी नहीं हो सकता था। ऐसे में मुखबा के सेमवाल पुजारियों के पास फ्रेडरिक विल्सन से मदद लेने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं था।
रॉबर्ट हचिसन ने फ्रेडरिक विल्सन की जीवनी द राजा ऑफ हर्षिल में इस रोचक किस्से को विस्तार से बताया है। जिसके अनुसार 27 साल का हो चुका फ्रेडरिक विल्सन भागीरथी के साथ देवदार समेत कई कीमती लकड़ियों को बहाकर हरिद्वार पहुंचाता था। इस व्यापार से उसने अकूत धन कमाया। भागीरथी घाटी की आबोहवा भी यूरोपीय सी थी लिहाजा उसे हर्षिल भा गया था और वह यहां रहकर बाकी जिंदगी आराम से गुजारना चाहता था। यूं तो अंग्रेज व्यापारी का भागीरथी घाटी में आकर रहना स्थानीय लोगों को भा नहीं रहा था और विल्सन और उसके काम स्थानीय लोगों के आंखों में खूब खटक रहा था। मुखबा में गंगा के पुजारी पंडितों के साथ ही धराली, झाला, सुक्की समेत अन्य गांवों के राजपूत परिवार अंग्रजों को दलितों से भी ज्यादा अछूत मानते थे। उन दिनों दलितों के साथ तो भीषण जातिगत भेदभाव किया ही जाता था लेकिन अंग्रेजों को गौ मांस भक्षक मानकर उन्हें दलितों से भी ज्यादा अछूत माना जाता। लिहाजा, स्थानीय लोग अपने हितों को छोड़ विल्सन से ज्यादा मेलजोल रखने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन, 1844 मार्च के महीने में नेलांग की ओर से बहकर आए ग्लेशियर के बड़े हिस्से से ध्वस्त गंगोत्री का यात्रा मार्ग अब जून महीने में प्रस्तावित होने वाली गंगोत्री यात्रा की राह रोके हुए था। स्थानीय लोगों ने तमाम संभावनाओं पर विचार किया लेकिन ऐसा कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था कि गंगोत्री मंदिर तक जाने के लिए वैकल्पिक राह बनाई जा सकी। ऐसे में अब बस आखिरी विकल्प विल्सन ही था। धराली के राजपूत परिवारों और मुखबा के सेमवाल परिवारों के एक प्रतिनिधि मंडल ने अनमने ढंग से विल्सन से मुलाकात की। अपनी समस्या से उसे अवगत कराया और अनुरोध किया कि वह जाड़गंगा को पार करने के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था करे।
मौके का मुआयना कर विल्सन ने धराली और मुखबा के ग्रामीणों के सामने एक प्रस्ताव रखा। जिसमें उसने कहा कि जिस तरह से जाड़गंगा में ग्लेशियर ने तबाही मचाई है, ऐसे में लकड़ी का कच्चा पुल या कोई अन्य रास्ता बनाने का कोई विकल्प नहीं बचा है। लेकिन लोहे की तारों को जोड़कर एक पुल बनाया जा सकता है। यह पहला मौका था जब विल्सन ने एक झूला पुलिया की परिकल्पना और डिजायन लोगों के सामने पेश किया था। स्थानीय लोगों का शंका थी कि इस तरह से झूलता हुआ पुल आवाजाही के लिहाज से सुरक्षित रहेगा या नहीं। तब तक इस इलाके में लोहे के पुल या तारों का इस्तेमाल कर कोई पुल नहीं बना था। गोरखा हमले को कुछ ही वक्त बीता था। गोरखों के हमले ने पूरे इलाके को तहस नहस कर दिया था। विल्सन ने बताया कि इस पूरे निर्माण में लागत बहुत आएगी लेकिन यह पुल लंबे समय तक काम करेगा। इस पर ग्रामीणों ने किसी भी तरह के खर्चे का वहन करने पर असमर्थता जताई, मुखबा के सेमवाल परिवारों ने भी बताया कि गंगा का कोष बिल्कुल खाली है ऐसे में मंदिर की ओर से भी इस परियोजना में कोई भी आर्थिक सहयोग दिया जाना संभव नहीं है। । लिहाजा, विल्सन ने एक प्रस्ताव दिया कि वह पुलिया बनाने का खर्च खुद वहन करेगा लेकिन गंगोत्री जाने वाले हर यात्री से टोल वसूलेगा जिससे पुलिया की लागत निकल सके। मुसीबत में फंसे मुखबा और धराली के ग्रामीणों के लिए यह राहत भरा प्रस्ताव था तो सबने हामी भर दी।
लेकिन, इस अभियान को अगले तीन महीने में पूरा करना था, लिहाजा विल्सन हर्षिल से टिहरी पहुंचा और वहां से जरूरी निर्माण सामग्री जुटाने का काम स्थानीय व्यापारियों को दे दिया। प्रस्तावित पुलिया के लिए एक हजार फीट भांग के रेशों की रस्सियां, कुछ हजार फीट आधे इंच की रस्सियां, एक इंच मोटे लोहे के केबल के चार बड़े गोले समेत अन्य सामान। इसके लिए विल्सन को पांच हजार रूपए का भुगतान करना पड़ा। यह सामान प्राथमिकता के आधार पर भैंरो घाटी पहुंचाया गया।
अब अगली चुनौती थी छह सौ फीट गहरी खाई के उपर यह पुल बनाना। लेकिन, कुछ जांबाज मजदूरों की मदद से हड्डियों को जमा देने वाली जाड़गंगा को पार कर भैरोंघाटी के दूसरी ओर कुछ मजदूर भेजे गए। तेज गति से चले इस काम में अगले तीन महीनों में एक काम चलाऊ लोहे का झूला पुल भैरोंघाटी के लंका में छ सौ फीट गहरी जाड़गंगा के ऊपर बनाया दिया गया। 15 जून को अक्षय तृतीया के मौके पर गंगा की भोग मूर्ति के साथ मुखबा समेत अन्य गांवों के श्रद्धालु भैंरोघाटी में लंका के पास पहुंचे। यह पहला मौका था जब स्थानीय लोग झूला पुल के ऊपर से गुजरने वाले थे। तमाम शंकाए थी, लाजमी भी थी नीचे छह सौ फीट गहरी खाई और ऊपर लोहे की केबल और रस्सियों के सहारे झूल रहा पुलनुमा ढांचा। खैर, डर के साथ ही सही लोगों ने पुल को पार करने का जोखिम लिया। पुलिया की वजह से अक्षय तृतीया के मौके पर मां गंगा की भोग मूर्ति के साथ श्रद्धालु गंगोत्री धाम पहुंच चुके थे। उसके बाद तय समय पर विधि विधान के साथ गंगोत्री धाम मंदिर के कपाट भी खोले गए।
इस पुलिया के निर्माण पर आई लागत को वसूलने के लिए विल्सन ने भैंरोघाटी में गंगोत्री की तरफ टोल बूथ बनाया था। पुलिया को पार करने वाले हर यात्री को 50 आना टोल का भुगतान करना होता था।
बताया जाता है कि जब गंगा की भोग मूर्ति के साथ श्रद्धालु भैरोंघाटी स्थित इस नवनिर्मित पुलिया को पार करने वाले थे तो जत्थे में विल्सन की पत्नी गुलाबी भी थी। जो सात महीने के गर्भ के साथ यहां पहुंची थी। पुलिया पार करते ही गुलाबी को प्रसव पीड़ा शुरू होने लगी, जत्थे के साथ आई दाई की मदद से गुलाबी का प्रसव मां गंगा के जत्थे के साथ ही हुआ। इस मौके पर विल्सन को पहले पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम नेत्थेनियल रखा गया, जिसे स्थानीय बोली के प्रभाव में गुलाबी ने नत्थु नाम दिया।