ग़ालिब ने क्यों कहा था- मसूरी की हवा ही नहीं पानी में भी नशा है !
Pen Point, Dehradun : आगरा में आज ही की तारीख़़ 27 दिसंबर 1796 में पैदा हुए थे मिर्जा असदुल्लाह बेग ख़ान। जिनका तख़ल्लुस “ग़ालिब” हर हिंदी उर्दू बोलने वाले की जिंदगी का जरूरी हिस्सा है। भले ही उर्दू अदब की इस अज़ीम शख्सियत का ज्यादातर वक्त मेरठ, दिल्ली और कलकत्ता में गुजरा। लेकिन मसूरी से उनका सीधा ना सही पर खास वास्ता रहा है। कम ही लोगों को मालूम है कि एक समय मसूरी बेहतरीन वाइन के लिये मशहूर था। ग़ालिब इसके बड़े मुरीद थे। यहां हेनरी बोहले और जॉन मैकीनॉन की फैक्ट्रियां बेहतरीन विहस्की के लिये जानी जाती थी।
कहा जाता है कि जब भी मिर्जा ग़ालिब की जेब भरी होती वो मेरठ छावनी का रुख करते। दिल्ली के बल्ली मारां इलाके से टट्टू पर सवार होकर छावनी पहुंचते और मसूरी व्हिस्की का पूरा कोटा भर लाते। उन्हें यह व्हिस्की बेहद पसंद थी। इसकी शान में उन्होंने कहा था- मसूरी की हवा ही नहीं पानी में भी नशा है।
दरअसल, मसूरी में 1872 में ही अंग्रेजों ने शराब फैक्ट्री शुरू कर दी थी। मसूरी के रहने वाले पत्रकार अजय रमोला के मुताबिक सर हेनरी बोहले ने हाथीपांव रोड पर द ओल्ड ब्रुअरी शुरू की थी। पहले इसके पास सिर्फ बियर बनाने का लाइसेंस था। लेकिन बाद में वह व्हिस्की भी बनाने लगे। जिसे अंग्रेज फौज की छावनियों में भी भेजा जाता था। तब मसूरी की स्थापना करने वाले कैप्टन फ्रेडरिक यंग ने इस पर आपत्ति जताई। बोहले ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि उनकी शराब की भट्टी देहरादून-मसूरी में नहीं, बल्कि टिहरी गढ़वाल में है। विवादों के कारण यह फैक्ट्री कुल छह साल ही चल सकी।
गौरतलब है कि ग़ालिब शराब के बेहद तलबगार थे। अपनी शायरी में उन्होंने शराब को लेकर काफी कुछ कहा है। यहां तक कि उन्होंने मस्जिद में शराब पीने की वजह बता दी- ग़ालिब शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर, या वो जगह बता जहां ख़ुदा नहीं।
ग़ालिब जहां शेरो शायरी के शहंशाह थे वहीं शराब और जुए की लत ने उन्हें बरबाद कर दिया था। शायरी का बेजोड़ हुनर होने के बावजूद अपनी बुरी लत के चलते वो तंगहाल हो गए। माली हालत बहुत खराब होने पर भी उन्होंने कर्ज मांगकर शराब पी और जुआ खेला। इसके बावजूद अपनी फ़ाकाकशी के लिए उन्होंने इश्क को जिम्मेदार ठहराया- इश्क ने निकम्मा कर दिया ग़ालिब, वरना आदमी हम काम के थे।
खुशी हो या गम, हाल ए दिल का इजहार करना हो या फिर कोई और मौका हो ग़ालिब के शेर मुहावरों की तरह काम आते हैं। लेकिन वो ग़ालिब खुद बहुत बदनाम था। हर तरह के जज़्बात को बेहतरीन ढंग से शब्दों में पिरोने वाले इस फनकार ताजिंदगी अपनी बदनामी का मजा कुछ इस तरह लेता रहा-
होगा कोई ऐसा भी जो ग़ालिब को न जाने, शायर तो वो अच्छा है पर बदनाम बहुत है…