केदारनाथ में मदद को सबसे पहले पहुंचे योगेंद्र ने बताया ‘वो मंजर कैसा था’
Pen Point, Dehradun : केदारनाथ त्रासदी को दस साल पूरे हो गए हैं। 16 जून 2013 की उस स्याह रात की यादें आज भी सिहरन पैदा करती हैं। मंदाकिनी की लपलपाती लहरें सब कुछ मटियामेट करने पर आमादा थी। कितने लोग बेघर हुए, कितनी गोदें सूनी हुई और कितने चिराग बुझे सटीक अंदाजा आज भी नहीं लगाया जा सकता है। लेकिन वे लोग किस्मत वाले रहे, जिनकी मदद के लए कुदरत के कहर के बीच कुछ लोग आसमान से फरिश्ता बनकर उतरे। इन गुमनाम नायकों में से एक योगेंद्र राणा भी शामिल थे। जिनकी आंखों ने उस तबाही के उस मंजर को सबसे पहले देखा। नेहरू पर्वतारोहण संस्थान से कोर्स कर चुके योगेंद्र आज भी फाटा हैलीपैड पर मौजूद हैं और उस वक्त की यादें उनके जेहन में एकदम ताजा हैं।
योगेंद्र बताते हैं कि 16 जून की शाम वो फाटा हैलीपैड पर ही थे। उस दौरान प्रभातम ऐविशन में उनकी जॉब थी। रात को बाढ़ का पहला झटका आया तो इसकी सूचना केदारनाथ हैलीपैड से उनके स्टाफ ने मोबाइल पर दी थी। जिस पर उनका पूरा स्टाफ सतर्क हो गया। फिर 17 जून की सुबह मंदाकिनी नदी का जो कहर टूटा उसे देख जिंदा बचे लोगों की जान हलक तक आ गई।
योगेंद्र कहते हैं- ‘लगातार बारिश हो रही थी और बाढ़ से उपजा शोर थम नहीं रहा था, हालात ऐसे थे कि मौसम खुलने का इंतजार करने के अलावा कोई चारा नहीं था। 17 जून की शाम को मौसम हल्का सा खुला तो पायलट कैप्टेन भूपेंद्र और मैं हैलीकॉप्टर पर सवार होकर केदारनाथ की ओर चल दिए’।
‘जैसे ही उड़ान भरी तो सोनप्रयाग और सीतापुर के आधे हिस्से गायब थे। गौरीकुंड की पार्किंग और उसमें खड़ी गाडियों का नामो निशान नहीं दिख रहा था। किनारे पर होटल और दुकानों की जगह मलबा ही मलबा पसर गया था। इस उड़ान में हम जंगलचट़टी तक ही पहुंच सके उसके आगे मौसम बुरी तरह पैक था’।
तबाही के उस नजारे को सबसे पहले देखने वाले योगेंद्र राणा और कैप्टन भूपेंद्र ही थे। जंगलचट़टी तक की उस उड़ान में देखा कि हर जगह लाशें बिखरी हुई हैं। केदारनाथ पैदल रास्ते पर इंसानी शरीर के हिस्से छिटके हुए हिस्से इस मंजर और डरावना बना रहे थे। जिंदा बचे लोग बदहवास होकर पहाड़ी पर उपर की ओर चले जा रहे हैं।
जंगलचट्टी से वापस होते ही उन्होंने इसकी सूचना तत्कालीन पर्यटन सचिव राकेश शर्मा को दी। शर्मा और प्रशासन तब तक इस आपदा को लेकर नुकसान का कयास ही लगा रहे थे। बकौल योगेंद्र- ‘उन्हें या शासन प्रशासन को तब इस कदर तबाही का अंदाजा नहीं था, और इसकी सूचना सबसे पहले हमारे जरिए ही पहुंचााई गई, हमने यह भी कहा कि हालात ऐसे हैं कि एयरफोर्स और आर्मी की मदद लेनी ही पड़ेगी, उसके बिना रेस्क्यू संभव नहीं है’।
योगेंद्र आगे बताते हैं- ’18 की सुबह फाटा में मौजूद डेढ़ दर्जन हैलीकॉप्टर्स ने अपने स्तर से रेस्क्यू शुरू कर दिया। सबसे पहला काम वहां फंसे जिंदा लोगों को सुरक्षित निकालना था। मैं और कैप्टन भूपेंद्र एक बार फिर सबसे पहले उड़े। सबसे पहले जंगलचट़टी में भूपेंद्र ने हैलीकॉप्टर को जमीन से दस फीट उपर स्थिर किया, फिर मैं कूद कर नीचे उतरा और वहां हैलीकॉप्टर उतारने के लिए जगह तैयार की। इस दौरान बदहवास लोग मेरी ओर दौड़ रहे थे और चीख पुकार करते हुए किसी भी तरह वहां से निकालने को कह रहे थे’।
इस तरह छोटे-छोटे हैलीपैड तैयार कर लोगों को वहां से निकालना शुरू किया। प्रशासन की मदद आने तक हम रेस्क्यू के लिए काफी बेस तैयार कर चुके थे। लेकिन तबाही इतनी भीषण थी कि राहत बचाव के काम में जोखिम बेहद ज्यादा था।
अपने काम को लेकर योगेंद्र पेन प्वाईट को बताते हैं कि एनआईएम से पर्वतारोहण और सर्च एंड रेस्क्यू कोर्स में सीखी हुई बातें यहां काम आई। ऐसे हालात में आप किसी तरह के अवार्ड या इनाम की बात नहीं सोच सकते यह पूरी तरीके से सेल्फ मोटिवेटेड और बिना किसी स्वार्थ के होता है।
इस तरह योगेंद्र राणा ने अपनी टीम के साथ करीब पांच हजार लोगों को आपदा से सुरक्षित बाहर निकाला। केदारनाथ आपदा किसी सिविलियन द्वारा किया गया यह काम एक आज भी एक नजीर है। हैरत की बात है कि तब की सरकार ने योगेंद्र राणा के साहस और सेवा का संज्ञान नहीं लिया। एयरफोर्स के विंग कमांडर निखिल नायडू समेत कई लोग योगेंद्र राणा के इस कारनामे से परिचित हैं, और सरकार से उनके काम का संज्ञान लेने की मांग भी कर चुके हैं। वो आज भी एक गुमनाम हीरो की तरह उसी फाटा हैलीपैड पर मौजूद हैं जहां से दस साल पहले उन्होंने मदद की उड़ान भरी थी।