Zero Discrimination Day : सदी बीत गई जातिगत भेदभाव को खत्म करते करते
कुमाउं में 1903 से ही जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज उठनी हो चुकी थी शुरू, अगले तीन दशक में उत्तराखंड भर में जाति आधारित भेदभाव खत्म करने को आयोजित होते रहे सम्मेलन
PEN POINT, DEHRADUN : आज संयुक्त राष्ट्र संघ (UN) की ओर से Zero Discrimination Day यानि शून्य भेदभाव दिवस दुनिया भर में मनाया जाता है। भारत के बहुसंख्यक हिंदु हमेशा से ही अलग अलग वर्णों में बंटे रहे हैं। यूं तो हर वर्ण एक दूसरे से भेदभाव करते रहे हैं लेकिन दलितों के साथ किए जाने वाले जातिगत भेदभाव का चेहरा अधिक क्रूर रहा है। 21वीं सदी में आज भी दलितों के साथ जातिगत भेदभाव न तो समाप्त हुआ है न ही दलितों के प्रति होने वाले अपराधों में कमी आई है। लेकिन, जब देश में जातिगत भेदभाव अपने चरम पर था तो पहाड़ों से भी जातिगत भेदभाव खत्म करने को समाज के सभी वर्णों के प्रतिनिधियों ने आगे बढ़कर जागरूकता कार्यक्रम चलाए। उत्तराखंड में दलितों के साथ होने वाले जातिगत भेदभाव के खिलाफ जागरूकता का इतिहास सौ साल से भी ज्यादा पुराना है लेकिन 90 साल पहले इसने व्यापक रूप लिया।
1932 से 1934 के मध्य कुमाउं कमिश्नरी में अछूतोद्धार कार्यक्रम अपनाया गया। इससे पूर्व कुमाउं में सन 1905 में टम्टा सुधारणी सभा का जन्म हो चुका था। आगे यही संस्िा समस्त कुमाउं के शिल्पकारों की स्थिति बदलने हेतु प्रतिबद्ध शिल्पकार सभा में बदल गई। साल 1912 और 1913 में अल्मोड़ा अखबार और गढ़वाली जैसे पत्रों ने शिल्पकारों के संदर्भ में लिखना प्रारंभ किया। जिसके फलस्वरूप श्री कृष्ण टम्टा नगर पालिका अल्मोड़ा के सदस्य निर्वाचित हुए। हालांकि, इससे पूर्व कमिश्नर रैमजे ने कुमाउंवासी हीरा टम्टा को शिक्षित देखकर अंग्रेजी दफ्तर में नौकरी दी थी। उस समय में बराबरी की कुर्सी में देख ब्राह्मणों को बुरा लगा था। श्री कृष्ण टम्टा के नगर पालिका सदस्य निर्वाचित होने पर कुछ उच्च जाति के लोगों इसे अपने सम्मान पर चोट माना और नगर पालिका की बैठकों का बहिष्कार करने की बात कही। अल्मोड़ा अखबार ने खुलकर इस संकुचित विचारधारा का विरोध किया।
सन 1930 में नैनीताल में सुनकिया गांव में लाल लाजपत राय का आना हुआ तो खुशीराम के नेतृत्व में शिल्पकारों ने जनेउ धारण करने तथा आर्य नाम स्वीकार करने का आंदोलन हुआ। लाला लाजपत राय के आने का यह असर हुआ कि जातिगत भेदभाव से त्रस्त भाभर पट्टी के दलितों ने जनेउ धारण कर आर्य बनना चुना। इस क्षेत्र समेत संपूर्ण पर्वतीय क्षेत्रों में दलितों को बेहद अपमानजनक संबोधन के साथ बुलाया जाता था। तब 1906 में अल्मोड़ा के हरीप्रसाद टम्टा ने शिल्प के काम में जुटे दलितों को शिल्पकार बुलाए जाने का प्रस्ताव दिया। उनके प्रयासों से 1921 में दलितों को शिल्पकार लिखा जाने लगा और 1932 में शिल्पकार को सरकारी मान्यता मिली। 1932 में एडवोकेट बद्रीदत्त जोशी की अध्यक्षता में कुमाउं समाज सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में पर्वतीय समाज में व्याप्त जाति आधारित भेदभाव की निंदा की गई और दलितों को भी अन्य वर्णों के समान माना गया। इसी साल गढ़वाल में भी दलितोत्थान के लिए कई सम्मेलनों का आयोजन किया गया। 11 व 12 दिसंबर 1932 को मुकंदीलाल बैरिस्टर की अध्यक्षता में तथा 18 सितंबर 1932 को जीवानंद वकील की अध्यक्षता में यह सम्मेलन हुए ।बैरिस्टर मुकंदीलाल ने अछूत जातियों से अपने पेशे न छोड़ने की अपील की तथा सवर्ण जातियों से अछूतों के साथ सम्मान से पेश आने का आह्वान किया। उन्होंने सवर्णों से अपील की कि वह अछूतों को डोली पालकी प्रयोग करने से न रोंके।
गढ़वाल और कुमाउं की एक संयुक्त प्रांत अस्पृश्यता विरोधी समिति का भी गठन किया गया था। गढ़वाल अस्पृश्यता विरोधी समिति ने 1932 के सम्मेलन में निम्न प्रस्ताव पेश किए थे –
1. डोला पालकी की समस्या को समाप्त किया जाए।
2. प्रत्येक दलित जो 21 वर्ष से अधिक हो, उसके मत देने का अधिकार दिया जाए।
3. काउंसिल में एक दलित सदस्य भेजना।
4. गढ़वाल के मठ मंदिर जलाशय जो सार्वजनिक स्थान पर हो उन्हें दलितों के लिए खोलना।
5. पूना पैक्ट का समर्थन
6. बदरीनाथ मंदिर दलितों के लिए खोलना।
7. शिल्पकार बैंक की स्थापना
8. शिल्पकारों की फौज में भर्ती, उन्हें भूमि दिए जाने और सामाजिक कुरीतियों पर प्रतिबंध
9. शिल्पकारों को मुसलमानों की तरह नगरपालिका, जिला परिषद आदि में प्रतिनिधि भेजने का अधिकार मिले।
(साभार – उत्तराखंड का समग्र राजनैतिक इतिहास, डॉ. अजय सिंह रावत। )