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अल्बर्ट आइंस्टाइन : दुनिया का महान वैज्ञानिक जो महात्मा गांधी को मानता था महामानव  

अल्बर्ट आइंस्टाइन पुण्यतिथि विशेष
– दुनिया के सबसे महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन थे गांधी के मुरीद, गांधीवाद को दुनिया की सबसे बड़ी जरूरत बताया
PEN POINT, DEHRADUN: दुनिया के महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन महात्मा गांधी के बारे में कहते हैं कि आने वाली नस्ले शायद ही यकीन कर पाएं कि हाड मांस वाला कोई व्यक्ति ऐसा इस दुनिया में भी था। असल में दुनिया का यह महान वैज्ञानिक अपनी उम्र से दस साल बड़े महात्मा गांधी का सबसे बड़ा फैन था, गांधीवाद को दुनिया में शांति का प्रतीक मानने वाले आइंस्टाइन ने भले ही गांधी से कभी मुलाकात न की हो लेकिन दुनिया ने जब दूसरे विश्व युद्ध के बाद तबाही का जो दौर देखा तो आइंस्टाइन को यकीन हुआ कि सिर्फ महात्मा गांधी का ही तरीका दुनिया को आने वाली नस्लों के लिए सुरक्षित रख सकता है।
दुनिया के महानतम वैज्ञानिकों में से एक माने जानेवाले अल्बर्ट आइंस्टीन एक वैज्ञानिक के रूप में उन्होंने दो महान वैज्ञानिकों को ही अपना आदर्श माना था. और ये दो वैज्ञानिक थे- आइज़क न्यूटन और जेम्स मैक्सवेल। उनके कमरे में इन्हीं दो वैज्ञानिकों की पोर्ट्रेट लगी रहती थीं। लेकिन पहले और दूसरे विश्व युद्ध के दौरान दुनिया का रक्त पिपासु रूप देखकर इस महान वैज्ञानिक को विज्ञान और मानवता के बीच के गहरे द्वंद में फंसा दिया तो उसकी दीवारों पर उन दो महान वैज्ञानिकों की तस्वीरों के बदले एक तस्वीर महान मानवतावादी अल्बर्ट श्वाइटज़र की और दूसरी महात्मा गांधी की टांग दी गई।  इसे स्पष्ट करते हुए आइंस्टीन ने उस समय कहा था- ‘समय आ गया है कि हम सफलता की तस्वीर की जगह सेवा की तस्वीर लगा दें।’

पदार्थ विज्ञान की गुत्थियों को सुलझाते हुए भी आइंस्टीन धर्म, अध्यात्म, प्रकृति और कल्पनाशीलता जैसे विषयों पर लगातार चिंतन करते रहे। और जब-जब भी उन्हें लगा कि विज्ञान और एकांगी तर्कवाद अपने अहंकार पर सवार होकर समूची मानवजाति के लिए ही संकट बन सकता है, तब-तब उन्होंने अहिंसा, विनम्रता, सेवा और त्याग की बात भी की. और ऐसे अवसरों पर उनके सामने बार-बार महात्मा गांधी का जीवन एक आदर्श उदाहरण के रूप में सामने आता रहा।
आइंस्टीन महात्मा गांधी से उम्र में केवल 10 साल छोटे थे। वे दोनों व्यक्तिगत रूप से कभी एक-दूसरे से मिले नहीं. लेकिन एक बार आत्मीयतापूर्ण पत्राचार अवश्य हुआ। यह पत्र आइंस्टीन ने 27 सितंबर, 1931 को वेल्लालोर अन्नास्वामी सुंदरम् के हाथों गांधीजी को भेजी था। इस चिट्ठी में आइंस्टीन ने लिखा- ‘अपने कारनामों से आपने बता दिया है कि हम अपने आदर्शों को हिंसा का सहारा लिए बिना भी हासिल कर सकते हैं. हम हिंसावाद के समर्थकों को भी अहिंसक उपायों से जीत सकते हैं. आपकी मिसाल से मानव समाज को प्रेरणा मिलेगी और अंतर्राष्ट्रीय सहकार और सहायता से हिंसा पर आधारित झगड़ों का अंत करने और विश्वशांति को बनाए रखने में सहायता मिलेगी. भक्ति और आदर के इस उल्लेख के साथ मैं आशा करता हूं कि मैं एक दिन आपसे आमने-सामने मिल सकूंगा।’
गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने गए गांधीजी ने 18 अक्टूबर, 1931 को लंदन से ही इस पत्र का जवाब आइंस्टीन को लिखा. अपने संक्षिप्त जवाब में उन्होंने लिखा- ‘प्रिय मित्र, इससे मुझे बहुत संतोष मिलता है कि मैं जो कार्य कर रहा हूं, उसका आप समर्थन करते हैं। सचमुच मेरी भी बड़ी इच्छा है कि हम दोनों की मुलाकात होती और वह भी भारत-स्थित मेरे आश्रम में।’
महात्मा गांधी के असहयोग, सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह जैसे अहिंसक तरीकों के बारे में यूरोप और अमेरिका के अखबारों में लगातार लिखा जा रहा था। जब पूरी दुनिया एक दूसरे के खून की प्यासी बनी हुई थी और लाशों की गिनती से किसी देश की जीत तय हो रही थी तो दुनिया को अहिंसा का संदेश देने वाले वाले महात्मा गांधी को दुनिया भर में अहिंसा के पैरोकार लोगों ने हाथों हाथ लिया। दुनिया भर में महात्मा गांधी के बारे में छपने लगा तो संभव है कि आइंस्टीन तक भी ये विचार पहुंचे होंगे। इस बीच ऐसे कई घटनाक्रम हुए जिसने यह साबित किया कि आइंस्टाइन पूरी तरह से महात्मा गांधी के अहिंसा के आंदोलन को जीवन का सार समझ चुके हैं चाहे वह सेनाओं को युद्ध में शामिल न होने का आह्वान करना हो या फिर अवैध कब्जों को लेकर अपनी ही सरकार का विरोध करना हो।
9 दिसंबर, 1931 को स्विटजरलैंड के ही विलेन्यूव शहर में रोमां रोलां ने महात्मा गांधी का साक्षात्कार किया और अपने एक सवाल में रोमां रोलां ने थोड़ा मजाकिया अंदाज में आइंस्टीन का जिक्र करते हुए प्रथम विश्व-युद्धोत्तरकालीन जर्मनी के युवकों के बारे में कहा, ‘जर्मनी का युवा-वर्ग युद्ध से पहले की अपेक्षा अब बिल्कुल बदल गया है. …नया युवक ‘सापेक्षता’ की स्थिति में रह रहा हैकृ इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि वे आइंस्टीन के देश के हैं।’ जवाब में गांधीजी ने इसपर कोई सीधी टिप्पणी नहीं की. केवल इतना कहा कि ‘भारतीय युवकों में चाहे बहुत बड़े बलिदान की क्षमता न हो, लेकिन वे अप्रतिरोध के प्रभाव में आ रहे हैं।’

दो अक्टूबर, 1944 को महात्मा गांधी के 75वें जन्मदिवस पर आइंस्टीन ने अपने संदेश में लिखा- ‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था।’ यह वाक्य गांधी को जानने-समझने वाली कई पीढ़ियों के लिए एक सूत्रवाक्य ही बन गया और आज भी इसे विभिन्न अवसरों पर उद्धृत किया जाता है।
इसके बाद जब यहूदियों के लिए अलग से इज़राइल नाम के देश बनाने के प्रयास शुरू हुए, तो 21 जुलाई, 1946 को यहूदी और फिलिस्तीन के संबंध में ‘हरिजन’ में लिखे अपने लेख में महात्मा गांधी ने एक बार फिर से आइंस्टीन का जिक्र किया। उन्होंने यहूदियों से अपील की थी कि वे अमेरिकी पैसे और अंग्रेजी फौज के बल पर फिलिस्तीन पर जबरन कब्जा करने की कोशिश न करें. उन्होंने यूरोप और अमेरिका के ईसाई समाज से कहा कि यहूदियों को विश्व-नागरिक और अतिथि के रूप में स्वीकार न करके उन्होंने उनके प्रति एक पूर्वाग्रहपूर्ण रवैया अपना रखा है. उन्होंने लिखा- ‘कोई एक यहूदी कोई गलती करता है तो पूरी यहूदी दुनिया उसके लिए दोषी मान ली जाती है. लेकिन अगर आइंस्टीन जैसा यहूदी कोई बड़ी खोज करता है या कोई अन्य यहूदी कोई अद्वितीय संगीत रचता है, तो उसका श्रेय उस आविष्कारकर्ता या रचयिता को जाता है, उस समाज को नहीं जिसके वे सदस्य है।’
30 जनवरी, 1948 को जब गांधीजी की हत्या हुई और पूरी दुनिया में शोक की लहर फैल गई, तो आइंस्टीन भी विचलित हुए बिना नहीं रहे थे। 11 फरवरी, 1948 को वाशिंगटन में आयोजित एक स्मृति सभा को भेजे अपने संदेश में आइंस्टीन ने कहा, ‘वे सभी लोग जो मानव जाति के बेहतर भविष्य के लिए चिंतित हैं, वे गांधी की दुखद मृत्यु से अवश्य ही बहुत अधिक विचलित हुए होंगे. अपने ही सिद्धांत यानी अहिंसा के सिद्धांत का शिकार होकर उनकी मृत्यु हुई. उनकी मृत्यु इसलिए हुई कि देश में फैली अव्यवस्था और अशांति के दौर में भी उन्होंने किसी भी तरह की निजी हथियारबंद सुरक्षा लेने से इनकार कर दिया। यह उनका दृढ़ विश्वास था कि बल का प्रयोग अपने आप में एक बुराई है, और जो लोग पूर्ण शांति के लिए प्रयास करते हैं, उन्हें इसका त्याग करना ही चाहिए। अपनी पूरी जिंदगी उन्होंने अपने इसी विश्वास को समर्पित कर दी और अपने दिल और मन में इसी विश्वास को धारण कर उन्होंने एक महान राष्ट्र को उसकी मुक्ति के मुकाम तक पहुंचाया. उन्होंने करके दिखाया कि लोगों की निष्ठा सिर्फ राजनीतिक धोखाधड़ी और धोखेबाजी के धूर्ततापूर्ण खेल से नहीं जीती जा सकती है, बल्कि वह नैतिक रूप से उत्कृष्ट जीवन का जीवंत उदाहरण बनकर भी हासिल की जा सकती है।’
दो नवंबर, 1948 को ‘इंडियन पीस कांग्रेस’ को भेजे गए अपने संदेश में आइंस्टीन ने इन शब्दों में महात्मा गांधी को याद किया था, ‘…क्रूर सैन्यशक्ति को दबाने के लिए उसी तरह की क्रूर सैन्यशक्ति का कितने भी लंबे समय तक इस्तेमाल करते रहने से कोई सफलता नहीं मिल सकती. बल्कि सफलता केवल तभी मिल सकती है, जब उस क्रूर बल का उपयोग करनेवाले लोगों के साथ असहयोग किया जाए. गांधी ने पहचान लिया था कि जिस दुष्चक्र में दुनिया के राष्ट्र फंस गए हैं, उससे बाहर निकलने का रास्ता केवल यही है. आइए, जो कुछ भी हमारे वश में है हम वह सब कुछ करें ताकि, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, दुनिया के सभी लोग गांधी के उपदेशों को अपनी बुनियादी नीति के रूप में स्वीकार करें.’

अल्बर्ट आइंस्टाइन को दुनिया भले ही एक महान वैज्ञानिक के रूप में जानते हो लेकिन यह भी सत्य है कि यह महान वैज्ञानिक अपनी उम्र से दस साल बड़े उस धोती लपेटे बेहद पतले से आदमी का मुरीद था जिसे वह मानता था कि दुनिया को हिंसा और खून खराबे के रास्ते से अलग लेकर जाने के लिए पूरी दुनिया को महात्मा गांधी होना होगा।

 

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