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अलगाड का मौण : मछलियों के शिकार का 150 साल पुराना खेल

– जौनपुर घाटी में बहने वाली अलगाड नदी में आज क्षेत्र के हजारों ग्रामीण उतरेंगे मछलियों के शिकार को
Pen Point, Dehradun : टिहरी जनपद के जौनपुर घाटी में मछलियों के शिकार का एक ऐसा अनोखे खेल का आयोजन किया जाता है जिसमें ग्रामीण जितनी चाहे उतनी ही मछलियों का शिकार करते हैं बाकि मछलियां कुछ देर बेहोश होने के बाद होश पर आने के बाद वापिस इस नदी की जैव विविधता को बनाए रखती है। बिना किसी रासायनिक पदार्थ, नुकीले हथियारों या अन्य ऐसे किसी प्रकृति के लिए घातक तरीके का इस्तेमाल किए बगैर प्राकृतिक तरीके से बेहद कम नुकसान वाले इस खेल का इतिहास डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा पुराना है। मौण उत्सव नाम का यह पर्व पूरी तरह से मत्स्य आखेट का उत्सव है।
टिहरी गढ़वाल जनपद की धनोल्टी विधानसभा क्षेत्र का जौनपुर क्षेत्र, खेती किसानी, पशुपालन के लिहाज से अव्वल इस क्षेत्र के बारे में कहा जाता है कि यहां गलती से भी फेंका गया बीज अच्छी उपज देने वाला साबित होता है। क्षेत्र में खेती, पशुपालन की उन्नति के लिए क्षेत्र के बीचों बीच बहने वाली अलगाड नदी को श्रेय दिया जाता है। अलगाड नदी पूरे जौनपुर क्षेत्र की प्यास बुझाने के साथ ही इस क्षेत्र में खेतों को सिंचाई के लिए भी साल भर पानी मुहैया करवाती है। लेकिन, अब जब मानसून के दौरान पानी के जलस्तर में बढ़ोत्तरी शुरू हो रही है और पहाड़ की अन्य नदियों की तरह अलगाड भी उफान पर आने लगी है तो उससे पहले क्षेत्र के लोग इस नदी में एक अनोखा खेल खेलते हैं। टिहरी राजाओं द्वारा मनोरंजन के लिए शुरू किया गया मत्स्य आखेट इस क्षेत्र का एक पारंपरिक उत्सव बन चुका है। 1866 में यह इलाका टिहरी रियासत का हिस्सा था। अलगाड नदी में ताजी व स्वादिष्ट मछलियों के किस्से तत्कालीन टिहरी राजा के कानों में पड़े तो तो टिहरी राजा अपने लाव लश्कर के साथ आषाढ़ महीने के दूसरे पखवाड़े से ठीक पहले ही जौनपुर पहुंच गए। फिर शुरू हुआ अलगाड नदी में मछलियों के आखेट का प्रसिद्ध मौण उत्सव। लेकिन, मछलियों के शिकार के लिए किसी पारंपरिक तरीके से इतर प्राकृतिक औषधी के प्रयोग की विधि चुनी गई। पुराने समय से पहाड़ों में उगने वाली चिकित्सीय गुणों से भरपूर कंटीली झाड़ी टिमरू जिनका वानस्पिक नाम जेंथेजाइलम अरमेट है, उसके तनों को पीसकर पाउडर बनाया जाता है। इस पाउडर को पानी में मिलाने के बाद जलीय जीवों पर कुछ देर के लिए बेहोशी छाने लगती है, यह बेहोशी जानलेवा नहीं होती है बस कुछ देर तक ही पानी में इसका असर होता है। जैसे ही इस पाउडर को अलगाड नदी में डाला जाता, मछलियां बड़ी संख्या में बेहोश होकर नदी के उपर बहने लगती है, तभी हजारों की संख्या में ग्रामीण नदी में उतर कर इन मछलियों को एकत्र करते हैं, यहां ध्यान रखा जाता है कि छोटे साइज की या बेहद छोटी मछलियों को एकत्र न कर पानी में ही छोड़ दिया जाए। जो मछलियां पानी में छूट जाती है वह कुछ देर बार टिमरू के पाउडर का असर कम होते ही होश में आ जाती है और जिन मछलियों को ग्रामीण एकत्र कर चुके होते हैं उन्हें प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है।

मत्स्य आखेट का यह उत्सव इतना अनोखा है कि इसकी तैयारियां सप्ताह भर पूर्व ही होने लगती है। इसके लिए टिमरू का पाउडर डालने की जिम्मेदारी सिलवाड़, लालूर, अठज्यूला और छैजूला पट्टियों का होता है। पाउडर पीसने के बाद तय तिथि को तीन किमी लंबे नदी क्षेत्र में यह पाउडर हजारों ग्रामीणों की मौजूदगी में डाला जाता है, कुछ देर बाद ही पाउडर असर दिखाना शुरू कर देता है और हजारों मछलियां बेहोश होकर नदी में तेरने लगती है तभी क्षेत्र के हजारों ग्रामीण नदी में उतरकर पारंपरिक तरीके से इन मछलियों को एकत्र करते हैं।
मेले में बीस से 30 हजार किलो मछलियां पकड़ी जाती है जिसे ग्रामीण प्रसाद स्वरूप घर ले जाते हैं. घर में बनाकर मेहमानों को परोसते है। मेले में लोक संस्कृति से भी लोग रूबरू होते हैं।
नदी की सफाई का अनोखा मेला
यूं तो यह मेला अलगाड में मछली मारने का मेला है लेकिन अपने अनोखे तरीके के चलते यह नदी के सफाई का सबसे बड़ा और अनोखा मेला भी है। इसका उद्देश्य नदी की सफाई करना होता है ताकि मछलियों को प्रजनन के  लिए साफ पानी मिले। जल वैज्ञानिकों की मानें तो उनका कहना है कि टिमरू का पाउडर जल पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाता है। इससे कुछ समय के लिए मछलियां बेहोश हो जाती है। जो मछलियां पकड़ में नहीं आ पाती हैं वह बाद में ताजे पानी में जीवित हो जाती हैं। वहीं हजारों की संख्या में जब लोग नदी की धारा में चलते हैं तो नदी के तल में जमी हुई काई और गंदगी साफ होकर पानी में बह जाती है और मौण मेला के बाद नदी बिल्कुल साफ नजर आती है।
ज्यादा पायी जाती हैं ट्राउट प्रजाति की मछलियां

अगलाड़ नदी में ट्राउट मछलियों के लिये अनुकूल वातावरण पाया जाता है। इसलिये यहां पर ट्राउट प्रजाति की मछलियां ज्यादा पायी जाती हैं। पूर्व में मौण मेलों में जैव विविधता बोर्ड के वैज्ञानिक भी अगलाड़ नदी में मौजूद रहते थे। ऐसी मान्यता है कि साल में एक बार मनाये जाने वाले इस राजमौण मेले से नदी की काई आदि की सफाई भी हो जाती है और पीछे से बहकर आ रहे ताजे पानी में जिन मछलियों को ग्रामीण पकड़ नहीं पाते, वह ताजे पानी से फिर से जीवित हो उठती हैं।

दो मौण हुए विलुप्त
पूर्व में अगलाड़ नदी के ऊपरी हिस्सों में घुराणू का मौण तथा मंझमौण नाम से दो अन्य मौण मेले भी आयोजित होते थे जो सत्तर व अस्सी के दशक तक आते आते इतिहास के गर्त में समा गये। अब नदी के अंतिम छोर पर सिर्फ राजमौण का आयोजन होता है, जिसको भीण्ड का मौण भी कहा जाता है। क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों द्वारा उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद इस राजमौण को राजकीय मेला घोषित करने की सरकार से मांग की जाती रही है, लेकिन सरकार द्वारा इस ओर गंभीरता से कोई आश्वासन नहीं मिला है।

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