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करूणावती: जानिये कौन थी मुगलों की नाक काटने वाली गढ़वाली रानी

Pen Point, Dehradun : गढ़वाल के इतिहास में रानी कर्णावती का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। पंवार राजवंश के 46वें राजा महिपतशाह की रानी करूणावती ही कर्णावती के नाम से जानी जाती हैं। सन् 1634 में महिपतशाह की मृत्यू के बाद उनके अवश्यक पुत्र पृथ्वीपति शाह को गढ़वाल राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया गया। जबकि राज काज चलाने का जिम्मा उसकी संरक्षिका के रूप में रानी करूणावती के हाथों में रहा। पराक्रमी राजा महिपतशाह को उस समय का मुगल शासक शाहजहां कभी अपने अधीन नहीं कर पाया। यही वजह रही कि मुगल दरबार का महिपत शाह और गढ़वाल राज्य से बैर भाव बना रहा। महिपत शाह के बाद जब रानी करूणावती ने कमान संभाली तो शाहजहां की इस पहाड़ी राज्य पर कब्जे की मानो मुराद पूरी हो गई। वह गढ़वाल पर हमले की योजनाएं बनाने लगा।

यह समय ऐसा था कि राजा खुद अवयस्क था और वीर सेनापति माधो सिंह भंडारी बूढ़े हो चुके थे। पड़ोसी राज्य हिमाचल के सिरमौर का राजा मांधाता भी गढ़वाल राज्य से प्रतिशोध रखता था। इतिहासकार डा. यशवंत सिंह कठौच के ईटी ऐटकिंसन रचित मध्य हिमालय का इतिहास, एक समीक्षात्मक अध्ययन इस तथ्य को प्रमाणित करता है। जिसके मुताबिक शाहजहां ने तुरंत गढ़राज्य पर आक्रमण की योजना बना ली। बादशाहनामा के अनुसार 1635 में राजा की मृत्यू के बाद ही शाहजहां के फौजदार नजाबतखां ने गढ़वाल पर आक्रमण किया था। जिसमें सिरमौर के राजा के साथ ही बादशाह की ओर से भेजी गई सैकड़ों घुड़सवारों की फौज शामिल थी। लेकिन रानी करूणावत ने अपने अदम्य साहस और रणनीति से हमले को विफल ही नहीं किया बल्कि मुगल सैनिकों की नाक काट कर उन्हें वापस भेज दिया। कई ऐतिहासिक दस्तावेजों और खुद मुगल दरबार के दस्तोवजों में भी इस हार का जिक्र मिलता है। इस हार के कारण नजाबत खां को अपने मनसब तथा जागीर से हाथ धोना पड़ा था। मआसिर उल उमरा के अनुसार, मुगल सेना की यह पराजय से तीस कोस दूरी पर हुई थी। इतिहास में करूणावती को नाक काटी रानी के रूप में जाना जाता है।

रानी कर्णावती एक सुयोग्य शासिका

रण कुशलता के अलावा रानी कर्णावती को एक सुयोग्य शासिका के रूप में जाना जाता है। मुगल सेना पर जीत हासिल करने के बाद उन्होंने देहरादून पर फिर से गढ़वाल राज्य का अधिपत्य बहाल कर दिया था। यहां उन्होंने करणपुर गांव बसाया था। जो आज करनपुर के नाम से शहर का अहम हिस्सा है। उन्होंने अपने राज्य में अनेक कुंए और बावड़ियों का निर्माण करवाया। दून के नवादा में उन्होंने एक राजभवन और बावड़ी बनाई थी। जिसके अवशेष आज भी वहां मौजूद हैं।
कठौच लिखते हैं कि बुद्धिमता, रणकुशलता और सुयोग्य शासिका के रूप में महारानी करूणावती की तुलना गोण्डवाना की संरक्षिका रानी दुर्गावती से की जा सकती है। रानी दुर्गावती 1564 ई में मुगल सेना के आसफखां से अपने राज्य की वीरतापूर्वक प्रतिरक्षा करती हुई सपुत्र रणक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुई थी। जिस तरह अकबर का दुर्गावती पर आक्रमण औचित्य विहीन था, उसी तरह शांत एकांत हिमालयी राज्य की आदर्श चरित्र रानी करूणावती पर भी शाहजहां का आक्रमण भी औचित्य विहीन था। परंतु जब वह शत्रु दलों से घिर चुकी थी, तब उसकी तेजस्विता दुर्गावती से इतनी अधिक सफल रूप में ज्योतिमाऩ हुई कि यह घटना हिमालयी इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ बन गई।

मध्य प्रदेश में रानी दुर्गावती का सम्मान

मध्य प्रदेश में आने वाले विधानसभा चुनावों में रानी दुर्गावती का सम्मान प्रमुख मुद्दा रहने वाला है। भाजपा ने जहां इसके लिए बीते दिनों से रानी दुर्गावती गौरव यात्रा की शुरूआत कर दी है, वहीं कांग्रेस भी रानी दुर्गावती के सम्मान के संकल्प के साथ लोगों के बीच जाने का ऐलान कर चुकी हैं। इससे अंदाजा लगाजा जा सकता है कि मध्य प्रदेश के लोगों में रानी दुर्गावती के नाम की कितनी पैठ है। लेकिन उत्तराखंड में ऐसे ऐतिहासिक चरित्रों को लेकर ना तो राजनीति और ना ही आम लोगों में उत्साह दिखता है। रानी करूणावती नाम पर ना तो कोई संस्थान है और ना ही कोई महत्वपूर्ण जगह। उल्टे उनसे जुड़ी जमीनों पर कब्जे की खबरें अक्सर चर्चा में रहती हैं।

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