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भुवनचंद्र खंडूड़ी के पुरखों ने पेश की थी गढ़वाल में “वोकल फॉर लोकल” की मिसाल

Pen Point, Dehradun : टिहरी के राजा सुदर्शन शाह के समय 1815-1859 में अंग्रेज विलसन ने यहां के जंगलों से अकूत धन कमाया। जिसके मुनाफे में ब्रिटिशराज भी हिस्सेदार हुआ। लेकिन फिर भी विलसन ने यहां जनहित को कोई काम नहीं किया। उसने जो भी सड़कें और पुल बनाए वो सभी उसने अपने कारोबार की जरूरत के लिये तैयार किये थे। सुदर्शन शाह के ही वंश की दो पीढ़ियों के बाद 1887-1913 टिहरी के राजा हुए कीर्ति शाह। जिन्हें अपने समय में पूरे देश का सर्वश्रेष्ठ राजा होने के गौरव था। उनकी छवि बड़े सुधारवादी राजा की थी। इन्हीं कीर्ति शाह ने जंगल की लकड़ियों का काम एक पौड़ी के पास मरगदना गांव के रहने वाले गढ़वाली ठेकेदार गंगाराम खंडूड़ी को दिया। उन दिनों गंगाराम खंडूड़ी के पास बड़े ठेके लेने के लिये धनराशि नहीं थी। गढ़वाली ठेकेदार को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से कीर्तिशाह ने गंगाराम खण्डूड़ी को देवदार के 1500 वृक्ष निशुल्क दे दिये। उन्हें कटवाकर ठेकेदार ने स्लीपर बनवाए। जिन्हें बेचने पर उसे बड़ा मुनाफा हुआ। तबसे वह हर साल टिहरी राज्य के जंगलों के ठेके लेने लगा। 7 अगस्त 1907 को गंगाराम खंडूड़ी की मृत्यू हो गई। तब यह काम उसके पुत्र घनानंद खंडूड़ी और उनके तीन भाईयों ने संभाला।

गंगाराम की मृत्यु के समय उस पर 64000 रूपए का कर्जा था। किंतु 25 साल के घनानंद ने हिम्मत से काम लिया। चारों भाइयों ने फैसला किया कि बड़ा भाई तारादत्त खंडूड़ी पहले की तरह टिहरी राज्य में नौकरी करता रहे और अपने कारोबार को सलाह और सहायता देता रहेगा। घनानंद ने कारोबार के मुख्य केंद्र हरिद्वार का प्रबंध संभाला। जहां गंगा में बहाए हुए स्लीपरन पहुंचते थे। तीसरे भाई राधाल्लभ को उत्तरकाशी में रहकर नों में वृक्षों के कटान का का काम देखते रहने की जिम्मेदारी मिली। चौथे भाई चंद्रबल्लभ खंडूड़ी को मसूरी में परिवार की देखरेख और वहां के कारोबार का प्रबंधन का काम दिया गया।

काम शुरू करने के लिये घनानंद खंडूड़ी को चालीस हजार रूपए का कर्ज लेना पड़ा। लेकिन काम का संचालन सफलतापूर्वक करके कुछ ही सालों में अपने पिता समेत खुद का लिया हुआ कर्ज भी ब्याज सहित चुका दिया। उनकी फर्म मैसर्स गंगाराम घनानंद के जल्द ही लकड़ी के कारोबारियों में ख्याति हासिल कर ली। इस फर्म में सैकड़ों गढ़वालियों को रोजगार दिया गया था। सामान्य पढ़ने लिखने वालों को मुंशी, बिना पढ़े लिखे आराकश, मजदूर और भारवाहक के रूप में इस फर्म से आजीविका पाने लगे। यह फर्म गढ़वालियों के लिये आश्रय और गर्व की वस्तु थी। जिस गढ़वाली को कहीं आजीविका नहीं मिलती उसे पूरी उम्मीद रहती थी कि इस फर्म में उसे काम जरूर मिलेगा।

घनानंद खंडूड़ी ने उत्तरकाशी में श्री कीर्ति संस्कृत पाठशाला की स्थापना की। जिसमें संस्कृत हिंदी और अंग्रेजी की निशुल्क शिक्षा दी जाती थी। इसके अलावा छात्रों को भोजन वस्त्र भी दिये जाते थे। उत्तरकाशी में उन्होंने एक कन्या पाठशाला की भी स्थापना की थी, इसमें भी निशुल्क शिक्षा दी जाती थी। घनानंद ने निर्धन छात्रों को छात्रवृत्तियां देकर बाहर के विद्यालयों में पढ़ने के लिये भी प्रोत्साहित किया। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडुड़ी इसी परिवार से आते हैं। गौरतलब है कि विल्सन ने राज्य के जंगलों से मोटा मुनाफा कमाने के बाद भी जनहित का ऐसा कोई काम नहीं किया था।

स्रोत- टिहरी गढ़वाल राज्य का इतिहास-1, डॉ.शिवप्रसाद डबराल

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