शहीदी दिवस: उत्तराखंड का वीर सैनिक जिसे मिला देश पहला महावीर चक्र
– आज के ही दिन 1947 में कश्मीर में पाकिस्तानी समर्थिक कबाइलियों से देश की सुरक्षा करते हुए अदम्य शौर्य दिखाने वाले दीवान सिंह दानू हुए थे शहीद
PEN POINT, DEHRADUN :यूं तो भारतीय सेना में अदम्य साहस और उत्तराखंड के वीर जवान एक दूसरे के पर्याय हैं। आजादी से पहले भी ब्रिटिश सेना में उत्तराखंड मूल के वीर सैनिकों की वीरता के अंग्रेज भी कायल रहे। अपने अदम्य शौर्य, साहस के लिए उत्तराखंड के सैनिकों ने ब्रिटिश राज के दौरान अंग्रेजी राज के कई विशिष्ट बहादुरी सम्मान जीते। लेकिन, आजादी के बाद युद्ध क्षेत्र में अदम्य साहस के लिए दिए जाने वाले दूसरे सबसे बड़े वीरता पुरस्कार महावीर चक्र से सम्मानित होने वाला पहला सैनिक भी उत्तराखंड से ही था। आज के ही दिन 1947 में 4 कुमाऊं रेजीमेंट के वीर सिपाही दीवान सिंह दानू ने कश्मीर सीमा पर दुश्मनों से देश की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व बलिदान दिया। उनकी बहादुरी और अदम्य साहस से तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके और दीवान सिंह दानू की शहादत के बाद उन्हें याद करते हुए प्रधानमंत्री ने शहीद दीवान सिंह के पिता को पत्र भेजा था।
दीवान सिंह दानू उत्तराखंड के सीमांत जिले पिथौरागढ़ के पुरदम निवासी थे। दीवान सिंह दानू अंग्रेजी शासन के दौरान मार्च 1943 को 4 कुमाऊं रेजीमेंट में सैनिक के तौर पर भर्ती हुए थे। इस दौरान देश 15 अगस्त 1947 को आजाद हो गया था तो ब्रिटिश सेना के तहत आने वाली रेजीमेंट अब भारत सरकार का हिस्सा बन चुकी थी। पूरा देश आजादी का जश्न मना ही रहा था कि तीन महीनों बाद ही कश्मीर पर कबाईली हमला हो गया। पाकिस्तान समर्थित इस कबाईले हमले से निपटने के लिए भारत सरकार ने सेना भेज दी। कबाईली इस दौरान कश्मीर के बड़े हिस्से में व्यापक लूट मार मचाने के अलावा कई महत्वपूर्ण ठिकानों पर कब्जा जमा चुके थे। तीन नवंबर 1947 को बड़गाम हवाई अड्डे को कब्जे में लेने के लिए कबालियों ने दीवान सिंह दानू की प्लाटून पर हमला कर दिया। डी कंपनी के 11वीं पलाटून के सेक्शन नंबर 1 में ब्रेन गनर के रूप में तैनात दीवान ने 15 कबालियों को मौट के घाट उतार दिया। वह अपनी आखिरी सांस तक कबाइली हमलावरों से लड़ते रहे। दीवान सिंह दानू ने इस युद्ध में अपना सर्वस्व बलिदान देकर देश पर कब्जा करने की नियत से आए हमलावरों को मौत के घाट उतारा।
साल 1950 के बाद जब देश में युद्ध क्षेत्र में अदम्य साहस के लिए वीरता पुरस्कार देने का चलन शुरू हुआ तो इसमें आजादी के बाद देश की सुरक्षा में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले वीर सैनिकों को भी सम्मानित करने का फैसला लिया गया। देश के दूसरे सबसे बड़े वीरता पुरस्कार महावीर चक्र से सम्मानित होने वाले दीवान सिंह दानू पहले सैनिक बने। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने दीवान सिंह दानू को उनके अदम्य साहस शौर्य के लिए उन्हें मरणोपरांत आजाद भारत का प्रथम महावीर चक्र प्रदान किया। उनकी शहादत का सम्मान करते हुए पं. नेहरू ने उनके पिता उदय सिंह को पत्र भी लिखा था।
शहीद दानू के पिता को भेजे पत्र में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने लिखा था कि हिंद की जनता की ओर से और अपनी तरफ से दुख और रंज में यह संदेश भेज रहा हूं। हमारी दिली हमदर्दी आपके साथ है। देश की सेवा में यह जो बलिदान हुआ है इसके लिए देश कृतज्ञ है। और हमारी यह प्रार्थना है कि इससे आपको कुछ धीरज और शांति मिले।
1950 से शुरू हुए वीरता पुरस्कार
स्वतंत्रता के पश्चात, भारत सरकार द्वारा 26 जनवरी, 1950 को तीन वीरता पुरस्कार शुरू किए गए। परम वीर चक्र, महावीर चक्र और वीर चक्र युद्ध क्षेत्र में अदम्य साहस व शौर्य के लिए प्रदान किए जाने लगे। जिन्हें 15 अगस्त, 1947 से प्रभावी माना गया था। वीरता के लिए दिया जाने वाला सबसे बड़ा पुरस्कार परमवीर चक्र है। इसके बाद दूसरा सबसे बड़ा पुरस्कार महावीर चक्र है।
देश के खिलाफ पहला जिहाद था कबाईली हमला
15 अगस्त 1947 को भारत चार सदी लंबे अंग्रेजी दासता से मुक्त हो चुका था। हालांकि, इसकी कीमत देश ने विभाजन जैसी रक्त रंजित घटना के रूप में चुकाई। लेकिन, कश्मीर अभी भी देश का हिस्सा बनने को तैयार नहीं था। कश्मीर के तत्कालीन राजा हरि सिंह अभी भी स्वायत्त शासन की उम्मीद पाले थे लेकिन पाकिस्तान कश्मीर के एक हिस्से को अपने कब्जे में ले चुका था, या यूं कहें वह हिस्सा पाकिस्तान के साथ ही रहना चाहता था। इस बीच भारत सरकार कश्मीर के विलय की कोशिश कर रही थी कि आजादी के अगले तीन महीनों के भीतर ही 22 अक्टूबर 1947 को पठान हमलावरों सीमा पार कर कश्मीर की तरफ बढ़ना शुरू किया। यह कबीलाई हमलावरों ने पूरे कश्मीर क्षेत्र में लूट, बलात्कार और तबाही का तांडव किया। इसके शिकार कश्मीर में रहने वाले हिंदू और मुस्लिम दोनों समान रूप से हुए। यह आजाद भारत के खिलाफ पहला जिहाद भी माना जाता है जहां पठान हमलावरों को लगता था कि वह इस हमले से पुण्य कमा रहे हैं। कश्मीरी रियासत की सेना इन हमलावरों का सामना करने के लिए तैयार नहीं थी। राजा हरि सिंह ने भारत सरकार से मदद मांगी तो स्थिति का जायजा लेने के बाद 27 अक्टूबर को हवाई जहाजों से भारतीय सेना श्रीनगर भेजी जाने लगी।