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मोनाल को मारकर उसके रंगीन पंखों से अंग्रेज महिलाओं के सिर सजाते थे फिरंगी

-व्यापारी पीटर बैरन और विल्सन ने बड़ी तादाद में किया था मोनाल पक्षी का शिकार, इंग्लैंड में फिरंगी महिलाओं के हैट पर सजाए जाते थे मोनाल के पंख

Pen Point, Dehradun : नीले और सुनहरे पीले पंखों वाला खूबसूरत मोनाल उत्तराखंड का राज्य पक्षी है। जंतु विज्ञानियों ने इसे दुर्लभ पक्षियों में रखा है, जो संकट के दौर से गुजर रहे हैं। जिसके पीछे कई कुदरती और गैर कुदरती कारण हैं। कुदरती कारण बर्फ रेखा यानी स्नो लाइन का लगातार सिमटना कहा जा सकता हे। जबकि गैर कुदरती कारण इसका शिकार किया जाना है। वन महकमे के अफसरों के मुताबिक फिलहाल उत्तराखंड में महज एक हजार के करीब ही मोनाल बचे हैं। लेकिन यह मासूम और खूबसूरत पक्षी कभी उत्तराखंड में बहुतायत में था। अंग्रेजों ने ही इस पक्षी के बारे में देश दुनिया को बताया और उन्होंने ही इसका जमकर शिकार किया। जिसका उन्होंने ना केवल मांस खाया बल्कि उसके खूबसूरत पंखों को इंग्लैंड ले जाकर बेचा गया। जहां उन्हें अंग्रेज महिलाएं अपने हैट में बड़ी शान से सजाया करती थीं।
ऐतिहासिक दस्तावेजों के जरिए अतीत पर नजर डालें तो सन् 1842 ईसवी में तब के ट्रैवलर और शिकारी पीटर बैरन ने उत्तराखंड की कई यात्राएं की। दिलचस्प बात ये है कि उसने ये यात्राएं पिलग्रिम जैसे पवित्र नाम से की थी और इस दौरान उसने यहां के जंगलों में जमकर कर शिकार खेला। बताया जाता है कि उसने ही सबसे पहले मोनाल के बारे में आधिकारिक रूप से सूचनाएं भी दी है।

ये विवरण आगरा अखबार और कलकत्ता जर्नल में भी प्रकाशित हुए। जिनके मुताबिक बैरन को सबसे पहले भिलंग घाटी क्षेत्र में त्रिजुगी से तीस मील की दूरी पर मोनाल का जोड़ा दिखा था। जब तक वह अपनी बंदूक से निशाना साधता मोनाल जोड़ा फर्राटे से उसके सिर के उपर से गुजरते हुए दूर निकल गया। इसके बाद नीति घाटी से बधाण क्षेत्र आते हुए बैरन के दल ने जब पिलकुंठा धार को पार किया तब उन्हें मोनाल की आवाजें सुनाई दी। जिसका उन्होंने पौष्टिक मांस भोज के लिए जमकर शिकार किया था। इस दल में करीब नब्बे लोग थे, बैरन ने मोनाल की संख्या तो नहीं लिखी है, लेनि नब्बे लोगों के लिए कितने मोनाल मारे जा सकते हैं। इस तरह चमोली जिले के पाणा ईरानी नाम के गांवों की सीमाओं पर नीचे उतरते हुए मोनाल इस दल को दिखाई दिये।

इसके बार रामणी-घूजी रिज से उतरते हुए उन्होंने औली बुग्याल में कैंप किया। वहां इतने मोनाल थे कि बैरन ने चार पांच दिन वहंीं रूकने का फैसला किया। यहां उसने पाया कि इनमें मोनाल की करीब एक दर्जन उपजातियां शामिल थी। जाहिर है कि बड़ी तादाद में मोनाल को मारने के बाद ही उसने उनके आकार प्रकार के आधार पर उपजातियों का पता लगाया होगा।

बैरन के बाद गंगोत्री से पहले हर्षिल को अपना ठिकाना बनाने वाला फ्रेडिरिक विल्सन मोनाल पक्षियों का विध्वंसकर्ता बना। मोनाल के पंखों को इंग्लैंण्ड पहुंचाकर बेचने के काम में वही सबसे आगे था। इसके बाद यूरोपीय शिकारियों के दल उत्तराखंड के उच्च हिमालयी इलाकों में शिकार खेलने पहुंचने लगे थे। अंग्रेजों के भारत में रहने तक यानी 1947 तक यह सिलसिला चलता रहा। इतिहासकार शिवप्रसाद नैथानी अपनी किताब गढ़वाल का जनजीवन में लिखते हैं कि वायसराय लार्ड कर्जन को भी धूरी-रामणी-ईरानी के क्षेत्र के मोनाल, घुरल, बरड़ काखड़ कस्तूरी आदि के शिकार के लिए न्यौता दिया गया। वहां जाने के लिए ही दो साल की मशक्कत के बाद ग्वाल्दम,-थराली-रामणी रोड यानी कार्ट रोड बनाई गई थी। जहां बाद में हर साल गढ़वाल के डिप्टी कमीश्नर दूसरे जिले के दोस्तों को शिकार के लिए बुलाते थे। ये लोग पंद्रह दिनों तक वहां कैंप करते थे।

मोनाल के मांस के स्वाद और पकाने के बारे में पिलग्रिम ने बेशर्मी से लिखा है कि उस इलाके की ठंडी आबो हवा में रहते हुए पहले मोनाल की खाल उतारकर, बाकी पिंजर को टांगे रहो, फिर चावन के साथ खूब उबालो, मसाला देकर खाओ तो टर्किश हैम से भी ज्यादा स्वादिष्ट डिश का आनंद मिलेगा।

कहां रहता है और कैसा होता है मोनाल
मोनाल उच्च हिमालयी इलाको में आठ हजार से चौदह हजार फीट की उंचाई पर रहता है। बर्फीले इलाके के निकट रहने के कारण यह बचा हुआ भी है। सर्दियों में बर्फ ज्यादा होने पर यह सात हजार मीटर तक बुग्यालों में उतर आता है। कद करीब डेढ़ फीट लंबा, उंचाई एक फीट होती है। इसके सिर पर मोर से कुछ छोटी लेकिन बहुत ही आकर्षक कलगी होती है। नर मोनाल का रंग नीला पीला और मादा का रंग मटमैला होता है। आम तौर पर मोनाल जोड़े में रहता है और बुग्यालों के आस पास पथरीली चट्टानों के बीच यह घोंसला बनाता है।

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