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फ्लैशबैक : आज जिंदगी में पहली बार शेरखान की शेर से टक्कर हुई है!

आज हिंदी सिनेमा के दिग्‍गज अदाकार प्राण की जयंती है। 12 फरवरी 1923 को दिल्‍ली के बल्‍लीमारान में जन्‍मे प्राण को हिंदी सिनेमा का सबसे सफल विलेन माना जाता है। स्‍वतंत्र पत्रकार पुष्‍कर सिंह रावत इस महान कलाकार को कुछ इस तरह याद कर रहे हैं-

PEN POINT : प्राण साहब आपको दुनिया से कूच किए हुए पंद्रह साल होने को हैं, लेकिन आपके लिए तालियां आज भी बज रही हैं। यही तो बड़े कलाकार की खूबी है। दरअसल, हमने बचपन में आपकी फिल्‍में देखनी शुरू की थी। तब दूरदर्शन या सिनेमाहॉल ही जरिया हुआ करता था, आज टेक्‍नोलॉजी ने सीन ही चेंज कर दिया है। मगर हम तो जंजीर के उसी सीन में अटके हैं, जब आपने पुलिस थाने में जाकर इंस्‍पेक्‍टर विजय यानी अमिताभ बच्‍चन को अपना धाकड़ इंट्रो दिया था। उसने जब हवलदार से कहा कि शेरखान को बाहर छोड़ दो, तो आपने कड़कती आवाज में कहा जरूरत नहीं शेर खान खुद चला जाएगा, खुदा हाफिज…कसम से क्‍या एंट्री और क्‍या एग्‍जिट था आपका। हमने भी स्‍कूल या घरों में ऐसी कोशिशें की, पर हम ठहरे खतम, या तो एंट्री खराब हो जाती या फिर एग्जिट में मार पड़ जाती। इंस्‍पेक्‍टर विजय ने आपके अड्डे पर आकर आपको हूल दे डाली, फिर लड़ाई भी की, तब आखिर में आपने बोला- आज जिंदगी में पहली बार शेरखान की शेर से टक्‍क्‍र हुई है। लड़ाई में सामने वाला जब भी मजबूत दिखा, तो आपका यही डॉयलॉग हमारे काम आया। फिर इंस्‍पेक्‍टर विजय से आपकी दोस्‍ती होने पर आपने गाया- यारी है ईमान मेरा, यार मेरी जिंदगी, को हमने खूब जीवन में उतार लिया। जवानी तक यारी दोस्‍ती के जज्‍बे को इस गीत ने जिंदा रखा।

बच्‍चों का नाम प्राण रखने से कतराते थे लोग

जंजीर फिल्‍म में भले ही हीरो अमिताभ बच्‍चन रहा हो। वो शरीफ टाइप पढने लिखने वाला आदमी लगता था। हम पिछली सीट वालों को तो आपका किरदार छू गया। जंजीर के बाद आपकी और फिल्‍में भी देखीं, आप सचमुच में जेंटलमैन विलेन थे। बड़े होने पर पता चला कि हिंदी फिल्‍मों में आपका काम और नाम कितना बड़ा है। बहुत फक्र हुआ कि हमने जंजीर के शेर खान को यूं ही पसंद नहीं किया। बात साल 2000 की है जब आपको स्‍टारडस्‍ट ने हिंदी सिनेमा में सदी का खलनायक घोषित किया। अपने शेर खान का नाम इतना बड़ा है, जानकर हैरानी कम और खुशी ज्‍यादा हुई। फिर आपके बारे में और जानने की चाह बढ़ने लगी। पता लगा कि आप तो देश की आजादी से काफी पहले के कलाकार हैं। हिंदी सिनेमा में 1940 से आपका सफर शुरू हुआ, जिसका पता हमें सदी बदलने पर लगा। तब आप बतौर हीरो फिल्‍मों में नजर आए थे। लेकिन आजादी के बाद आप विलेन बन गए। ऐसा विलेन जिसकी खलनायकी का खौफ आम लोगों में भी बैठ गया। कहते हैं पचास और साठ के दशक में लोग अपने बच्‍चों का नाम प्राण नहीं रखते थे, डरते थे कि बड़ा होकर उनका बच्‍चा भी कहीं उनकी गर्दन पर खंजर ना रख दे।

अवार्ड ही अवार्ड

आपकी फिल्‍मों की फेहरिस्‍त बहुत लंबी है, करीब साढे तीन सौ। फिर भी जो देखी हैं, उनमें जंजीर के अलावा खानदान, मधुमति, हलाकू, जिस देश में गंगा बहती है, जॉनी मेरा नाम, उपकार, डॉन, अमर अकबर एंथनी। ये आपकी ही काबीलियत थी कि आपको पद्मभूषण, दादा साहेब फाल्‍के, तीन बार फिल्‍मफेयर और लाइफटाइम्‍ अचीवमेंट से नवाजा गया।

तो हिंदी सिनेमा में प्राण नहीं होता

अंत में मुझे ये भी पता चला है कि आप देहरादून में भी रहे। दिल्‍ली के बल्‍लीमारान इलाके में एक धनी हिंदी पंजाबी परिवार में पैदा हुए। अपने पिता की नौकरी और ट्रांसफर के कारण आपकी पढ़ाई यहां हुई, उसके बाद लाहौर और देश की कई जगहों पर आपको रहने का मौका मिला। पिता आपके सिविल इंजीनियर थे तो आप भी गणित में बहुत अच्‍छे रहे और ऐकेडमिक्‍स में काफी बेहतर थे। शुक्र है आप डॉक्‍टर या इंजीनियर नहीं बने। अगर ऐसा होता तो हिंदी सिनेमा और हमारे मनोरंजन की बातों में में प्राण नहीं होता।

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