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गुरिल्ला : छापामार युद्ध के सिपाही, जिन्‍हें छह दशक से है इंसाफ का इंतजार

– भारत चीन युद्ध के बाद सीमांत इलाकों में सेना की मदद के लिए भारत सरकार ने 20 हजार के करीब उत्तराखंड के ग्रामीणों को किया था छापामार युद्ध के लिए तैयार, अब दो दशकों से न्याय के लिए सड़कों पर
Pen Point, Dehradun : बीते दिसंबर महीने के आखिरी सप्ताह प्रदेश के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने शासन स्तर पर बैठक में राज्य में गुरिल्ला प्रशिक्षकों को होमगार्ड, बेलदार, स्वरोजगार के जरिए रोजगार देने की संभावनाओं को तलाशने के शासन को निर्देश दिए थे। इससे ठीक डेढ़ साल पहले 5 अगस्त 2022 को नैनीताल हाईकोर्ट ने गुरिल्ला प्रशिक्षक विधवा व अन्य प्रशिक्षकों की ओर से दाखिल जनहित याचिका पर निर्णय देते हुए राज्य सरकार को निर्देश दिए थे कि वह मणिपुर की तर्ज पर गुरिल्ला प्रशिक्षतों को तीन महीनों के भीतर राजकीय सेवाओं में शामिल करें और आयु पूरी कर चुके लोगों को सेवानिवृति वाले लाभ दे। करीब 18 सालों से सड़कों पर उतर कर शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे सशस्त्र प्रशिक्षण पाने वाले 19600 गुरिल्ला प्रशिक्षितों को उम्मीद थी कि हाईकोर्ट के आदेश के बाद राज्य सरकार गुरिल्ला प्रशिक्षकों की सुध लेगी। लेकिन फिलहाल यह इंतजार लंबा भी होता जा रहा है। चीन सीमा से सटे राज्यों में गुरिल्ला प्रशिक्षितों का 20 फीसदी उत्तराखंड में है।

आखिर यह गुरिल्ला प्रशिक्षित कौन हैं और किस आधार पर यह पिछले दो दशकों से राज्य व केंद्र सरकार से नौकरी, पेंशन की मांग कर रहे हैं। इन सवालों का जवाब 1962 के भारत चीन युद्ध से शुरू होता है। चीन के भारत पर हमले और युद्ध के बाद भारत सरकार को अहसास हुआ कि चीन सीमा की सुरक्षा के लिए इस क्षेत्र में खुफिया तंत्र को मजबूत करना होगा। साथ ही युद्ध के हालात का सामना करने के लिये स्थानीय लोगों को प्रशिक्षित करने और सीमांत इलाकों में राष्ट्रप्रेम की भावना भरने के लिए ठोस काम किए जाने की जरूरत भी महसूस की गई।  चीन से युद्ध खत्म होने के बाद भारत सरकार ने मार्च 1963 में विशेष सुरक्षा ब्यूरो यानि स्पेशल सिक्योरिटी ब्यूरो एसएसबी का गठन किया। इस स्पेशल सिक्योरिटी ब्यूरो को जिम्मेदारी दी गई कि चीन सीमा से सटे इलाकों में ठोस काम करे। जिसके तहत सीमांत इलाकों में राष्ट्रवाद और देश प्रेम की भावना जगाने के साथ योग्य युवाओं और युवतियों को युद्ध प्रशिक्षण भी दिया जाना था। जिससे स्थानीय निवासी गुरिल्ला यानी छापामार तरीके से दुश्मन से लड़ रहे भारतीय सेना की मदद कर सके।

एसएसबी का महत्वपूर्ण कार्य यूं तो सीमा से जुड़ी खुफिया जानकारी इंटेलिजेंस ब्यूरो के विदेशी खुफिया विभाग उपलब्ध करवानी थी। आईबी का विदेशी खुफिया विभाग 1968 में रॉ यानि रिसर्च एंड एनालिसिस विंग के रूप में अलग से गठित किया गया। 1963 से एसएसबी ने चीन सीमा से सटे इलाकों में स्थानीय ग्रामीणों के साथ संबंध स्थापित करने उन्हें देश प्रेम व राष्ट्रवाद की भावना को बढ़ावा देने के साथ ही गांव के सक्षम युवक युवतियों को चुनकर हथियार चलाने, युद्ध की स्थिति में निपटने, दुश्मनों से लोहा लेने का प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया। चीन सीमा से जुड़े गांव गांव से युवक युवतियों का चयन होने लगा। पहले चरण में गांव में ही ग्रामीणों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता। उनके प्रदर्शन के आधार पर कुछ युवक युवतियों को चुनकर उन्हें अगले दौर का प्रशिक्षण दिया जाता। 45 दिनों के इस प्रशिक्षण में गुरिल्ला युद्ध तकनीकि की बारीकी सिखाई जाती। प्रशिक्षण के दौरान ग्रामीणों को मानदेय भी दिया जाता। अगले तीन दशकों तक सब कुछ इसी तरह चलता रहा। इसी दौरान गुरिल्ला युद्ध प्रशिक्षण के लिए हिमाचल प्रदेश के सराहन और उत्तराखंड के ग्लावदम में प्रशिक्षण केंद्र भी बनाए गए।

साल 2001 में स्पेशल सिक्योरिटी ब्यूरो को एसएसबी एक्ट लाकर सहस्त्र सीमा बल का नाम दिया गया। इसे गृह मंत्रालय के केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल में शामिल कर दिया गया और अब इसके जिम्मे नेपाल और भूटान सीमा की सुरक्षा है। स्पेशल सिक्योरिटी ब्यूरो के केंद्रीय सुरक्षा बल में बदल जाने के बाद गुरिल्ला प्रशिक्षण भी बंद कर दिए गए और जिन ग्रामीणों को गुरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया था उन्हें भी उनके हाल पर छोड़ दिया गया।
इस दौरान प्रदेश भर में करीब 19600 लोग गुरिल्ला प्रशिक्षण ले चुके थे। अधर में छोड़ दिए जाने के बाद इन गुरिल्ला प्रशिक्षित ग्रामीणों ने शांतिपूर्ण आंदोलन शुरू किया। मांग थी कि उन्हें उनकी योग्यता के आधार पर अन्य सरकारी विभागों में सेवायोजित किया जाए। दो दशक बीत चुके हैं लेकिन अब तक इनकी मांग पूरी नहीं हो सकी है। इस दौरान कई गुरिल्ला प्रशिक्षितों की उम्र, बीमारी या अन्य कारणों से मौत भी हो चुकी है। दिल्ली के जंतर मंतर से लेकर जिला मुख्यालयों में हर महीने सैकड़ों, हजारों की संख्या में गुरिल्ला प्रशिक्षित पहुंचकर अपनी यही मांग दोहराते हैं।

थक हार कर गुरिल्ला प्रशिक्षित 2022 में हाईकोर्ट नैनीताल की शरण में पहुंचे। टिहरी गढ़वाल निवासी अनुसुइया देवी व नौ अन्य और पिथौरागढ़ के मोहन सिंह व 29 अन्य गुरिल्लाओं व उनकी विधवाओं की याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को तीन महीने के भीतर गुरिल्ला प्रशिक्षित और मृतक गुरिल्ला प्रशिक्षित के आश्रितों को मणिपुर राज्य की तर्ज पर नौकरी व सेवानिवृति के लाभ देने के निर्देश दिए थे। हाईकोर्ट के निर्देश के बाद शासन ने गुरिल्ला प्रशिक्षितयों के सत्यापन का अभियान शुरू करने का भी दावा किया लेकिन साल भर बीतने के बाद भी स्थिति जस की तस बनी हुई है। हालांकि, बीते दिसंबर महीने के आखिरी हफ्ते में मुख्यमंत्री ने शासन को गुरिल्ला प्रशिक्षितों को होमगार्ड, पीआरडी, बेलदार, स्वरोजगार के जरिए सेवायोजित करने की संभावनाओं पर गौर करने के निर्देश दिए थे।
लेकिन, अब लगता है कि गुरिल्ला प्रशिक्षितों को सरकार पर एतबार नहीं रहा। बीते शुक्रवार को भी राज्य के अलग अलग जिलों में गुरिल्ला प्रशिक्षित फिर से दो दशकों की तरह शांतिपूर्ण तरीके से अपनी सुध लिए जाने की मांग को लेकर सड़कों पर उतरे।

एसएसबी गुरिल्ला प्रशिक्षित संगठन के केंद्रीय अध्यक्ष ब्रह्मानंद डलाकोटी बताते हैं- ‘अन्य राज्य सरकारों ने गुरिल्ला प्रशिक्षितों की सुध ली और देश के लिए अपना सर्वस्व कुर्बान करने को तैयार इन संभावित योद्धाओं को रोजगार, पेंशन दी लेकिन उत्तराखंड में अब तक यह सब फाइलों में ही दौड़ रहा है’। वह बताते हैं कि जब हाईकोर्ट ने 2022 में आदेश दिया था कि तीन महीने में रोजगार और पेंशन जैसी सुविधाएं दी जाए तो लगा शायद अब सरकार शीघ्र हमारी सुध लेगी लेकिन हाईकोर्ट के फैसले को डेढ़ साल बीत चुके हैं, लेकिन अब तक इस संबंध में सिर्फ बैठकों की ही खबरें आ रही है।

Report- Pankaj Kushwal

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