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हरदा : हारने के रेकार्ड के बाद भी चर्चाओं में रहने वाला नेता

– पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत मना रहे आज अपना 75वां जन्मदिन, पूर्व सांसद और केंद्रीय मंत्री भी रह चुके हैं
PEN POINT, DEHRADUN : उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत आज अपना 75वां जन्मदिन मना रहे हैं। ब्लॉक प्रमुख के रूप में चुनकर अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू करने वाले हरीश रावत ने अपने राजनीतिक जीवन में जीतनी बार जीत देखी उतनी ही बार हार भी देखी। मुख्यमंत्री रहते हुए दो दो विधानसभाओं से हारने के बाद भी वह कांग्रेस की धुरी बने हुए हैं। 2017 में दो विधानसभाओं से भारी मतों से हारने के बाद भी पार्टी पर उनका प्रभाव इस कदर रहा कि 2022 का विधानसभा चुनाव भी कांग्रेस ने उन्हें केंद्र में रखकर लड़ा या यूं कहें कि हरीश रावत ने खुद को मुख्यमंत्री का चेहरा खुद ही घोषित कर कांग्रेस पर हावी हो गए लेकिन 2022 में न उन्हें जीत नसीब हुई न कांग्रेस सरकार बना सकी। आज आलम यह है कि लगातार चुनाव हारने, पार्टी के भीतर विरोध के सुर उठने के बावजूद भी पार्टी के लिए उन्हें नकारना संभव नहीं हो पा रहा है तो हरीश रावत खुद को भी प्रासंगिक बनाए रखने के लिए मैदान में डटे हुए हैं।
हरीश रावत का जन्म आज के ही दिन 27 अप्रैल 1948 को अल्मोड़ा जिले के चौनलिया में हुआ था। उनके पिता का नाम राजेंद्र सिंह रावत और माता का नाम देवकी देवी था। हरीश रावत ने दो विवाह किए हैं और उनके पांच बच्चे हैं। उनकी बेटी अनुपमा रावत अभी हरिद्वार ग्रामीण से विधायक हैं। हरीश रावत कांग्रेस के वरिष्ठ नेता है। पंजाब प्रभारी के तौर पर पंजाब में राजनीतिक उथल पुथल मचा चुके हरीश रावत का राजनीतिक करियर उथल पुथल वाला रहा है। हरीश रावत ने लखनऊ विश्वविद्यालय से बीए और एलएलबी की पढ़ाई की है. पढ़ाई पूरी करने के बाद हरीश रावत ने ब्लॉक स्तर से अपनी राजनीतिक पारी शुरू की और 23 साल की उम्र में ही ब्लॉक प्रमुख बने। 1971-73 तक भिकियासैंण से ब्लॉक प्रमुख रहे। उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए कांग्रेस ने उन्हें 1977 में अल्मोड़ा विधानसभा सीट से टिकट दे दिया, वह चुनाव लड़ने के लिए लखनऊ से अल्मोड़ा पहुंचे तो पता चला कि उनका टिकट कट गया। हरीश रावत मन मसोस कर रहे गए। लेकिन इसके बाद उन्होंने संजय गांधी से नजदीकी बढ़ानी शुरू कर दी। एन वक्त पर टिकट कटने के बावजूद भी कांग्रेस के लिए समर्पित रहने के कारण वह संजय गांधी की नजरों में आए, तो इंदिरा गांधी ने उन्हें संसदीय चुनाव के लिए तैयारी में जुटने को कहा। लेकिन, सामने दिग्गज नेता मुरली मनोहर जोशी थे, 1980 में हुए आम चुनाव में उनके चुनाव प्रचार के लिए खुद इंदिरा गांधी ने अल्मोड़ा पहुंचकर हरीश रावत के लिए चुनावी सभा की। 1980 में मुरली मनोहर जोशी को शिकस्त देकर हरीश रावत पहली बार संसद पहुंचे। इसके बाद 1984 और 1989 में भी हरीश रावत ने अल्मोड़ा संसदीय सीट से जीत दर्ज की। लेकिन, 1991 में राम मंदिर लहर में वह अपनी सीट गंवा बैठे उसके बाद उनकी हार का सिलसिला शुरू हो गया। 1996, 1998 और 1999 के लोकसभा चुनाव यानि लगातार चार बार उनके हिस्से हार आई। राज्य गठन के बाद पहले विधानसभा चुनाव में बतौर कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हरीश रावत ने कांग्रेस को जीत दिलवाई तो मुख्यमंत्री के लिए वह स्वाभाविक दावेदार माने जाने लगे लेकिन कांग्रेस जब सरकार बनाने वाली थी तो मुख्यमंत्री की कुर्सी उनके नाक के नीचे से नारायण दत्त तिवारी उड़ा ले गए और उन्हें राज्यसभा भेज दिया गया। 2009 के लोकसभा चुनाव में हरिद्वार से चुनाव लड़ा और बड़ी जीत दर्ज की। उसके बाद वह मनमोहन सिंह सरकार में काबिना मंत्री भी रहे लेकिन उनका दिल उत्तराखंड की मुख्यमंत्री कुर्सी के लिए धड़कता रहा। 2002 में मुख्यमंत्री की की कुर्सी से चूके हरीश रावत ने 2012 में उत्तराखंड में कांग्रेस की जीत के बाद फिर मुख्यमंत्री पद के लिए जोर लगाया लेकिन कुर्सी विजय बहुगुणा के हिस्से चली गई लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। 2013 में केदारनाथ आपदा के बाद विजय बहुगुणा के नेतृत्व पर सवाल उठने लगे तो कांग्रेस ने राज्य में नेतृत्व परिर्वतन की ठान ली और अब हरीश रावत चूकने वाले नहीं थे, दिल्ली को अलविदा कहकर हरीश रावत ने आखिरकार उत्तराखंड की मुख्यमंत्री की कुर्सी पा ही ली। लेकिन, मुख्यमंत्री की कुर्सी उनके लिए कांटों का ताज साबित हुई। 2016 में पार्टी में मुख्यमंत्री पद से हटाए गए विजय बहुगुणा की अगुवाई में बगावत हो गई और राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया, लेकिन हरीश रावत न्यायालय से सरकार बचा लाए लेकिन तभी उनके स्टिंग ने भी उनके लिए मुसीबतें पैदा कर दी।
2017 में विधानसभा चुनाव में दो विधानसभा सीटों से हारने के बाद 2019 के आम चुनाव में हरिद्वार संसदीय सीट से उन्हें फिर हार मिली। ऐसे में माना जाने लगा कि उनकी राजनीति खत्म हो गई लेकिन 2022 विधानसभा चुनाव से ठीक पहले ही उन्होंने कांग्रेस का पूरा प्रचार अभियान ही अपने इर्द गिर्द केंद्रित कर लिया। स्वघोषित मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर वह विधानसभा चुनाव में उतरे लेकिन इस बार उनके हिस्से हार ही आई और कांग्रेस का बुरा प्रदर्शन जारी रहा। लगातार मिलती हार भी हरीश रावत के आत्मविश्वास को नहीं डिगा पा रही। उनके विरोधी कई बार उनके लिए उनके राजनीतिक जीवन के खत्म होने की कयास लगाते रहे हैं लेकिन हरीश रावत जानते हैं कि चर्चाओं में कैसा रहा जाता है तभी वह लगातार चुनाव जीतने के बावजूद भी चर्चाओं और मीडिया में किसी अन्य नेता के मुकाबले सबसे ज्यादा जगह पाते हैं।

पार्टी में द्वंद पर फिर भी सुपर बॉस
हरीश रावत भले ही अभी प्रदेश की पार्टी में कोई महत्वपूर्ण पद न संभाल रहे हो लेकिन पार्टी के भीतर सुपर बॉस वही बने हुए है। चकराता से विधायक और लगातार चुनाव जीतने के रिकार्ड बना चुके प्रीतम सिंह से उनकी अनबन जगजाहिर है। लगातार चुनाव हारने के बावजूद भी पार्टी में पद, नियुक्तियों पर हरीश रावत की छाप हमेशा दिखती रही है और अपने विरोधियों को वह अलग थलग करने के लिए भी कुख्यात रहे हैं।

 

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