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कोहली के वीडियो पर हाईकोर्ट का सरकार से सवाल, बच्चों को खेल का अधिकार क्यों नहीं ?

Pen Point, Dehradun: उत्तराखंड हाईकोर्ट ने बच्चों के खेल के अधिकार को लेकर बीते 20 सितंबर को एक अहम निर्देश जारी किया। जिसमें केंद्र के साथ ही उत्तराखंड सरकार से भी जवाब मांगा गया है। क्रिकेटर विराट कोहली के वीडियो पर हाईकोर्ट ने स्वः संज्ञान लिया। केंद्र और राज्य सरकारों को इस मामले में दो सप्ताह के भीतर जवाब दाखिल करने को कहा गया है। गौरतलब है कि शहरी इलाकों में फैल रही आबादी और लगातार निर्माण के कारण खेल मैदान सिमट रहे हैं। जिससे बच्चों को खेल के अवसरों से वंचित होना पड़ रहा है। कई शहरों में निर्माण इतना घना है कि खेल गतिविधियों के लिये दूर दूर तक जगह नहीं बची है। जबकि बच्चों को खेल के अधिकार को लेकर लंबे समय से बहस चल रही है। क्रिकेटर विराट कोहली का यह वीडियो तीन साल पहले एक खेल चौनल के विज्ञापन अभियान के हिस्से के रूप में पोस्ट किया गया था। स्वतः संज्ञान जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए, मुख्य न्यायाधीश विपिन सांघी और न्यायमूर्ति राकेश थपलियाल की पीठ ने सोमवार को कहा कि उन्हें एक सोशल मीडिया पोस्ट मिली। जिसने उन्हें प्रभावित किया और इसलिए उन्होंने वीडियो में दिखाए गए मामले को उठाना जनहित में उचित समझा। अदालत ने कहा कि वह यह समझना चाहती है कि राज्य ने क्या नीति बनाई है। वह अपने संबंधित इलाकों में लॉन, खेल के मैदानों और खुले क्षेत्रों में खेलने के बच्चों के अधिकारों से वंचित होने के मुद्दे को संबोधित करने के लिए क्या नीति बना सकती है।

क्या है वीडियो में

फिलहाल देखना यह है कि इस मामले में राज्य और केंद्र सरकार क्या जवाब देती हैं। हाईकोर्ट ने जिस वीडियो का संज्ञान लिया उसमें विराट कोहली को एक कॉलोनी के बच्चों के बीच खेलता दिखाया गया है। इस दौरान एक बच्चा शॉट खेलता है और गेंद कॉलोनी के एक घर में गेंद पहुंच जाती है। जिस पर सब बच्चे निराश हो जाते हैं कि अब उनकी गेंद नहीं मिलेगी। फिर विराट कोहली उस घर पर पहुंचकर दस्तक देते हैं, भीतर से एक महिला दरवाजा खोलती है और विराट को देख कर हैरान रह जात है। जिस पर विराट कहते हैं कि बच्चों के खेलने की जगह और मौके कम नहीं होने चाहिए। खेलते हुए इस तरह किसी ने मुझे रोक दिया होता तो जहां आज मैं हूं वहां तक कभी नहीं पहुच पाता।

संयुक्त राष्ट्र ने दी है खेल के अधिकार को मान्यता
गौरतलब है कि बच्चों के खेल के अधिकार की आवाज विभिन्न संगठन उठाते रहे हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी इस अधिकार को मान्यता दी है। 1959 में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने बच्चों के अधिकारों पर अपना घोषणापत्र जारी किया था। जिसमें खेलने के अधिकार का उल्लेख किया गया। वर्ष 1989 में बाल अधिकारों पर मसौदा पारित हुआ, खेल के अधिकार को और अधिक मजबूती मिली। जिसकी धारा 31 में बच्चों के मनोरंजन, खेलने, आराम करने आदि अधिकारों पर जोर दिया गया। संयुक्त राष्ट्र के इस मसौदे को स्वीकार करने के बावजूद भारत में इसे गंभीरता से नहीं लिया गया। वहीं उत्तराखंड समेत देश के सभी शहरों में रेजीडेंट वेल्फेयर ऐसोसिएशन या आवासीय समितियां अपने रिहायशी इलाकों में खेल मैदानों को लेकर संजीदा नजर नहीं आती हैं।

'Pen Point
देहरादून शहर इस बेतरतीब ढंग से फैल रहा है कि बच्चों के लिये खेल की जगह के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता।

स्कूलों में भी खेल मैदान की अनिवार्यता नहीं
उत्तराखंड में कई निजी स्कूल बिना खेल मैदान के ही संचालित किये जा रहे हैं। जहां पहले इसके लिये खेल मैदान की सख्त अनिवार्यता थी, वहीं अब नई शिक्षा नीति 2020 में यह अनिवार्यता नहीं रह गई है। नई शिक्षा नीति में खेल मैदानों को लेकर कहा गया है कि जगह की कमी को देखते हुए व्यवहारिक नजरिया अपनाया जाए। यानी खेल मैदान की जगह क्लास रूम और अन्य निर्माण को विस्तार दिया जा सकता है। इस तरह कॉलोनियों के साथ ही अब स्कूल भी खेल मैदान विहीन नजर आएंगे। जिसका दूसरा पहलू ये है कि बच्चों में स्क्रीन ऐडिक्सन का खतरा भी बढ़ जाएगा।

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