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जयंती विशेष : चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ…

PEN POINT, DEHRADUN : माखनलाल चतुर्वेदी की इस कविता को कौन भूल सकता है। पुष्‍प की अभिलाषा आज भी स्‍वाभिमान के स्‍थायी भाव की तरह हिंदी पट्टी के लोगों के दिलो दिमाग पर बैठी हुई है। उन्‍हें लोग प्‍यार से दादा कहते थे। हमारा मानना है कि दादा का सृजन संसार इतना विस्‍तृत है कि उसे एक लेख में लिखना सूरज को दिया दिखाना भर है। किंतु हिंदी साहित्‍य को प्रयोजनमूलक स्‍वरूप देने वाली इस महान विभूति की जयंती पर उन्‍हें स्‍मरण करना जरूरी है-

चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के शिर पर, चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ!
मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक।

जब पराधीन भारत में जब महात्‍मा गांधी की अगुवाई में स्‍वाधीनता संग्राम तेज हो रहा था, तब माखनलाल चतुर्वेदी भी इस टोली में शामिल हो गए। यूं तो वे एक शिक्षक और साहित्‍यकार थे, लेकिन जब उन्‍हें अखबार की ताकत का अहसास हुआ तो स्‍वयं की साहित्यिक मेधा को पत्रकारिता के जरिए जनचेतना जगाने में लगा दिया। उस समय में अखबारों का उपयोग जंगे आजादी के हथियार के रूप में हो रहा था। जिनमें माखनलाल चतुर्वेदी का कर्मवीर प्रमुख हथियार बन गया।

4 अप्रैल 1889 को मध्‍य प्रदेश के बेवई में जन्‍मे माखनलाल चतुर्वेदी ने स्‍कूली शिक्षा के बाद घर पर ही संस्‍कृत शिक्षा ली। उसके बाद तरुण अवस्‍था में पहुंचते ही अध्‍यापकी शुरू कर दी। स्‍वाधीनता संग्राम से प्रभावित होकर उन्‍होंने सबसे पहले प्रभा पत्रिका निकाली, जिसमें अपनी साहित्यिक रचनाओं से उन्‍होंने स्‍वाधीनता को लेकर पाठकों को खूब झकझोरा। साहित्‍य साधना के लिए उन्‍हें 1949 में देश का सबसे पहला साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार दिया गया।

साहित्‍य पर बात करें तो वे सांस्‍कृतिक स्‍वाधीनता को लेकर भी बेहद सचेत थे। उन्‍होंने एक नाटक लिखा कृष्‍णार्जुन युद्ध। जब भारतीय रंगमंच पारसी शैली के नाटकों के प्रभाव में आ रहा था। तब उन्‍होंने महाभारत के इस अनछुए प्रसंग पर बेहतरीन और विशुद्ध भारतीय नाटक लिखा। इसे पारसी शैली के मुंहतोड़ जवाब के रूप में देखा गया। ये नाटक आज साहित्‍य और रंगमंच दोनों ही विधाओं में मील का पत्‍थर बना हुआ है।

एक बड़ा कवि और पत्रकार होने के बाद भी राजनीति उन पर कभी हावी नहीं हो सकी। पत्रकारिता में निर्भीकता और निष्‍पक्षता जैसे शब्‍द तो सौ फीसदी उनके लिए बने थे। कर्मवीर के संपादन के दौरान 12 बार जेल गए, कई मुकदमे झेले, धन की कमी के चले पत्रिका कई बार बंद हुई, फिर शुरू की। अपने मिशन में जो तेवर उन्‍होंने अपनाए उसकी धार को कभी कम नहीं होने दिया। उन्‍होंने पत्रकारिता के लिए एक विद्यापीठ की स्‍थापना का सपना देखा था। जिसे 1990 में मध्‍य प्रदेश सरकार ने साकार किया और भोपाल में माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्‍व विद्यालय की स्‍थापना हुई। आज पत्रकारिता विश्‍वसनीयत पर सवाल और संकट दोनों ही हैं, ऐसे में दादा जैसी शख्सियतों का याद आना लाजिमी है।

आजादी के बाद बीस साल वे जीवित रहे। लेकिन संघर्ष का जज्‍बा उनके मन में हमेशा जिंदा रहा। पुष्‍प की अभिलाषा में जाहिर किए अपने भावों की मुताबिक ही उन्‍होंने मध्‍य प्रदेश के मुख्‍यमंत्री की कुर्सी ठुकरा दी। कांग्रेस की अग्रिम पांत में शामिल होने के कारण मध्‍य प्रदेश राज्‍य गठन के समय उनका नाम इस पद के लिए प्रस्‍तुत किया गया था। 1967 में भारतीय संसद से राजभाषा विधेयक पारति होने के बाद उन्‍होंने विरोधस्‍वरूप अपना पद्मभूषण सम्‍मान लौटा दिया था। लगातार समझौतों की खिलाफ मुख रहने की यह बात उनकी ये पंक्तियां भी व्‍यक्‍त करती हैं-

अमर राष्ट्र, उदंड राष्ट्र, उन्मुक्त राष्ट्र, यह मेरी बोली यह सुधार-समझौतों वाली मुझको भाती नहीं ठिठोली।

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