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SPECIAL किस्सा पाकिस्तान के पहले हिंदू दलित कानून मंत्री का

जन्‍मदिन विशेष- पाकिस्‍तान की संविधान सभा के अध्‍यक्ष रहे, फिर भी वहां देशद्रोही का तमगा पाया

पंकज कुशवाल, देहरादून

PEN POINT : 14 अगस्त 1947, अंग्रेज भारत से विदाई से पहले इसे दो हिस्सों में बांट गये। मुसलमानों को उनकी मांग पर पाकिस्तान मिला।आजाद भारत और नव निर्मित पाकिस्तान धर्म के आधार पर अलग अलग हो चुके थे। लेकिन दोनों देशों में एक समानता थी कि दोनों ही देशों के पहले कानून मंत्री दलित समुदाय से संबंध रखते थे और दोनों देशों के संविधान निर्माण में भी इन दोनों दलितों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। भारत में पहले कानून मंत्री के रूप में कांग्रेस से बिल्कुल अलग विचारधारा रखने वाले डॉ. भीमराव अंबेडकर को जिम्मेदारी दी गई। वहीं नव निर्मित पाकिस्तान जैसे मुस्लिम मुल्क में मोहम्मद अली जिन्ना ने पूर्वी पाकिस्तान से संबंध रखने वाले एक हिंदू दलित योगेंद्र नाथ मंडल को कानून मंत्री बनाया था। डॉ. अंबेडकर ने भारत के संविधान निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के चलते अपार सम्मान पाया। वहीं पाकिस्तान संविधान समिति की अध्यक्षता करने व कानून मंत्री रहने के बाद भी योगेंद्र नाथ मंडल ने एक देशद्रोही का तमगा पाया। थक हारकर जब वह भारत वापस लौटे तो यहां भी राजनीतिक व सामाजिक रूप से अछूत ही बने रहे और एक गुमनाम रहस्यमयी मौत के बाद वह पूरी तरह से भुला दिए गए।

शुरुआती जीवन
आज ही के दिन यानी 29 जनवरी 1904 को अब के बांग्लादेश के बारीसाल में एक गरीब किसान दलित परिवार के घर पैदा हुए थे योगेंद्र नाथ मंडल। उनके पिता खुद तो कभी स्कूल नहीं गए लेकिन शिक्षा की महत्ता को समझते थे तो उन्होंने अपने बेटे को पढ़ाने लिखाने का फैसला लिया। उनकी शिक्षा जारी रह सके इसके लिए योगेंद्र नाथ मंडल के चाचा ने भी विशेष प्रयास किए। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने बारीसाल नगर पालिका से ही अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत की। बंगाल में उस दौर में जमींदारों और गरीबों के बीच गहरा फासला था, अधिकांश संसाधनों पर जमीदारों का कब्जा था ऐसे में दलित हाशिए पर थे। समाज में जातिगत भेदभाव की जड़ें गहरी थी। नामशूद्र दलित समुदाय से संबंध रखने वाले योगेंद्र नाथ मंडल ने जातिगत भेदभाव के खिलाफ संघर्ष किया। उनका मानना था कि दलितों का भला सवर्णों के बीच रहकर नहीं हो सकता है लिहाजा वह मुसलमानों के साथ रहने के पक्षधर थे। माना जाता है कि योगेंद्र नाथ मंडल विभाजन के समर्थक नहीं थे लेकिन वह मुस्लिम लीग के नजदीकी थे। विभाजन के दौरान जिन्ना के अनुरोध पर जब योगेंद्र नाथ मंडल पाकिस्तान जाने को राजी हुए तो उनके इस फैसले को लेकर उनके मित्र रहे और देश के पहले कानून मंत्री डॉ. भीमराव अंबेडकर पर चेताया था। लेकिन, बंगाल में जमींदारों के भीषण भेदभाव को देखते हुए योगेंद्र नाथ मंडल ने पाकिस्तान जाने का फैसला लिया।

जिस पाकिस्‍तान पर भरोसा किया उसने ही देशद्रोही ठहराया
10 अगस्त 1947 को जब पाकिस्तान संविधान सभा की पहली बैठक में हुई तो इस सभा का कार्यकारी अध्यक्ष व पहले स्पीकर के तौर पर योगेंद्र नाथ मंडल को चुना गया। अपने पहले भाषण में मंडल ने पाकिस्तान को चुनने की वजह बताते हुए कहा कि मुस्लिम समुदाय ने भारत में अल्पसंख्यक के रूप में अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया है ऐसे में वह अपने देश के अल्पसंख्यकों की पीड़ा समझते हुए उनके साथ न्याय करेगा और उनके प्रति उदारता दिखाएगा।
लेकिन, योगेंद्र नाथ मंडल का विश्वास अगले तीन सालों में बुरी तरह से ध्वस्त हो गया। धर्म के नाम पर बने पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा की बात सिर्फ जिन्ना के पहले भाषण तक ही सीमित रहे। धार्मिक आधार पर भेदभाव व उपेक्षा से आहत होकर 8 अक्टूबर 1950 को योगेंद्र नाथ मंडल ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। पाकिस्तान बनने के बाद पूर्वी पाकिस्तान में दलितों व हिंदुओं के खिलाफ हिंसा, महिलाओं का अपहरण, जबरन धर्मांतरण, दुष्कर्म की घटनाओं से परेशान योगेंद्र नाथ मंडल पाकिस्तान सरकार से बार बार मांग करते रहे कि धार्मिक रूप से अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए लेकिन पाकिस्तान में यह बदस्तूर जारी रहा। लिहाजा, हताश होकर उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया। इस इस्तीफे के बाद उनके लिए पाकिस्तान में रहना भी मुश्किल हो गया। वह पाकिस्तान में देशद्रोही कहाए जाने लगे।

भारत की राजनीति में नहीं मिली जगह
हताश होकर वह इस्तीफे के बाद साल 1950 में ही वह पाकिस्तान छोड़कर बंगाल में आ बसे। लेकिन, अब नया भारत उन्हें स्वीकार करने की स्थिति नहीं था। पाकिस्तान को चुनने को लेकर उनके अपने लोगों के निशाने पर भी वह रहे। लिहाजा, वह भारत में पूरी तरह से राजनीतिक अछूत बनकर रह गये। वह बेहद दयनीय स्थिति में दलितों की एक झुग्गी में रहने लगे। अपने निधन 1968 तक वह इसी झुग्गी में रहे। हालांकि, इस दौरान उन्होंने राजनीतिक वापसी के प्रयास भी किए। उन्होंने चार बार चुनावी मैदान में भी उतरे लेकिन पाकिस्तान को चुनने का जो दाग उनकी प्रतिष्ठा पर लगा चुका था उसने उनका पीछा उनकी मौत के बाद भी नहीं छोड़ा। चुनाव में हर बार उनकी जमानत जब्त हो जाती।

दलित मुस्लिम एकता का एक असफल प्रयोग माने गये
योगेंद्र नाथ मंडल का जीवन दलित मुस्लिम एकता का एक असफल प्रयोग भी माना जाता है। हिंदुओं के बीच रहकर जातिगत भेदभाव से क्षुब्ध होकर उन्हें मुस्लिमों के बीच रहना मुफीद लगा। उन्हें लगता था कि मुस्लिम हिंदुओं की जातीय व्यवस्था की तरह उन्हें अछूत नहीं मांनेंगे और बराबरी का सम्मान देंगे। शुरूआती दौर में जिन्ना ने भी पूरी कोशिश की थी कि दलितों को मुस्लिमों से जोड़ा जाए इसके लिए उन्होंने विशेष प्रयास भी किए। लेकिन, जिन्ना की मौत के बाद योगेंद्र नाथ मंडल की यह धारणा भी ध्वस्त हो गई कि मुस्लिम दलितों को हिंदुओं से इतर देखकर सम्मान देंगे।

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