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लैंसडोन : शहादत के 61 साल बाद भी जिंदा वीर के नाम से जाना जाएगा सैन्य नगर

– सैन्य छावनी क्षेत्र लैंसडोन को अब बाबा जसवंत सिंह रावत नगर किए जाने का कैंट ने पारित किया प्रस्ताव
PEN POINT, DEHRADUN : पौड़ी जनपद का अंग्रेजी शासनकाल से सैन्य छावनी के रूप में प्रसिद्ध रहा लैंसडोन अब चीन युद्ध के दौरान शहादत देने के बाद भी 61 साल से ‘जीवित‘ महावीर चक्र विजेता बाबा जसवंत सिंह रावत के नाम से जाना जाएगा। इसके लिए लैंसडोन कैंट की ओर से बीते गुरूवार को प्रस्ताव भी पारित किया गया जिसे रक्षा मंत्रालय को भेजा जाएगा। भारत चीन युद्ध के दौरान नूरांग के युद्ध में तीन दिनों तक भूखे प्यासे 300 चीनी सैनिकों को हलाक कर चीनी सेना से अरूणाचल प्रदेश बचाने वाले वीर शहीद जसवंत सिंह रावत के नाम से लैंसडोन नगर का नाम रखने का प्रस्ताव भले ही नया हो लेकिन छह दशकों से वीरता का पर्याय बने जसवंत सिंह रावत किसी पहचान के मोहताज नहीं है।
उत्तराखंड यूं तो वीर शहीदों की भूमि है, देश की सुरक्षा के लिए सर्वोच्च बलिदान देने वालों की यहां लंबी सूची है। लेकिन, एक नाम जो पिछले छह दशकों में सबसे ज्यादा चर्चित हुआ है वह है बाबा जसवंत सिंह रावत, भारत चीन युद्ध के छह दशकों के बाद भी ‘जीवित’ जवान का तमगा पाए जसवंत सिंह रावत के बारे में हर उत्तराखंडवासी को जरूर जानना चाहिए। 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध में 72 घंटे तक भूखे प्यासे रहकर न सिर्फ चीनी सैनिकों को भारत में घुसने से रोके रखा बल्कि 300 चीनी सैनिकों को अकेले मौत के घाट उतारने वाले राइफलमैन जसवंत सिंह रावत को आज भी उनके अदम्य साहस के लिए जाना जाता है।
19 अगस्त, 1941 को उत्तराखंड के पौड़ी-गढ़वाल जिले के बादयूं में जसवंत सिंह रावत का जन्म हुआ था। 17 साल की उम्र में ही वह पहली बार सेना में भर्ती होने के लिए पहुंचे लेकिन कुछ महीने कम उम्र होने की वजह से उस वक्त वह सेना का हिस्सा नहीं बन सके। हालांकि, उन्होंने सेना में जाने का अपना जुनून नहीं छोड़ा और वक्त का इंतजार करते हुए अपनी तैयारियों में जुटे रहे। 19 अगस्त 1960 को जसवंत को सेना में बतौर राइफल मैन शामिल कर लिया गया। 14 सितंबर, 1961 को प्रशिक्षण पूरा कर वह सेना का हिस्सा बने। प्रशिक्षण पूरा कर ड्यूटी ज्वाइन किए साल भर भी नहीं हुआ था कि 17 नवंबर, 1962 को चीन की सेना ने अरुणाचल प्रदेश पर कब्जा करने के उद्देश्य से हमला कर दिया।
17 नवंबर 1962 की सुबह के करीब पांच बजे चीनी सैनिकों ने सेला टॉप के नजदीक धावा बोला, जहां मौके पर तैनात गढ़वाल राइफल्स की डेल्टा कंपनी ने उनका सामना किया। जसवंत सिंह रावत इसी कंपनी का हिस्सा थे। 17 नवंबर 1962 को शुरू हुई यह लड़ाई अगले 72 घंटों तक लगातार जारी रही।
भारी साजो सामान और आधुनिक हथियारों के साथ आई चीनी सेना भारतीय सेना पर हावी हो रही थी। इसलिए भारतीय सेना ने गढ़वाल यूनिट की चौथी बटालियन को वापस बुला लिया। लेकिन इसमें शामिल जसवंत सिंह, लांस नायक त्रिलोकी सिंह नेगी और गोपाल गुसाईं ने मौके से वापिस आने से मना कर दिया। तीनों सैनिक एक बंकर से गोलीबारी कर रही चीनी मशीनगन को अपने कब्जे में लेना चाहते थे।
यह तीनों जवान चट्टानों और झाड़ियों में छिपकर भारी गोलीबारी से बचते हुए चीनी सेना के बंकर के करीब जा पहुंचे और महज 15 यार्ड की दूरी से हैंड ग्रेनेड फेंकते हुए दुश्मन सेना के कई सैनिकों को मारकर मशीनगन छीन लाए। चीनी सेना के हाथों मशीनगन छीनने के बाद इस जंग की दिशा ही बदल गई, अब यह तीनों सैनिक चीनी सेना पर हावी थे। एक मशीनगन को छीनकर तीनों सैनिकों ने चीनी सेना को इस कदर हतोत्साहित कर दिया कि अरूणाचल प्रदेश को जीतने का ख्वाब सजा कर आई चीनी सेना का यह सपना पूरा नहीं हो सका। दोनों तरफ से चल रही गोलीबारी में त्रिलोकी और गोपाल शहीद हो गए। फिर भी जसवंत सिंह डटे रहे। दावा किया जाता है कि चीनी सैनिकों ने फिर जसवंत सिंह रावत को चारों तरफ से घेरकर उनका सिर काटकर साथ ले गए। लेकिन, तीन दिनों तक जसवंत सिंह रावत और उसके दोनों साथ चीनी सैनिकों को इतना नुकसान पहुंचा चुके थे कि तीसरे दिन यानि 20 नवंबर 1962 को चीन को युद्ध विराम की घोषणा करनी पड़ी। मशीनगन हथियाने के बाद जसवंत सिंह ने करीब तीन दिन तक चीनी सैनिकों का सामना करते हुए 300 चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था।
राइफलमैन जसवंत सिंह के अदम्य साहस का ही नतीजा है कि अरूणाचल प्रदेश आज भी भारत का अभिन्न हिस्सा बना हुआ है। 1962 में भारत चीन युद्ध में अपना सर्वोच्च बलिदान देने वाले जसवंत सिंह रावत इकलौते ऐसे भारतीय सैनिक है जिन्हें आज भी जिंदा मानकर भारतीय सेना प्रमोशन देती रही। वह शहादत के बाद भी जीवित माने गए और 1962 के युद्ध के दौरान उनकी वीरता के लिए महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। उनकी शहादत के बाद उन्हें राइफलमेन से नायक, फिर कैप्टन और उसके बाद मेजर जनरल का प्रमोशन दिया गया। वह भारतीय सेना के इतिहास के पहले ऐसे सैनिक थे जिन्हें शहादत के बाद प्रमोशन व पूरा वेतन मिलता रहा।
आज भी तैनात है ड्यूटी है
जिस जगह जसवंत सिंह रावत शहीद हुए उस जगह को आज जसवंत गढ़ के नाम से जाना जाता है। अरूणाचल प्रदेश के स्थानीय निवासी आज भी जसवंत सिंह रावत को शहीद नहीं मानते बल्कि उनका मानना है कि पिछले 61 सालों से जसवंत सिंह आज भी अपनी ड्यूटी पर तैनात है। उनका क्षेत्र में आज भी सम्मान है और इसलिए उन्हें बाबा जसवंत सिंह रावत के नाम से भी संबोधित किया जाता है। सेना के जवान भी उनके शहादत स्थल पर उन्हें जीवित मानकर उनके लिए राशन व अन्य जरूरी सामग्री रख जाते हैं तो स्थानीय लोग उन्हें देवतुल्य मानते हैं।

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