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आइए याद करते हैं प्रिय प्रवास के महान रचनाकार हरिऔध को

PEN POINT : हिन्दी साहित्य में रुचि रखने वाले लोगों के लिए यह बेहद अच्छा मौका है। आज हिन्दी के प्रख्यात कवि और साहित्यकार आयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की जयंती का अवसर है। ऐसे में उनकी सबसे प्रसिद्ध महाकाव्य रचना का जिक्र होना जरूरी हो जाता है। हम बात कर रहे हैं उनकी विख्यात रचना प्रियप्रवास और उनकी जीवन यात्रा से जुड़े हुए कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों के बारे में।

शिक्षक, संपादक, कवि, साहित्यकार अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की आज जयंती है। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के निजामाबाद में 1865 में हुआ था। पिता का नाम पंडित भोलानाथ उपाध्याय और मां का नाम रुक्मणि देवी था। सिख धर्म अपनाने के बाद भोलानाथ उपाध्याय भोला सिंह हो गए। हरिऔध को शुरुआती पांच साल की उम्र में इनके चाचा ने फारसी पढ़ाना शुरू कर दिया था। उस दौर के लिहाज से उनकी पढ़ाई-लिखाई घर पर ही हुई, उन्होंने उर्दू, संस्कृत, फारसी, बांग्ला और अंग्रेजी भाषा और साहित्य का अध्ययन किया था। रोजगार के तौर पर उन्होंने मध्य विद्यालय में प्रधानाध्यापक के रूप में अपनी सेवाएं देनी शुरू की इसके बाद उन्होंने कानूनगो के रूप में भी नौकरी की। इसके बाद फिर उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अवैतनिक प्राध्यापक के रूप में अपनी सेवा दी।

इसके साथ ही हरिऔध लेखन कार्य में भी जुटे रहे जिसमें उन्हें खड़ी बोली को काव्य-भाषा के रूप में स्थापित करने वाले प्रमुख कवियों के रूप में प्रतिष्ठा मिली। इस क्रम में उनकी प्रसिद्ध रचना ‘प्रिय प्रवास’ को उनके साहित्य प्रशंसक खड़ी बोली का पहला महाकाव्य मानते हैं। यही रचना उनकी ख्याति का सबसे बड़ा आधार मानी जाती है।

काव्य के साथ ही उन्होंने गद्य विधा में भी बड़ा योगदान दिया। लेखन के शुरूआती दौर में नाटक और उपन्यास की तरफ उनका रुख रहा, लेकिन उनकी प्रतिभा का विकास मूलतः कवि के तौर पर ज्यादा माना जाता है। उनका का नाम द्विवेदी युग के प्रख्यात कवि के साथ उपन्यासकार आलोचक व इतिहासकार के रूप में भी भी शामिल है। साहित्य संसार से गहरे जुड़े लोगों का मानना है कि पण्डित श्रीधर पाठक के बाद हरिऔध ही हैं जिन्होंने खङी बोली में सरस व मधुर रचनाएँ की।

हरिऔध को कवि के तौर पर सबसे ज्यादा प्रसिद्धि उनके प्रबन्ध काव्य प्रियप्रवास की वजह से मिली। इससे पहले की काव्य रचनाएं कविता के क्षेत्र में उनके प्रयोग के रूप में देखी जाती हैं। इन कृतियों में प्रेम और श्रृंगार के विभिन्न पक्षों को लेकर काव्य रचना के लिए किए गए प्रयोग की तस्बीर देखने को मिलती है।

प्रियप्रवास को इसी क्रम में लेना चाहिए। प्रियप्रवास के बाद की कृतियों में चोखे चौपदे तथा वैदेही बनवास उल्लेखनीय मानी जाती हैं। चोखे चौपदे लोकभाषा के प्रयोग के नजरिए से जरूरी जान पड़ती हैं। प्रियप्रवास की रचना संस्कृत की कोमल कान्त पदावली में हुई है और उसमें तत्सम शब्दों की अधिकता देखने को मिलती है। चोखे चौपदे में मुहावरों के अधिकता और लोकभाषा के इस्तेमाल से कवि ने यह साबित किय कि वह अपनी सीधी सादी जबान को भुले नहीं हैं। वैदेही बनवास रचना से एक और प्रबन्ध सृष्टि का प्रयत्न किया गया है। इनकी सबसे बड़ी विशेषता रही है कि इन्होंने हिन्दी साहित्य में खड़ी बोली, उर्दू के मुहावरे, ब्रजभाषा, कठिन-सरल सब प्रकार की कविताएं लिखने का काम किया है।

यही कारण है कि इनके साहित्य संसार में दिए गये योगदान के चलते इन्हें यथोचित सम्मान मिला। 1924 में इन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रधान पद को सुशोभित किया था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने इनकी साहित्य सेवाओं का मूल्यांकन करते हुए इन्हें हिन्दी के अवैतनिक अध्यापक का पद प्रदान किया। एक अमेरिकन एनसाइक्लोपीडिया ने इनका परिचय प्रकाशित करते हुए इन्हें विश्व के साहित्य सेवियों की पंक्ति प्रदान की। खड़ी बोली काव्य के विकास में इनका योगदान निश्चित रूप से बहुत महत्त्वपूर्ण है। यदि प्रियप्रवास खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है तो हरिऔध खड़ी बोली के प्रथम महाकवि कहे जाते हैं।

प्रियप्रवास की रचना हरिऔध ने 1914 में की। कुछ साहित्य विशेषज्ञों ने माना है कि यह हिन्दी का प्रथम महाकाव्य है। इसकी कथावस्तु में श्रीकृष्ण के मथुरागमन, राधा गोपियों की विरह गाथा, पवनदूती प्रसंग, यशोदा की व्यथा, उद्धव-गोपी संवाद, राधा-उद्धव संवाद आदि का मार्मिक ढंग से प्रंसंग पढ़ने को मिलता है।

इसमें राधा और कृष्ण को सामान्य नायक-नायिका के स्तर से ऊपर उठाकर विश्वसेवी तथा विश्वप्रेमी के रूप में चित्रित करने में हरिऔध जी ने अपनी मौलिकता का परिचय दिया है।श्रीकृष्ण के जीवन से जुङी अनेक घटनाएँ बकासुर, पूतना वध, शकटासुर, कालीनाग, कंस, जरासन्ध आदि का वर्णन यथास्थान हुआ है। प्रियप्रवास की राधा केवल विरहिणी ही नहीं बल्कि वह लोक व समाज सेविका की भूमिका भी निभाती हैं।

इसी प्रकार कृष्ण लोकनायक की भूमिका निभाते दिखते हैं। इस महाकाव्य में आध्यात्मिक एवं लौकिक प्रेम को पेश करते हुए जनपक्ष और लोक-कल्याण को उभारने की कोशिस की गई है। प्रिय प्रवास में कुद 17 संसर्ग शामिल हैं।

खड़ी बोली का दूसरा नाम कौरवी है बल्कि और भी खड़ी बोली का मूल नाम ही कौरवी है। जब इसे मानक हिंदी के रूप में अपनाया गया, तब इसे खड़ी बोली नाम दिया गया। खड़ी बोली दिल्ली, मेरठ, मुरादाबाद, रामपुर, सहारनपुर, देहरादून, अंबाला जैसे जिलों में बोली जाती है।

काव्य रचनाएं: प्रियप्रवास, वैदेही वनवास, काव्योपवन, रसकलश, बोलचाल, चोखे चौपदे, चुभते चौपदे, पारिजात, कल्पलता, मर्मस्पर्श, पवित्र पर्व, दिव्य दोहावली, हरिऔध सतसई
उपन्यास: ठेठ हिंदी का ठाट, अधखिला फूल
नाटकः रुक्मिणी परिणय, प्रद्युम्न विजय व्यायोग
ललित निबंध: संदर्भ सर्वस्व
आत्मकथात्मक रचना: इतिवृत्त
आलोचना: हिंदी भाषा और साहित्य का विकास, विभूतिमती ब्रजभाषा
संपादन: कबीर वचनावली
वह दो बार हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति रहे थे। उन्हें ‘प्रिय प्रवास’ के लिए मंगला प्रसाद पारितोषिक से सम्मानित किया गया था।

मृत्यु
16 मार्च, 1947 को अयोध्यासिंह उपाध्याय श्हरिऔधश् ने इस दुनिया से लगभग 76 वर्ष की आयु में विदा ली।

कहें क्या बात आंखों की, चाल चलती हैं मनमानी
सदा पानी में डूबी रह, नहीं रह सकती हैं पानी
लगन है रोग या जलन, किसी को कब यह बतलाया
जल भरा रहता है उनमें, पर उन्हें प्यासी ही पाया।

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