महज सवा सौ साल पुराना है भारत में सामाजिक न्याय का क्रियान्वयन!
– हजारों सालों की संस्कृति पर गर्व करते हुए सामाजिक न्याय की अवधारणा को सिरे से खारिज किया जाता रहा
– छत्रपति शाहूजी महाराज ने सवा सौ साल पहले आरक्षण की व्यवस्था लागू कर साकार की सामाजिक न्याय की अवधारणा
PEN POINT DEHRADOON :
आज का दिन दुनिया भर में सामाजिक न्याय दिवस के रूप में मनाया जाता है। आज भी दुनिया के तानाशाहों के सरपरस्ती में जी रहे करोड़ों नागरिकों के लिए सामाजिक न्याय ख्वाब बना हुआ है। जबकि लोकतांत्रिक देशों ने सामाजिक न्याय की अवधारणा को न बल्कि साकार किया बल्कि सदियों से वंचित शोषित समुदायों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए भी बड़े कदम उठाए है। भारत में दलित वंचितों को आरक्षण की व्यवस्था दुनिया में सामाजिक न्याय का सबसे बड़ा उदाहरण माना जाता है। हजारों वर्षों तक जातियों के आधार पर बंटे समाज में दलितों वंचितों को शिक्षा, रोजगार, सम्मान जैसे बुनियादी अधिकारों से वंचित रखा गया लेकिन 19वीं सदी के उत्तर्राद्ध में चीजों में तेजी से बदलाव होना शुरू हुआ जिसने सामाजिक न्याय की बुनियाद रखी और बराबरी की बुलंद इमारत तैयार की।
करीब 140 साल पहले जब देश में अंग्रेजों का शासन था तो प्राथमिक शिक्षा को लेकर हंटर कमीशन का गठन हुआ था। तब महान सामाजिक सुधारक ज्योतिराव फुले ने वंचित तबके के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा की वकालत की थी।
हमेशा से जातीय बंधन में बंधे भारत में पहली बार छत्रपति शाहूजी महाराज ने समाज के सभी तबकों को बराबरी का हक देने के लिए आरक्षण की व्यवस्था शुरू की। साथ ही सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों को निशुल्क शिक्षा, रहने के लिए हॉस्टल व्यवस्था की गई। 1901-02 में कोल्हापुर रियासत के छत्रपति शाहूजी महाराज वर्ग विहीन समाज के पक्षधर थे। 1902 की अधिसूचना में पिछड़े/वंचित समुदाय के लिए नौकरियों में 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई। छत्रपति शाहू जी महाराज के समतामूलक समाज के लिए उठाया यह कदम अंग्रेजों को भी रास आया और 1908 में अंग्रेजों ने भी जिन जातियों की प्रशासन में कम हिस्सेदारी थी, उनकी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए प्रशासनिक व्यवस्था में कुछ प्रविधान किए थे।
संविधान की भूमिका
देश की आजादी के दौरान जब देश को अपना संविधान बनाने का मौका मिला तो आजाद हो रहे इस देश के नेताओं ने देश में सभी वर्गों को बराबरी देने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की। अनुसूचित जाति और जनजातियों को सरकारी नौकरियों, शिक्षा में आरक्षण की व्यवस्था की।
मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी सरकार ने सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ों की पहचान के लिए 1979 में संसद सदस्य बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता में आयोग गठित किया। सीटों का आरक्षण और कोटे का निर्धारण भी आयोग का उद्देश्य था। आयोग के पास अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) में शामिल उप-जातियों का वास्तविक आंकड़ा नहीं था। आयोग ने 1930 के जनसंख्या आंकड़ों के आधार पर 1,257 समुदायों को पिछड़ा घोषित करते हुए उनकी जनसंख्या 52 प्रतिशत निर्धारित की। 1980 में कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी शामिल करते हुए कोटे की व्यवस्था को 22 प्रतिशत से 49.5 प्रतिशत तक करने का सुझाव दिया। इसमें ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत का प्रविधान किया गया। 1990 में वीपी सिंह की सरकार ने इसके सुझावों को लागू किया। सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को वैधानिक ठहराते हुए व्यवस्था दी कि किसी भी स्थिति में आरक्षण का दायरा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए।
दुनिया के कई देशों में आरक्षण की व्यवस्था
सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के कई विकसित और विकासशील देशों में भी पिछड़ों, शोषित वर्गों को आरक्षण देकर उन्हें समानता के अधिकार उपलब्ध करवाने का प्रावधान है। यह भारत के आरक्षण व्यवस्था से मिलती जुलती व्यवस्थाएं है। समाज के हाशिए पर धकेल दिए गए समुदायों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए भारत के इस सामाजिक न्याय की व्यवस्था की तरह इन देशों में भी आरक्षण व्यवस्था
अमेरिका– अफरर्मेटिव एक्शन के तहत नस्लीय भेदभाव झेलने वाले अश्वेतों को बराबर प्रतिनिधित्व के लिए कुछ स्थानों पर अतिरिक्त नंबर दिए जाते हैं। वहां की मीडिया, फिल्मों में भी अश्वेत कलाकारों का आरक्षण निर्धारित है।
कनाडा– यहां समान रोजगार का प्रविधान है। इसके तहत लाभ वहां के सामान्य तथा अल्पसंख्यकों को भी होता है। भारत से गए सिख इसके उदाहरण हैं।
स्वीडन– यहां जनरल अफर्मेटिव एक्शन के तहत आरक्षण जैसी व्यवस्था की गई है।
ब्राजील– यहां आरक्षण को वेस्टीबुलर के नाम से जाना जाता है। इसके तहत ब्राजील के संघीय विश्वविद्यालयों में 50 प्रतिशत सीटें उन छात्रों के लिए आरक्षित हैं, जो अफ्रीकी या मूल निवासी गरीब परिवारों से हैं। हर राज्य में काले, मिश्रित नस्लीय और मूल निवासी छात्रों के लिए आरक्षित सीटें उस राज्य की नस्लीय जनसंख्या के आधार पर होती हैं।
दक्षिण अफ्रीका– काले और गोरे के लिए समान रोजगार की व्यवस्था है। अफ्रीका की राष्ट्रीय टीम में गोरे खिलाड़ियों की संख्या पांच से अधिक नहीं होने की व्यवस्था है।
मलेशिया– यहां राष्ट्रीय नीतियों के तहत स्थानीय भूमिपुत्र आबादी को सस्ते घर और सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता मिलती है।
मौकों के बावजूद नहीं मिल सका पूरा प्रतिनिधित्व
देश में हाशिए के समुदायों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था आबादी के अनुपात में रखी गई लेकिन इसके बावजूद दलितों वंचितों को उनका पूरा प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका। 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में 16.63 फीसदी अनुसूचित जाति और 8.6 फीसदी अनुसूचित जनजाति के लोग हैं. अभी एससी को 15 प्रतिशत और एसटी को 7.5 आरक्षण मिला हुआ है। केंद्र सरकार की नौकरियों की बात करें तो उनकी भागीदारी कुल नौकरियों के 17.3 फीसदी हिस्से पर है। ग्रुप ए में 12.06 फीसदी, बी में 15.73 फीसदी और सी में 17.53 फीसदी दलितों की हिस्सेदारी है।
एससी/एसटी और ओबीसी आरक्षण के बावजूद सरकारी नौकरियों में सामान्य वर्ग के लोगों की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है। कार्मिक विभाग के आंकड़ों की मानें तो आज भी सरकारी नौकरियों में सामान्य वर्ग की भागीदारी 57.79 फीसदी है। वहीं बड़े पदों की बात करें तो ये आंकड़ा 74.48 प्रतिशत तक पहुंच जाता है।
कार्मिक विभाग की एक रिपोर्ट बताती है कि ग्रुप ए में सिर्फ 8.37 परसेंट लोग ही ओबीसी समुदाय से है। जबकि इसमें पांच हजार से अधिक जातियां हैं। ग्रुप बी में 10.01 और सी में प्रतिनिधित्व 17.98 फीसदी ही है। एनएसएसओ (2011-12) की रिपोर्ट बताती है कि ओबीसी के 36.6 फीसदी लोग खेती करते हैं।