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मनीष ने नफ़रत के बाजार में नाई की दुकान खोली, दिया स्‍वावलंबन का संदेश

Pen Point, Dehradun : आज से ठीक एक महीने पहले पुरोला में समुदाय विशेष के खिलाफ रैलियां और जुलूस हो रहे थे। समुदाय विशेष यानी मुस्लिम व्‍यापारियों की दुकानें बंद कराई जा रही थी। कथित तौर पर एक मुस्लिम युवक व उसके हिंदू साथी द्वारा नाबालिग लड़की को गुमराह कर भगाए जाने की घटना के बाद यह आग भड़की थी। पुरोला समेत उत्‍तरकाशी जिला मुख्‍यालय, बड़कोट, डुण्‍डा और चिन्‍यालीसौड़ जैसे कस्‍बों में ये विरोध प्रदर्शन हुए। हिंदूवादी संगठनों ने बाकायदा ऐलान कर उग्र आंदोलन की चेतावनी दी थी। लिहाजा कई मुस्लिम कारोबारी अपनी दुकानें बंद कर पलायन करने लगे थे। इसी बीच नफरत का बाजार और मोहब्‍बत की दुकान का एक राजनीतिक जुमला उछला। जिस पर इन दिनों खूब बयानबाजियां भी हो रही हैं।

जब राजनीतिक पार्टियों को हर ओर नफरत का बाजार नजर आ रहा था, बड़कोट बाजार में एक खास बात हुई। जब मुस्लिम कारोबारियों की दुकानें बंद हुई तो उनमें सैलून वाले भी शामिल थे। पहाड़ों में हुनर से जुड़े इस काम में मुस्लिम समुदाय की 90 फीसदी भागीदारी है। जाहिर है कि विकसित होते शहरों और कस्‍बों में सैलून के लिए लोगों की निर्भरता इसी समुदाय पर हो गई है। ऐसे में गडोली गांव के मनीष हिमानी ने बड़कोट बाजार की आईटीआई रोड पर सैलून खोल दिया। किराये की यह दुकान उन्‍हें आसानी से मिल गई। जिसकी वजह थी बाहरी कारोबारियों का पलायन। अभी उनका सैलून खुले दो हफ्ते ही हुए हैं। यहां हेयर कटिंग, शेविंग, फेशियल मसाज, ड्रायर और कलरिंग जैसे सैलून से जुड़ा हर काम होता है। इलाके में इसे लोकल नाई की दुकान कहा जा रहा है।

मनीष बताते हैं कि “दरअसल, पहाड़ के ग्रामीण इलाकों में परंपरागत रूप से सैलून का काम करने वाले कुछ लोग अब भी हैं। जिनके लिये शहरों और कस्‍बों में अभी जगह नहीं बन सकी है। हमारी भी गडोली में पुरानी दुकान है जहां मैंने काम सीखा। काम के लिहाज से बड़कोट बड़ा बाजार है, अब यहां मुझे मौका मिला है तो मैंने अपने काम को विस्‍तार दे दिया”।

मनीष के साथ छोटा भाई प्रमोद भी सैलून पर हाथ बंटाता है। इसके अलावा राकेश नाम का एक कारीगर और रखा है। यानी काम अच्‍छा चल रहा है। रोजाना सुबह साढ़़े सात बजे उनके दिन की शुरूआत होती है और रात साढ़े दस या ग्‍यारह बजे तक दुकान में ही डटे रहते हैं।

इस हुनर को लेकर मनीष पहाड़ के युवाओं की सोच को लेकर निराश हैं। बकौल मनीष, मैंने कई लड़कों को काम सीखने के लिए कहा, लेकिन हैरानी की बात है कि अधिकांश लड़के इस काम को कमतर आंकते हैं। जबकि मेरी नजर में जिसने यह हुनर सीख लिया, उसके लिये काम की कमी नहीं है। अगर मुनाफे की बात करें तो लागत का चार गुना मुनाफा देने वाले यह काम आजीविका का बहुत बेहतर जरिया है।

बड़कोट के पत्रकार सुनील थपलियाल बताते हैं कि “ऐसे स्‍थानीय युवाओं को शहरों और कस्‍बों में मौके मिलने चाहिए। बाहर से आए लोग धीरे धीरे जिस मजबूती से यहां के कारोबार पर काबिज हुए हैं, उससे स्‍थानीय लोगों के लिए अवसर कम हो गए। बात केवल हिुदू मुस्लिम की नहीं है, दरअसल पहाड़ों में लंबे समय से कारोबार में भागीदारी को लेकर एक द्वंद चलता रहा है।”

स्‍थानीय व्‍यापारी शैलेंद्र रतूड़ी के मुताबिक जब पुरोला जैसे कांड होते हैं, तब मुद्दा भले ही अलग हो, उसके पीछे स्‍थानीय युवाओं के रोजगार की समस्‍या भी जुड़ी होती है। जिसमें वो बाहरी तत्‍वों का विरोध इसीलिये करते हैं ताकि उनके लिये रोजगार के मौके बन सकें।

प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे बड़कोट के युवा मयंक रावत कहते हैं कि रोजगार का ही मसला सबसे बड़ा है, ना कि हिंदू मुस्लिम का। हम देख रहे हैं कि मुस्लिम समुदाय पर हमारी बड़ी निर्भरता है, सैलून से लेकर टेलरिंग, मैकेनिक और स्‍क्रैप समेत अन्‍य छोटे बड़े कारोबार तके उनकी भागीदारी सबसे ज्‍यादा है। बाजार की समझ होने के कारण वे यहां सफल भी हो रहे हैं, अपने युवाओं को ऐसे रोजगारों के लिये तैयार किया जाए तो, डेमोग्राफी बदलने जैसी बातें सामने आएंगी ही नहीं।

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