देहरादून के रास्ते हुई थी नेहरू की राजनीति में एंट्री
– देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू की आज जयंती, उत्तराखंड से खासा जुड़ाव रहा जवाहर लाल नेहरू का, मसूरी को मानते थे दूसरा घर
– अपने निधन से कुछ घंटे पहले भी देहरादून में ही थे देश के पहले प्रधानमंत्री, तबीयत बिगड़ने पर भेजे गए दिल्ली
PEN POINT, DEHRADUN : आज देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू की जयंती है। 14 नवंबर 1889 को पैदा हुए जवाहर लाल नेहरू संपन्न परिवार से ताल्लुक रखते थे। 16 साल की उम्र में अपने पिता और तब के विख्यात वकील मोतीलाल नेहरू के साथ पहली बार देहरादून आए जवाहर लाल नेहरू को दून घाटी और मसूरी कुछ यूं भाई कि अपने निधन तक वह कई बार यहां आए। यहां तक कि दून स्थित कारागार की कोठरी में उन्होंने अपनी प्रसिद्ध किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया के कुछ अंश भी लिखे। विदेश से पढ़कर आए ‘एलिट’ नेहरू ने देहरादून से ही राजनीति में प्रवेश किया था और अपनी आखिरी सांस लेने के कुछ घंटों पहले तक भी वह देहरादून में ही स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे।
पं. जवाहर लाल नेहरू और दून मसूरी का लंबा नाता रहा है। पहली बार वह अपने पिता के साथ 1906 में मसूरी पहुंचे थे। वह अपने पिता मोतीलाल नेहरू और माता स्वरूप रानी के साथ सबसे पहले 1906 में मसूरी तब आये थे जब वह 16 साल के थे। उसके बाद पढ़ाई पूरी कर जब नेहरू ने महात्मा गांधी से प्रभावित होकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बनने का फैसला लिया। पंडित जवाहर लाल नेहरू की राजनीति में पहली बड़ी उपलब्धि उनके हिस्से देहरादून में ही आई। 1920 में देहरादून में कांग्रेस के एक बड़े सम्मेलन का आयोजन हो रहा था। अब तक कांग्रेस में दूसरी पंक्ति के नेता बने 42 वर्षीय नेहरू को पहली बार कांग्रेस सम्मेलन की अध्यक्षता करने का मौका मिला। 1920 में देहरादून में आयोजित इस सम्मेलन में हिस्सा लेने के बाद नेहरू का राजनीतिक कद कांग्रेस में काफी उंचा हो चुका था तो वह अंग्रेजी हुकूमत की आंखों में भी खटकने लगे थे। 1920 के इस सफल कांग्रेसी सम्मेलन के 2 साल बाद यानि 1922 में भी देहरादून में एक बड़ा राजनीतिक सम्मेलन आयोजित हुआ जिसकी अध्यक्षता भी जवाहर लाल नेहरू ने की। देश की आजादी के आंदोलन का प्रमुख चेहरा होने के चलते जवाहर लाल नेहरू को अंग्रेजों ने कई बार जेल भेजा तो उनकी जेल यात्रा के दौरान बड़ा हिस्सा देहरादून की जेल में बीता। नेहरू उत्तराखंड से भावनात्मक तौर पर जुड़े रहे। उन्हें पहाड़ों की रानी मसूरी भी काफी पसंद थी। वह मसूरी को अपना दूसरा घर भी कहा करते थे।
भारत चीन युद्ध के बाद जब स्थितियां नेहरू के अनुकूल न थी तो उनकी सेहत भी लगातार गिर रही थी तो वह अपने आखिरी समय में स्वास्थ्य लाभ के लिए देहरादून पहुंचे थे। कांग्रेस के भुवनेश्वर में अधिवेशन के दौरान नेहरू को पहला दिल का दौरा पड़ा था। हालांकि, उनका राजनीति से मन 1958 में उचट गया था। बढ़ती उम्र और गिरती सेहत के चलते वह 1958 में रिटायरमेंट का मन बना चुके थे और इस बावत तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को पत्र लिखकर अपने रिटायरमेंट के बारे में अवगत भी कराया लेकिन राष्ट्रपति ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। हालांकि, इसके बाद जीप घोटाले, चीन द्वारा हिंदी चीनी भाई भाई की नेहरू सोच को दगा देते हुए भारत पर हमले से नेहरू को मानसिक रूप से भी गहरी चोट पहुंची। मई महीने के दूसरे पखवाड़े में भुवनेश्वर में जब वह कांग्रेस के अधिवेशन के लिए पहुंचे थे तो वहां उन्हें पहला दिल का दौरा पड़ा। स्वास्थ्य लाभ के लिए उन्होंने 23 मई 1963 को देहरादून का रूख किया। 26 मई तक वह देहरादून, मसूरी समेत अन्य जगहों पर घूमे, उन्हें विश्वास था कि देहरादून की आबोहवा उनकी सेहत सुधारने में मदद करेगी। इस दौरान प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने आखिरी बार किसी किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में भी हिस्सा लिया। 24 मई 1964 को मसूरी पहुंचकर उन्होंने हैप्पीवैली स्थित प्रशासनिक अकादमी (वर्तमान में लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी) परिसर में रुकयहां आइएएस प्रशिक्षुओं को संबोधित भी किया था। अगले दिन यानि 25 मई को सुबह लगभग साढ़े नौ बजे पं. नेहरू देहरादून के लिए रवाना हुए, जहां वह सर्किट हाउस में ठहरे। दून में 26 मई को तबीयत बिगडऩे पर उन्हें हेलीकॉप्टर से सहारनपुर के सरवासा हवाई अड्डे ले जाया गया और वहां से हवाई जहाज से दिल्ली भेजा गया। जहां 27 मई को उन्होंने अंतिम सांस ली।
आजादी से पहले ही पृथक उत्तराखंड राज्य की पैरवी की थी नेहरू ने
हाल ही में उत्तराखंड राज्य ने अपना 24वां स्थापना दिवस मनाया। लेकिन, करीब 93 साल पहले नेहरू ऐसे पहले राष्ट्रीय नेता थे जिन्होंने उत्तराखंड की विशेष भौगोलिक परिस्थितियों और सांस्कृतिक पहचान के चलते इसे अलग पहचान देने की जरूरत बताई थी। साल 1930 में श्रीनगर गढ़वाल में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि उत्तराखंड की विशेष भौगोलिक परिस्थिति और समृद्ध व अलग सांस्कृतिक पहचान को अच्छुक्ष बनाए रखने के लिए इस हिमालय हिस्से को अलग पहचान बनाए रखने का हक है। किसी बड़े राष्ट्रीय नेता का आजादी के आंदोलन के दौरान एक क्षेत्र विशेष के लिए यह संबोधन बाद में उत्तराखंड राज्य आंदोलन का मजबूत आधार भी बना। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के निर्माण की मांग देश की आजादी के बाद शुरू हो गई थी। नेहरू के उस संबोधन के बाद इस हिमालयी हिस्से को पृथक राज्य बनाने की मांग आजादी के बार जोर पकड़ने लगी।