वाजपेयी को मात देकर दो दशकों से अजेय सफर पर नरेंद्र मोदी
– 7 अक्टूबर 2001 को नाटकीय घटनाक्रम में ली थी गुजरात के मुख्यमंत्री की शपथ, उससे पहले छह सालों से झेल रहे थे गुजरात से निष्कासन
– दंगों के बाद प्रधानमंत्री बाजपेयी ने किया था मोदी को बर्खास्त करने का फैसला, लेकिन अपने गुरू आडवाणी व अपनी छवि ने अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री को दे दी मात
पंकज कुशवाल, देहरादून। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले दस सालों से देश के प्रधानमंत्री बने हुए हैं, इससे पहले वह लगातार 13 सालों से गुजरात के मुख्यमंत्री पद पर बने हुए थे। भूकंप के एक झटके से बदहाल गुजरात की कमान संभालने वाले नरेंद्र मोदी का राजनीतिक करियर एक दफा उनके मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के कुछ महीनों बाद ही खत्म होने वाला था। लेकिन, अपने गुरू आडवाणी और अपनी छवि के बूते उन्होंने न सिर्फ अपना राजनीतिक करियर बचाया बल्कि अपनी ही पार्टी के तत्कालीन प्रधानमंत्री को भी मात दी। नरेंद्र मोदी का शीर्ष पदों पर लगातार बने रहने का सफर 22 साल का हो चुका है।
26 जनवरी 2001, पूरा देश भारत का 51वां गणतंत्र दिवस मना रहा था। स्कूलों में प्रभात फेरियां निकालने की तैयारियां शुरू हो रही थी लेकिन तभी गुजरात के कच्छ में सुबह 8 बजकर 46 मिनट पर एक जोरदार झटका आया। रेक्टर स्केल पर यह झटका 7.6 मेग्नेट्यूड मापा गया। भूकंप का यह झटका इतना जबरदस्त था कि पूरे जिले में करीब 20 हजार लोगों की मौत हो गई। गुजरात में भाजपा की सरकार थी और केशू भाई पटेल मुख्यमंत्री थे। वहीं, पार्टी को टुकड़ों में बांट कर आपस में उलझाने वाले नरेंद्र मोदी पिछले छह सालों से दिल्ली में थे। उन्हें 1995 में पार्टी के भीतर संघर्ष की स्थिति पैदा करने के लिए पार्टी ने राज्य से बाहर कर दिया था। नरेंद्र मोदी पिछले छह सालों से दिल्ली में लालकृष्ट आडवाणी की छत्रछाया में थे। 26 जनवरी 2001 को आए भूकंप के दौरान केंद्र में भी भाजपा सरकार थी। लेकिन, गुजरात में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा था। भूकंप के बाद राहत एवं बचाव कार्यों में केशु भाई पटेल फेल साबित हो रहे थे। गांधीनगर से सांसद और भारत के उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी गुजरात में पार्टी के खिलाफ बन रहे माहौल को लेकर चिंतित थे। उन्होंने गुजरात में भूकंप के बाद राहत बचाव कार्यों में हो रही लापरवाही के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से पार्टी हित में गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन की सलाह दी। वहीं, राज्य बदर होने के छह साल के दौरान नरेंद्र मोदी दिल्ली में पार्टी के शीर्ष नेताओं के बीच अपनी पकड़ मजबूत कर चुके थे। गुजरात से आवाज आ रही थी कि राज्य का नेतृत्व किसी युवा चेहरे को सौंप दिया जाए। नरेंद्र मोदी तब पार्टी के महासचिव पद की जिम्मेदारी निभा रहे थे लेकिन राज्य से बाहर रहते हुए भी मोदी 1997 में विधायक बने अमित शाह के जरिए गुजरात में घट रहे घटनाक्रमों पर नजर बनाए रखते। भूकंप ने राज्य में सत्ता विरोधी लहर तैयार कर दी थी। इन सबसे लाल कृष्ण आडवाणी सबसे ज्यादा चिंतित थे क्योंकि वह पिछले कई सालों से गांधीनगर से चुनाव जीतते रहे थे।
इस दौरान प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लाल कृष्ण आडवाणी के साथ भूकंप प्रभावित इलाकों का हेली दौरा किया। हालात वास्तव में खराब मालूम पड़ रहे थे। प्रधानमंत्री के इस दौरे ने गुजरात में नेतृत्व परिर्वतन को तय कर दिया था। आरएसएस और भाजपा के शीर्ष नेताओं ने एक नाम तय किया और उस नाम वाले व्यक्ति को 1 अक्टूबर 2001 को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिलने भेजा गया। 1 अक्टूबर 2001 को अटल बिहारी वाजपेयी से मुलाकात के बाद यह तय हो गया था लालकृष्ण आडवाणी, अरूण जेटली द्वारा गुजरात में केशू भाई पटेल के उत्तराधिकारी के तौर पर चुने नरेंद्र मोदी की 7 अक्टूबर 2001 को छह सालों से राज्य से निष्कासन गुजरात में वापसी होती है। 7 अक्टूबर 2001 को अहमदाबाद में एक भव्य कार्यक्रम में नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री की शपथ लेते हैं। बताते हैं कि उस शपथ ग्रहण समारोह में 50 हजार से ज्यादा लोग शामिल हुए। उतना भव्य शपथ ग्रहण समारोह अब तक पूरे देश में किसी भी मुख्यमंत्री का नहीं हुआ था। प्रचार तंत्र के माहिर नरेंद्र मोदी ने अपना यह शपथ ग्रहण समारोह भव्य बनाने के साथ ही इसे इंटरनेट के जरिए लाइव भी चलवाया।
अक्टूबर में मुख्यमंत्री रूप में शपथ लेने वाले नरेंद्र मोदी का प्रभाव धीरे धीरे गुजरात के राजकाज में दिखना शुरू हो चुका था। लेकिन, अगले पांच महीने के दौरान एक ऐसा घटनाक्रम घटा जिसने नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान तो दी लेकिन यदि आडवाणी न डटते तो शायद यह घटनाक्रम नरेंद्र मोदी की राजनीति का भी अंत साबित होता।
फरवरी 2002 को हुए उपचुनाव में नरेंद्र मोदी राजकोट से बमुश्किल ही अपनी सीट बचा पाए थे। अगली सुबह यानि 27 फरवरी 2002 को कारसेवकों को लेकर जा रही एक ट्रैन अहमदाबाद से 127 किमी दूर गोधरा स्टेशन पर मुस्लिमों की ओर से जला दी गई। इस अग्निकांड में 59 कारसेवक जिंदा जलाकर मार दिए गए। सुबह 8 बजे के करीब यह अग्निकांड हुआ तो अगले एक घंटे में प्रदेश के नये मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को यह सूचना मिली। वह हेलीकॉप्टर से गोधरा स्टेशन के दुर्घटनास्थल पर पहुंचे। मृतक कारसेवकों के परिजन भी गोधरा पहुंचने लगे थे अपनों के शव लेने लेकिन नरेंद्र मोदी के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था। उन्होंने सारे शव उनके परिजनों को सौंपने की बजाए विश्व हिंदू परिषद को सौंप दिए और उन शवों को पूरे राज्य में घुमाने का फैसला लिया। 28 फरवरी 2002 को पूरे गुजरात में दंगों का सिलसिला शुरू हो गया। पूरे गुजरात के 151 शहरों, 993 गांवों तक दंगों की आग फैल गई। इन दंगों में करीब 1272 लोग मारे गए जिसमें 790 मुस्लिम और 254 हिंदू थे। 228 लोग दंगों में लापता हो गए जिन्हें बाद में मृतक घोषित कर दिया गया। करीब एक लाख मुसलमानों को विस्थापित होना पड़ा।
इन दंगों की आंच दिल्ली में महसूस की जा रही थी। मुस्लिम विरोधी इन दंगों से विपक्ष के साथ ही तत्कालीन वाजपेयी सरकार के सहयोगी दल भी गुस्से में थे। एनडीए के सहयोगी दल टीडीपी और जयललिता ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ कार्रवाई न होने पर समर्थन वापिस लेने की धमकी दे दी थी। दिल्ली में भाजपा सरकार संकट में थी। बताया जाता है कि कई बार खुद अटल बिहारी वाजपेयी इस प्रकरण को लेकर इस्तीफा देने का मन बना चुके थे। नरेंद्र मोदी को दिल्ली तलब किया गया लेकिन वह अपने साथ जनमत का रिपोर्ट कार्ड लेकर आए और बताने लगे कि अगर आज गुजरात में चुनाव किए जाएं तो भाजपा अब तक का सबसे रेकार्ड बहुमत हासिल करेगी।
गुजरात में दंगों के 1 महीने बाद 4 अप्रैल 2002 को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी गुजरात दंगा प्रभावित क्षेत्रों का जायजा लेने पहुंचे। गोधरा में दुर्घटना स्थल का निरीक्षण करने के बाद प्रधानमंत्री अहमदाबाद के मुस्लिमों के शरणार्थी शिविरों में पहुंचे। दंगा प्रभावित मुस्लिमों की आपबीती सुन प्रधानमंत्री वाजपेयी काफी निराश हो चुके थे। गांधीनगर हवाई अड्डे पर पत्रकारों से बातचीत करते हुए उन्होंने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को राजधर्म का पालन करने कह नसीहत दी। मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी व्यंगात्मक मुस्कान के साथ जवाब दिया कि वह राजधर्म का ही पालन कर रहे थे।
दिल्ली लौटकर प्रधानमंत्री वाजपेयी ने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को बर्खास्त करने का मन बना लिया था। लेकिन गुजरात से लौटने के बाद प्रधानमंत्री एक बैठक के लिए सिंगापुर चले गए, उन्होंने मोदी के बर्खास्त करने का फैसला भारत वापसी तक टाल दिया। 11 अप्रैल को भारत लौटने के बाद प्रधानमंत्री वाजपेयी ने 12 व 13 अप्रैल को गोवा में भाजपा की राष्ट्ीय कार्यकारिणी में हिस्सा लिया। उम्मीद थी कि यहां प्रधानमंत्री वाजपेयी नरेंद्र मोदी को बर्खास्त करने की घोषणा करेंगे लेकिन वह आडवाणी को नाराज करने का जोखिम उठाने से घबरा रहे थे। क्योंकि, इस दौरान आडवाणी भी नरेंद्र मोदी की ढाल बनकर खड़े हो चुके थे। लिहाजा, उम्मीद थी कि गोवा में नरेंद्र मोदी का इस्तीफा लिया जाएगा लेकिन आडवाणी इसके खिलाफ थे। गोवा से लौटते हुए वाजपेयी ने आडवाणी से नरेंद्र मोदी की बर्खास्तगी पर सहमति देने की बात की तो आडवाणी ने साफ कह दिया किया मोदी के इस्तीफे से चीजें नहीं बदलेंगी और जो चल रहा है वह बेहतर चल रहा है।
आडवाणी को अहसास हो चुका था कि वाजपेयी समेत पार्टी का सेक्युलर दिखने वाला धड़ा नरेंद्र मोदी को हटाकर दम लेगा। लिहाजा, उन्होंने भी एक नई स्क्रीप्ट लिखनी शुरू कर दी। गोवा से लौटने के बाद उसी दिन दिल्ली के एक होटल में पार्टी के सभी राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्यों को आमंत्रित किया गया। बैठक में तय किया गया कि नरेंद्र मोदी के भविष्य पर फैसला अगले दिन लिया गया लेकिन तभी राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्यों के बीच बैठे नरेंद्र मोदी ने खड़े होकर पार्टी हित में मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देने का एलान किया। इस फैसले से जब तक वाजपेयी राहत की सांस लेते उससे पहले ही आडवाणी की स्क्रिप्ट के अनुसार राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्यों ने नरेंद्र मोदी के समर्थन में खड़े होकर नारेबाजी शुरू कर दी। अब वाजपेयी भी लाचार थे। आडवाणी बढ़त बना चुके थे और राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने नरेंद्र मोदी के समर्थन में प्रस्ताव पास करते हुए उनके इस्तीफे की पेशकश को अस्वीकार करते हुए उनके द्वारा गुजरात में तत्काल चुनाव करवाने पर सहमति दी। नरेंद्र मोदी आडवाणी और अन्य वरिष्ठ नेताओं के स्नेह से प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी तक को मात देने में सफल रहे। गुजरात में समय से छह महीने पहले चुनाव हुए और उसके बाद आज तक नरेंद्र मोदी अजेय बने हुए हैं।