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मुखबा नेलांग के रास्ते भी होती थी कैलाश मानसरोवर यात्रा

आजादी से पहले तक गंगा के शीतकालीन प्रवास मुखबा गांव से 500 किमी की दूरी तय कर पहुंचा जाता था पवित्र कैलाश मानसरोवर, 1935 में स्वामी प्रणवानंद ने इस मार्ग से यात्रा पूरी कर किया था इसे लिपिबद्ध
PEN POINT, DEHRADUN : कैलाश मानसरोवर, दुनिया भर में फैले करोड़ों हिंदुओं के आस्था के इस प्रमुख केंद्र में हर साल हजारों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। कैलाश पर्वत और मानसरोवर झील चीन द्वारा अधिगृहित तिब्बत सीमा के अंतर्गत आते हैं। लिहाजा, जितनी कठिन यहां तक पहुंचने की राह है उतनी ही मुश्किल यहां पहुंचने की अनुमति मिलना भी है। फिलहाल कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए सिक्किम और काठमांडू के जरिए ही पहुंचा जा सकता है। लेकिन, आजादी से पहले तक देश के तीर्थयात्रियों के लिए उत्तरकाशी जनपद से भी कैलाश मानसरोवर की यात्रा करने का विकल्प था। उत्तरकाशी में भारत तिब्बत सीमा से सटे मुखबा के जरिए कैलाश मानसरोवर यात्रा का मार्ग शुरू होता था।
हाल के वर्षों में पिथौरागढ़ से कैलाश मानसरोवर यात्रा सरल बनाने के लिए केंद्र सरकार ने विशेष मुहिम शुरू की है। जिसके लिए सीमांत क्षेत्र तक सड़क निर्माण का कार्य भी चल रहा है जिससे सदियों से कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए प्रयोग में लाए जाने वाले इस पारंपरिक मार्ग की पहुंच आसान की जा सके। पिथौरागढ़ से लिपुलेख दर्रे पर मोटर मार्ग निर्माण का काम भी तेज है जिससे मोटर मार्ग से कैलाश मानसरोवर पहुंचा जा सके।

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उत्तरकाशी जनपद का जादुंग गांव। भारत चीन युद्ध से पहले यह गांव आबाद हुआ करता था और तिब्बत भारत के बीच व्यापार करने वाले जाड़ समुदाय का शीतकालीन प्रवास था।

लेकिन, आपको जानकर हैरानी होगी कि करीब आजादी से पूर्व तक भागीरथी घाटी से भी कैलाश मानसरोवर पहुंचा जा सकता था। करीब 500 किलोमीटर की बेहद दुर्गम, खतरनाक दूरी तय कर इस पवित्र स्थान के दर्शन किए जाते थे। सबसे पहले कैलाश मानसरोवर यात्रा के रास्तों, नक्शों को लिपिबद्ध करने वाले स्वामी प्रणवानंद ने 88 साल पहले गंगा के शीतकालीन प्रवास मुखबा से कैलाश मानसरोवर की यात्रा की थी। हालांकि, उत्तराखंड से जाने वाले अन्य रास्तों के मुकाबले नेलांग होते हुए जाने वाला रास्ता ज्यादा लंबा था लेकिन दुर्गमता के मामले में अन्य रास्तों के मुकाबले इसे कम दुर्गम माना गया।

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मां गंगा का शीतकालीन प्रवास मुखबा गांव। गंगोत्री धाम के कपाट बंद होने के बाद शीतकाल के दौरान मां गंगा की भोग मूर्ति मुखबा गांव में स्थित मंदिर में निवास करती है।

करीब 12 सालों तक अलग अलग मार्गों के जरिए कैलाश मानसरोवर की यात्रा करने वाले आंध्र प्रदेश निवासी स्वामी प्रणवानंद ने उत्तराखंड, कश्मीर, हिमाचल से 8 रास्तों के जरिए कैलाश मानसरोवर की यात्रा की थी। उनके यात्रा वृतांत और कैलाश मानसरोवर यात्रा को लेकर दिए गए विवरणों को संकलित कर लिखी गई किताब की भूमिका खुद देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने लिखी थी।
स्वामी प्रणवानंद ने जब साल 1935 में दूसरी बार कैलाश मानसरोवर यात्रा पर जाने का फैसला लिया तो इस बार उन्होंने उत्तरकाशी जनपद में मां गंगा के शीतकालीन प्रवास मुखबा से जाने वाले मार्ग को चुना। इस दौरान मुखबा से जेलुखागा पास होते हुए कैलाश मानसरोवर पहुंचा जाता था। स्वामी प्रणवानंद के द्वारा मुखबा और कैलाश मानसरोवर के बीच की दूरी 391 किमी बताई गई है। 1935 में अपनी दूसरी कैलाश मानसरोवर यात्रा में मुखबा से शुरू कर नेलांग, जेलुखागा पास, थुलिंग, मेंगनांग, डापा, डोंगपू, सिबलिचिन, ग्यानिमा मंडी होते हुए कैलाश मानसरोवर पहुंचे थे। वहां मानसरोवर झील की पवित्र परिक्रमा कर चकरा मंडी, दमजान नीति पास होते हुए गंगोत्री धाम पहुंचे थे।

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भारत तिब्बत सीमा से सटा नेलांग जादुंग क्षेत्र। भारत चीन युद्ध से पहले इस इलाके को साल्ट रूट कहा जाता था।

यूं तो उत्तरकाशी जनपद का नेलांग मार्ग भारत तिब्बत व्यापार का साल्ट रूट यानि नमक मार्ग भी था। लेकिन, उस दौरान भारत तिब्बत व्यापार के स्वर्णिम दौर में उत्तरकाशी नेलांग तिब्बत व्यापार मार्ग पर अन्य मार्गों के मुकाबले कम व्यापार होता था लिहाजा कैलाश मानसरोवर मार्ग पर कोई बड़ी मंडी भी स्थापित नहीं थी। स्थानीय भोटिया व्यापारी तिब्बत तक अनाज समेत कई महत्वपूर्ण सामान लेकर जाते और वहां से नमक, जड़ी बूटी, जानवरों के अंग लेकर आते। यह मार्ग व्यापारियों के बीच कम प्रचलित था। जबकि, पिथौरागढ़ का लिपुलेख दर्रा, बदरीनाथ से माणा पास, जोशीमठ से नीति पास भारत तिब्बत व्यापार की दृष्टि से बेहद प्रचिलत मार्ग थे लिहाजा इन मार्गों पर कैलाश मानसरोवर जाने वाले तीर्थ यात्रियों के लिए व्यापारियों की ओर से विशेष व्यवस्थाएं की गई थी लेकिन इसके उलट नेलांग मार्ग पर व्यापार कम होने के चलते यहां तीर्थयात्रियों को कैलाश मानसरोवर तक पहुंचने के लिए मुश्किलों का सामना करना पड़ता था।

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स्वामी प्रणवानंद। 12 सालों तक उत्तराखंड, हिमाचल और कश्मीर के आठ अलग अलग मार्गों से इन्होंने कैलाश मानसरोवर की यात्रा करने के साथ ही इस मार्ग व तिब्बत व्यापार को लिपिबद्ध किया था।

मुखबा की ओर से कैलाश मानसरोवर की यात्रा तक मंडी नामक के स्थान तक यात्रा का मार्ग सरल था, मंडी भारत तिब्बत सीमा पर सटा क्षेत्र भारत तिब्बत व्यापारियों का प्रमुख केंद्र था, हालांकि यह भारत तिब्बत सीमा के व्यापारिक केंद्रों पर स्थित मंडियों के मुकाबले कम व्यापार के चलते कम प्रचलित था। मंडी तक सुलभ मार्ग के बाद भारत तिब्बत सीमा पर समुद्रतल से 17500 फीट की उंचाई पर स्थित जेलखुगा पास को पार कर तिब्बत में प्रवेश किया जाता जिसके बाद कैलाश मानसरोवर की यात्रा आगे बढ़ती। जेलखुगा पास को तिब्बत के निवासी त्सांगचोक ला के नाम से जानते थे।

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नेलांग जादुंग मार्ग के जरिए भारत तिब्बत व्यापार के लिए पहाड़ को काटकर बनाया गया मार्ग गर्तांगली। हाल के वर्षों में इस ध्वस्त मार्ग को उत्तराखंड राज्य सरकार ने पुनर्निर्माण कर पर्यटकों के लिए खोला।

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