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पुण्यतिथि : एक उद्यमी जिसने आजादी के लिए अपनी करोड़ों की संपति दांव पर लगाई

– जमनालाल बजाज की आज पुण्यतिथि, देश की आजादी का प्रमुख चेहरा बनकर उभरे
– प्रमुख उद्योगपति होन के बावजूद अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में गांधी जी के साथ साए की तरह रहे।
पंकज कुशवाल, PENPOINT। इन दिनों देश में संसद से लेकर सड़क तक एक उद्योगपति की चर्चा है कि सरकार के साथ अपने संबंधों के कारण उक्त उद्योगपति ने अपने व्यवसायिक हितों की पूर्ति की है। तमाम उद्योगपतियों पर अपने हित साधने और आम जन के अधिकार क्षेत्रों में दखल करने के आरोप समय समय पर लगते रहे हैं लेकिन आजादी की जंग में शामिल एक उद्योगपति को आज उनकी पुण्यतिथि पर याद कर रहे हैं जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपने भारी भरकम उद्यम तक की परवाह नहीं की। जमनालाल बजाज आज के ही दिन 11 फरवरी 1942 को दुनिया से कूच कर गये थे। आजीवन अंग्रेजों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने वाले जमनालाल बजाज के बारे में जानते हैं आज उनकी पुण्यतिथि पर ….
जमनालाल बजाज वर्धा के एक अमीर कारोबारी सेठ बछराज के दत्तक पुत्र थे। वैसे वह एक गरीब मारवाड़ी परिवार में जन्‍मे थे और सिर्फ चार साल के थे तो उन्‍हें गोद लिया गया। सेठ बछराज के इस दत्तक पुत्र ने राष्ट्र के लिए अपने समर्पण भाव से वर्धा को आजादी के आंदोलन का और अंतरराष्ट्रीय महत्व का केंद्र बनाया। एक अमीर परिवार में पले-बढ़े जमनालाल ने फिजूलखर्ची और मौज मस्ती से भरा जीवन नहीं चुना। परिवार की सारी दौलत और समृद्धि युवा जमनालाल को संतुष्ट नहीं कर सकी और वह एक ऐसे शख्स की तलाश में लग गए जो उन्हें ऐसे रास्ते पर ले जाए, जिसपर वह चलना चाहते थे. इसी कोशिश में उन्होंने कई नेताओं, साधुओं और धार्मिक हस्तियों से मुलाकात की. कोई भी उन्हें प्रभावित न कर सका. आखिरकार वह मिले महात्मा गांधी से और बापू ने जमनालाल बजाज पर ऐसा असर डाला कि दोनों के बीच एक मजबूत रिश्ता बन गया।

महात्‍मा गांधी का साथ
महात्मा गांधी भी इस अमीर शहजादे की समर्पण के मुरीद हो गये थे। जमनालाल ने तन, मन और धन से साथ दिया 1915 में गांधी की भारत वापसी के बाद, जमनालाल बजाज ने अहमदाबाद में सत्याग्रह आश्रम का दौरा किया और गांधी से बातचीत की। इसका परिणाम ये हुआ कि जमनालाल गहराई से गांधी के साथ जुड़ गए। यह संबंध जीवन भर कायम रहा। उन्होंने अपना जीवन पूरी तरह से गांधी के मिशन और कार्य को समर्पित कर दिया।
हालांकि, जमनालाल बजाज गांधी जी से छह साल पहले ही दुनिया से कूच कर गये। गांधीजी  ने 1942 में जमनालाल बजाज को भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि “मेरा कोई काम ऐसा नहीं था जिसमें मुझे तन मन और धन में उनका पूरा सहयोग न मिला हो. राजनीति के प्रति न उनमें और न ही मुझमें कोई आकर्षण था. वह इसमें लाए गए क्योंकि मैं उसमें था. मेरी असली राजनीति बेहतर कार्य थी, और उनकी भी यही राजनीति थी।

राय बहादुर की उपाधि ठुकराई

दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद महात्मा गांधी ने 1920 तक भारत की आजादी के आंदोलन का नेतृत्व संभाल लिया। जमनालाल पूरे दिल से इसमें जुड़ गए। जमनालाल बजाज 1920 में आयोजित नागपुर कांग्रेस की स्वागत समिति के अध्यक्ष थे और उन्हें कांग्रेस पार्टी के कोषाध्यक्ष के रूप में चुना गया था। असहयोग आंदोलन के बीच जमनालाल बजाज ने ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गई राय बहादुर की उपाधि को त्यागने की हिम्मत दिखाई। 1921 में, वे विनोबा भावे को सत्याग्रह आश्रम की एक शाखा शुरू करने के लिए वर्धा लाने में सफल रहे। 1923 में, जलियांवाला बाग हत्याकांड की याद में उन्होंने सरकारी प्रतिबंध के बावजूद नागपुर में ध्वज सत्याग्रह का आयोजन किया जिसके बाद उन्हें 18 महीने की जेल की सजा सुनाई गई और तीन हजार रुपये जुर्माने का दंड भी लगाया गया।

दलितों को मंदिर में प्रवेश करवाने का संघर्ष
17 जुलाई 1928 को वर्धा में लक्ष्मी नारायण मंदिर में रूढ़िवादी हिंदुओं के कड़े विरोध के बावजूद दलितों को मंदिर में प्रवेश करवाने के लिए जमनालाल बजाज अड़ गये। कट्टरवादी हिंदु इस बात को लेकर कतई तैयार नहीं थे कि दलित इस मंदिर में प्रवेश करें लेकिन गांधी जी से प्रेरणा पाकर जमनालाल बजाजा ने मंदिर में दलितों के प्रवेश के लिए संघर्ष किया। उन्होंने 1929 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अस्पृश्यता विरोधी उपसमिति के सचिव के रूप में कार्य किया।
जमनालाला ने विनोबा भावे को पौनार का घर दिया था। सत्याग्रह आश्रम के बंद होने के बाद गांधी ने वर्धा को अपना मुख्यालय बनाया।  जमनालाल बजाज ने 1934 में अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ (एआईवीआईए) को जगह देने के लिए वर्धा में अपना एक बंगला गांधी को दे दिया। गांधी को वर्धा में बसने के लिए राजी करने और 1936 में सेवाग्राम आश्रम की स्थापना के लिए मनाने का श्रेय जमनालाल को ही जाता है। अक्टूबर 1937 में वर्धा राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन के संगठन में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जहाँ गांधी ने बुनियादी शिक्षा पर अपने विचार प्रस्तुत किए। जिसे बाद में कांग्रेस के मंत्रालयों के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया गया था. उन्होंने 1938 में पौनार में धाम नदी के सामने अपना लाल बंगला विनोबा भावे को दिया क्योंकि विनोभा भावे का स्वास्थ्य सही नहीं था। यहां विनोबा का पौनार आश्रम या ब्रह्म विद्या मंदिर स्थित है।

हर घर बना धर्मशाला

भारत के तीसरे राष्ट्रपति रहे जाकिर हुसैन 1938 में बीमार हो गए थे। इलाज के दौरान ही उनके पास एक दिन 200 रुपये पहुंचे। जानकारी जुटाने के दौरान पता चला कि यह रकम जमनालाल बजाज ने भिजवाई है। जाकिर हुसैन ने जमनालाल को पत्र लिख डाला- मैं आपसे सच सच कहता हूं, मैं अपनी बीमारी के लिए पैसे एकत्र करने का साधन नहीं बनना चाहता. हालांकि मेरी आर्थिक दशा ठीक न थी लेकिन मेरे भाइयों ने इसका खर्च उठा लिया और आराम व निवास का इंतजाम दोस्त डॉ. ख्वाजा अब्दुल मुईद ने किया। 30 अक्टूबर 1938 को लिखे गए इस पत्र में जाकिर हुसैन ने जमनालाल से अनुरोध किया कि इस धनराशि को जामिया की किसी जरूरत पर खर्च करने की अनुमति दी जाए। जमनालाल का ये धन जामिया के काम आया, ऐसे और भी कई मौके हुए जब उन्होंने अपनी संपत्ति और धन को दूसरे लोगों को दिया। यहां तक कि गांधी जी को भी कहना पड़ा कि जमनालाल का हर घर एक धर्मशाला है। उन्होंने अपने निवास-बजाजवाड़ी- को कांग्रेस नेताओं, कार्यकर्ताओं और अन्य लोगों के लिए गेस्ट हाउस के रूप में बदल दिया। ये सभी गांधी से मिलने वर्धा आते थे।11 फरवरी 1942 को जमनालाल ने आखिरी सांस ली। जमनालाल बजाज ने माता आनंदमयी का मार्गदर्शन लिया, जिन्हें वे अपनी आध्यात्मिक माँ मानते थे। जीवन के आखिरी दिनों में वह अन्य सभी कार्यों से हट गए और गोपुरी, वर्धा में एक घासफूस की झोपड़ी में रहने लगे, एक चारपाई में सोने लगे. अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद इस चरण में खुद को गो सेवा के लिए समर्पित किया। उन्होंने 11 फरवरी 1942 को वर्धा में अपना नश्वर शरीर छोड़ दिया।

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