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तिलका मांझी : अपने इंडिया का स्‍पार्टाकस था ये वीर योद्धा

-आज है बाबा तिलका मांझी की जयंती, ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ जंग का ऐलान करने वाले पहले स्‍वाधीनता संग्राम सेनानी थे

PEN POINT, देहरादून : 1857 की क्रांति से काफी पहले 1778 में बिहार और झारखंड के जंगलों के बीच अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष का बिगुल फूका गया था। जिसके अगुआ थे आदिवासी तिलका मांझी। इतिहास की किताबों में भले ही उन्‍हें भुला दिया गया है, लेकिन वहां का स्‍थानीय समुदाय आज भी अपने लोकगीतों और किस्‍स्‍े कहानियों में उन्‍हें जिंदा रखे हुए है। माना जाता है कि तिलका मांझी की अगुआई में अंग्रेजों से हुआ संघर्ष ही स्‍वाधीनता संग्राम की शुरुआत थी। साथ ही तिलका मांझी को आजादी के लिए फांसी पर चढने वाला स्‍वतंत्रता सेनानी भी कहा जाता है। दुनिया में आदि विद्रोह का पहला केंद्र रोम को माना जाता है। जिसका प्रमुख लड़ाका स्‍पार्टकस था। उसी तरह तिलका मांझी भारत की आजादी के लिए आदि विद्रोह का पहला योद्धा हुआ। आईए जानते हैं कौन थे तिलका मांझी और कैसे उन्‍होंने ब्रितानी हुकुमत से लोहा लिया-

बिहार के जंगलों में संथाल और पहाडि़या आदिवासियों की बसावत रही है। पहाड़ी इलाकों और घने जंगलों के बीच बसे इन गांवों के आदिवासी कुशल लडाके होते थे। तीर कमान जिनका मुख्‍य हथियार था। गरीब आदिवासी पहले से ही जमींदारों और महाजनों की ज्‍यादतियों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे। इन्‍हीं में सिंगारसी गांव में 11 फरवरी 1750 में जबरा पहाडिया ने जन्‍म लिया। अपनी सोच और समझे से बड़ा होने पर वह मजबूत लड़ाका बन गया। 1770 में जब जबरा प‍हाडि़या 20 साल का था तब पूरे इलाके में भारी अकाल पड़ा। जबरा की अगुआई में संथालों ने सरकारी खजाना लूटकर गरीबों में बांट दिया। इसके बाद उसे गांव का सरदार यानी मांझी बना दिया गया। अंग्रेजों और जमींदारों से एक साथ संघर्ष चलता रहा और जबरा को तिलका यानी गुस्‍सैल लाल आंखों वाला मांझी नाम दिया गया। 1778 में अंग्रेजी हुकूमत ने ऑगस्‍टल क्‍लीवलैंड को राजमहल क्षेत्र का पुलिस अधीक्षक बनाया गया। जिसने फूट डालो और राज करो की नीति पर काम किया। उसने पूरे इलाके कई सरदारों को प्रलोभन देकर अपनी ओर मिला लिया। कुछ को नौकरी तो कुछ लोगों को जमीन का लालच दिया गया। जिससे तिलका मांझी की बेचैनी बढ़ गई, हालांकि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए कुछ लोग उसके साथ भी बचे थे।

और तिलका ने क्‍लीवलैंड को मार गिराया

1784 के जनवरी महीने में तिलका ने एक दुस्‍स्‍साहसी फैसला लिया। उसने तुरंत ही अपने साथियों के साथ अंग्रेजों के भागलपुर कैंप पर हमला कर दिया। 13 जनवरी को सूचना पाकर क्‍लीवलैंड ने भी उधर का रुख किया। इसकी भनक तिलका को थी और वह दोपहर के वक्‍त जंगल के रास्‍ते में एक ताड़ के पेड़ पर बैठ गया। दूर से घोड़े पर सवार होकर आता क्‍लीवलैंड उसे दिख गया। उसने विषबुझे तीर को कमान पर चढ़ाकर रस्‍सी खींची, जैसे ही क्‍लीवलैंड जद में आया तीर उसकी छाती में जा घुसा। अंग्रेज वहीं ढेर हो गया। इस घटना से अंग्रेजों में दहशत फैल गई। तिलका के लड़ाकों ने भागलपुर कैंप के साथ ही अंग्रेजों के समर्थन में आए सरदारों पर हमला कर उन्‍हें तितर बितर कर दिया।

फांसी देते हुए भी खौफजदा थे अंग्रेज

राजमहल इलाके में हालात बिगड़ते देख अंग्रेजों ने एक अफसर आयरकूट को अपनी सेना की मदद के लिए भेजा। आयरकुट ने अपनी सेना के साथ ही समर्थन वाले सरदारों को एकत्र किया और रामगढ़ में तिलका मांझी के कैंप पर हमला बोल दिया। उसके बहुत से साथी मारे गए लेकिन तिलका मांझी बचकर भाग निकला और सुल्‍तानगंज की पहाडि़यों में छिप गया। 1785 ईसवी में उसे धोखे से पकड़ लिया गया। अंग्रेजों ने तिलका को रस्‍सी से बांधा और घोडों से घसीटकर भागलपुर लाया गया। बताते हैं कि इसके बावजूद वह जिंदा था और खुन से लथपथ उसकी देह और लाल आंखें अंग्रेजी हुकूम के नुमाइंदों मे खौफ पैदा कर रही थीं। हाजारों लोगों के सामने उसे बरगद के पेड़ पर फांसी दे दी गई। भागलपुर में यह जगह आज बाबा तिलता मांझी चौक से जानी जाती है।

साहित्‍य में मिली जगह

भले ही तिलका मांझी को इतिहास के पन्‍नों में मुफीद जगह ना मिली हो, लेकिन बिहार और झारखंड में उनका नाम बड़े सम्‍मान से लिया जाता है। बांग्‍ला की प्रसिद्ध लेखिका महाश्‍वेता देवी ने तिलका मांझी के जीवन और विद्रोह पर शालगिरर डाके नाम का उपन्‍यास लिखा है। वहीं हिंदी में राकेश कुमार सिंह ने हुल पहाडि़या नाम के उपन्‍यास में तिलका मांझी की कहानी कही है। उनके नाम पर भागलपुर में एक तिलका मांझी विश्‍वविद्यालय भी स्‍थापित किया गया है।

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