रामायण और उत्तराखंड: सीतोनस्यूं का फलस्वाड़ी गांव, जहां धरती में समा गई थी मां सीता
PenPoint,Dehradun : पौड़ी जिले के कोट ब्लॉक में सीतोन्स्यूं इलाके को सीतावन स्यूं भी कहा जाता है। कहा जाता है कि यहीं फलस्वाड़ी गांव में सीता माता धरती में समा गई थी। मान्यता के अनुसार इसीलिए यहाँ हर साल उनकी याद में एक विशाल मेला लगता है। स्थानीय मान्यताओं के आधार पर फलसाड़ी में माता सीता का मायका और देवल में ससुराल और कोटसाड़ा में ननिहाल माना जाता है।
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बताया जाता है कि जिस दिन यहाँ मेले का आयोजन होता है उस दिन फलसाड़ी गांव के किसी व्यक्ति को सपने में सीता माता दर्शन देती हैं और उन्हें अपने बारे में बताती है। इसके बाद अगले दिन पारम्परिक रूप से जिस खेत में मां सीता का प्रतीक पहचान के तौर पर लोढ़ी नुमा (पत्थर) निकलता है उस दिन खेत की दीवार पर पीपल का पेड़ उगता है। इतना ही नहीं उसके पत्तों पर ओंस की बूंदे रहती हैं। इसके बाद देवल गांव के ग्रामीण निशाण, ढोल-दमाऊं के साथ देवल मंदिर से सीता माता के जयकारे लगाते हुए फलसाड़ी गांव में निशाण पहुंचने के साथ ही सीता माता के बताए गए खेत में खुदाई करते हैं। जहाँ माँ सीता के स्वरूप में एक पत्थर निकलता है। जिसके दर्शनों के लिए बड़ी संख्या में स्थानीय और दूर दराज इलाकों से लोग पहुंचते हैं।
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यहाँ एक और अद्भुत मान्यता है जिसे सदियों से मनाया जाता रहा है। सीता जी के दर्शनों के बाद यहां उनके बालों के रूप में यहां मौजूद श्रद्धालु बबलू स्थानीय विशेष लम्बे रेशे वाली घास को पाने के लिए संघर्ष को लालायित दिखाई देते हैं। दरअसल इसे प्रसाद के रूप में लिया जाना सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है।
यहां प्रचलित एक अन्य कथा के मुताबिक माँ सीता एक बार देवप्रयाग से अकेले चली आई थी। इसके बाद उनको ढूंढते हुए प्रभु राम भी उनके पीछे-पीछे दौड़े चले आए। इसके बाद प्रभु राम को माँ सीता फलस्वाड़ी गांव के खेतों में दिखाई दी, इतने में माँ सीता खेतों में समाने लगी। सीता माता को रोकने के लिए प्रभु राम ने उन्हें बचाने के लिए उनके बाल पकड़ लिए थे। इन बालों को आज भी यहाँ बबुल घास के तौर पर पूजनीय माना जाता है। ऐसी मान्यता गढ़वाल के कई हिस्सों में है। यहाँ इसीलिए माँ सीता के दर्शन के बाद बबुल का रेशा खींचा जाता है।
लोक श्रुतियों की माने तो जब माँ सीता देवप्रयाग से चली आई, तो फलस्वाड़ी गाँव में आते-आते रस्ते में कांटो से उनकी साड़ी फट चुकी थी, तो इस पर आहत माँ सीता ने फलस्वाड़ी और आस-पास के गाँवों को श्राप दे दिया कि यहां कभी कांटे नही होंगे।
स्थानीय निवासी व सेवानिवृत्त बीडीओ रामेश्वर चौहान बताते हैं कि फलस्वाड़ी के निकट कोटसाड़ा में वाल्मिकी मंदिर भी है। कहा जाता है कि रामायण काल में यहीं ऋषि वाल्मिकी का आश्रम था। रामायण के प्रसंग के अनुसार एक धोबी ने जब सीता के सतीत्व पर सवाल उठाया तो राजा राम ने लक्ष्मण से कहा कि सीता को कहीं दूर छोड़ आए। कहा जाता है कि सीता यहीं वाल्मीकि आश्रम में आ गई थीं। यहां उन्होंने लव और कुश को जन्म दिया और दोनों बालक जब किशोर वय में पहुंचे थे उन्होंने राम के अश्वमेध यज्ञ के अश्व को रोक लिया था। विवश होकर राम को भी यहां पहुंचना पड़ा और उन्होंने एक बार फिर सीता से फिर उनके सतीत्व को प्रमाणित करने को कहा। जिस पर सीता ने धरती माता से अपनी कोख में जगह देने की गुहार लगाई कि और उसमें समा गई।
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बता दें कि देवप्रयाग में भगवान राम का रघुनाथ नाम से प्राचीन मंदिर है। इसीलिए इस कथा का जुड़ाव देवप्रयाग से सीता के फलस्वाड़ी गांव की तरफ चले आने से जोड़ कर देखा जाता है। क्योंकि देवप्रयाग पौड़ी जिले के कोट विकासखंड का सीमान्त क्षेत्र है जो अलकनंदा और भागीरथी के संगम से सटा हुआ है यही स्थान देवप्रयाग और अलकनंदा और भागीरथी के संगम और गंगा नाम से विश्व विख्यात है। देवल में है लक्षमण मंदिर यहाँ दीपावली के 12वें दिन हर साल मनसार मेले का आयोजन होता है।