याद : जब टॉम ऑल्टर ने देहरादून के एक रेस्त्रां में उर्दू की हकीकत बताई
-22 जून 1950 को मसूरी में जन्मे थे टॉम ऑल्टर, फिल्म जगत में खूब नाम कमाया, रंगत से अंग्रेज लेकिन मिजाज से भारतीय था यह कलाकार
Pen Point( Pushkar Rawat) : साल 2016 के अप्रैल महीने की बात है। देहरादून के क्रॉस रोड पर एक रेस्त्रां में टॉम ऑल्टर ने पत्रकारों को बुलाया था। सिर पर पहाड़ी टोपी और बदन पर ऊनी वास्कट पहने वह ठेठ पहाड़ी नजर आ रहे थे। मसूरी के ऐतिहासिक रियाल्टो सिनेमाघर पर बन रही फिल्म को लेकर उन्होंने कुछ बातें साझा की। बातचीत के बाद हमारे एक उत्साही साथी रिपोर्टर ने उन्हें अलग से एक बाइट देने की गुजारिश की। टॉम ने उसे निराश नहीं किया और बाइट देने को तैयार हो गए। रिपोर्टर साथी ने उनसे उर्दू की बुरी दशा पर सवाल पूछ लिया। सवाल सुनकर टॉम की पेशानी पर बल पड़ गए। फिर खुद को संयत करते हुए उन्होंने कैमरा बंद करवाया और रिपोर्टर को आईडी हटाने को कहा। विनम्रता से रिपोर्टर को सामने बैठाया और कहा तुम्हारा ये सवाल पूरी तरह से ग़लत है। उर्दू को लेकर ऐसे सवाल वो लोग पूछते हैं जिन्हें इसके बारे में कुछ नहीं मालूम। या फिर लंबी दाढ़ी वाले मुल्ले मौलवी अक्सर मज़लिसों मं ऐसे बयानात देते हैं, कि हमारी उर्दू बे क़दरी के दौर से गुजर रही है, ऐसा करते हुए उन्होंने उर्दू के इन ठेकेदारों की मिमिक्री भी कर डाली। उन्होंने रिपोर्टर से पूछा कि तुम्हें मालूम है उर्दू को लेकर कितना काम हो रहा है। उसके जवाब का इंतजार किये बिना बताने लगे, मैं देश में पांच जगहों पर मिर्ज़ा गालिब पर नाटक कर रहा हूं, जो ख़ालिस उर्दू में है। मेरी और मेरे जैसे कई कलाकारों की फिल्म स्क्रिप्ट उर्दू में होती हैं। मैं अपने किस्से खुद उर्दू में लिखता हूं। मैंने बहादुर शाह जफर और मौलाना आजाद को मंच पर उर्दू अदब के साथ ही जिया है। उसके बाद उर्दू के हालात पर उन्होंने तफसील से बताया। जिसका लब्बोलुआब ये था कि उर्दू को हमारी नहीं हमें उर्दू की जरूरत है, रोजमर्रा की जिंदगी में इसके बिना काम नहीं चल सकता। वे ये कहने से भी नहीं चूके कि उर्दू किसी मजहब की भाषा नहीं बल्कि मजहबों को मिलाने वाली भाषा है।
इसके बाद हम इस विनम्र शख्सियत के सामने नतमस्तक थे। हमें सहारा देते हुए उन्होंने कहा- सवाल ये पूछो कि उर्दू के लिए आप क्या कर रहे हैं? रिपोर्टर साथी ने बिना कुछ पूछे चुपचाप माइक आगे कर दिया, और टॉम ऑल्टर ने पूरी शालीनता से कैमरे के आगे अपनी बात कह दी।
हिंदी का ब्रांड ऐंबेसडर
22 जून 1950 को मसूरी में जन्मे टॉम ऑल्टर सिर्फ दिखने में अंग्रेज थे, भीतर से वे पूरी तरह हिंदूस्तानी थे। मसूरी में आम पहाड़ी बच्चों की तरह उनकी परवरिश हुई। उन्होंने मसूरी देहरादून और यूपी के कई शहरों में जाकर खूब क्रिकेट टूर्नामेंट भी खेले। बाद में पढ़ाई के लिए अमेरिका गए लेकिन एक साल में ही वापस आ गए। उनका मन भारत में ही रमता था। बताते हैं कि एक बार उन्होंने राजेश खन्ना की फिल्म् आराधना देखी थी। उसके बाद उन्हें फिल्मों में काम करने की प्रेरणा मिली। अभिनय सीखने के लिए उन्होंने फिल्म एंड टेलीविजन ऐकेडमी में दाखिला लिया। जहां उर्दू एक विषय के तौर पर पाठ्यक्रम में मौजूद थी। यहीं से उर्दू के साथ उनका लगाव बढ़ा और उन्होंने पूरी शिद्दत के साथ इसे अपना लिया। हिंदुस्तानी भाषा पर मजबूत पकड़ होने के कारण उन्हें हिंदी का ब्रांड ऐंबेसडर भी कहा जाता था।
पद्मश्री सम्मान
1976 में फिल्म चरस के साथ टॉम ऑल्टर की फिल्मी करियर की शुरुआत हुई। अपने दमदार अभिनय के बूते उन्हें हिंदी की कई बड़ी फिल्मों में अहम किरदार मिले। शतरंज के खिलाड़ी, देश परदेस, क्रांति, गांधी, वीर जारा और लोकनायक जैसी फिल्मों में आज भी उनके अभिनय को याद किया जाता है। उन्होंने तमिल, तेलुगू और बंगाली भाषा की फिल्मों में भी काम किया। फिल्मों के अलावा टॉम थिएटर से भी जुड़े रहे और हिंदी रंगमंच के दिग्गज कलाकारों में शुमार रहे। फिल्मों और थियेटर में बेहतरीन काम के लिए उन्हें पद्मश्री सम्मान भी हासिल हुआ।
राजपुर में बीता बचपन
देहरादून और मसूरी के बीच राजपुर में टॉम ऑल्टर का बचपन बीता था। जहां आज भी उनके पिता का बनाया हुआ मसीही ध्यान केंद्र है। मूल रूप से अमेरिका के ओहियो से आए टॉम ऑल्टर के पिता जिम ऑल्टर एक पादरी थे। उन्होंने ही राजपुर में मसीही ध्यान केंद्र बनाया था। मसूरी के वरिष्ठ पत्रकार अजय रमोला बताते हैं कि बहुत से ब्रिटिश और अमेरिकन परिवार पहले मसूरी में रहते थे। लेकिन कुछ परिवार ऐसे थे जो यहां की धरती से गहरे जुड़े रहे और भारत की आजादी के बाद यहीं रच बस गए। टॉम ऑल्टर ऐसे ही परिवार से थे। टॉम ऑल्टर के बेटे जैमी ऑल्टर एक मशहूर खेल पत्रकार हैं। 29 सितंबर 2017 को कैंसर से जंग लड़ते हुए 67 साल की उम्र में टॉम ऑल्टर का निधन हो गया।