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किस्सा : उत्तरकाशी में शरण ली थी गदर के नायक ने

-1857 के गदर के बाद उत्तरकाशी में कुछ दिनों तक निवासरत रहे नाना साहेब
PEN POINT, DEHRADUN : सीमांत जनपद उत्तरकाशी का जिला मुख्यालय बाड़ाहाट और 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में एक विशेष जुड़ाव रहा है। उल्लेखनीय है कि 57 के इस गदर में टिहरी के राजा अंग्रेजों के पक्ष में खड़े थे। लेकिन गदर के बाद अंग्रेजों की गिरफ्त से बचने के लिए 1857 संग्राम के अग्रणी वीर नाना साहब पेशवा ने टिहरी रियासत में उत्तरकाशी के बाड़ाहाट को कुछ समय के लिए अपना ठिकाना बनाया था। हालांकि, उनका प्रवास उत्तरकाशी में बहुत लंबा नहीं था क्योंकि तब अंग्रेज उन्हें खोजने में पूरी ताकत झोंके हुए थे और हर हाल में वह नाना साहब पेशवा को गिरफ्तार कर गदर की सजा देना चाहती थी। लिहाजा, नाना साहब को कुछ दिनों बाद अपने ठिकाने बदलने पड़ते थे।
1857 का विद्रोह, जिसे भारतीय विद्रोह या भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम युद्ध के रूप में भी जाना जाता है, भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी। इसमें भारत के राजाओं, पेशवाओं, मुगल बादशाहों ने एक जुट होकर ईस्ट इंडिया कंपनी सेना से मुकाबला लड़कर भारत को अंग्रेजी सेना से आजाद करवाने के लिए जंग लड़ी थी। बिठूर में इस पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने वाले थे नाना साहब पेशवा। 1824 में महाराष्ट्र के गांव वेणु में धूधू पंत का जन्म हुआ था। मराठा साम्राज्य के पेशवा बाजीराव की कोई संतान नहीं थी तो उन्होंने धूधूपंत को पिता माधव नारायण राव व माता गंगा बाई से गोद ले लिया। धूधू पंत को नया नाम मिला नाना साहब। साल 1851 में पेशवा बाजीराव की मृत्यु के बाद नाना साहब को पेशवाई मिली और वह मराठा साम्राज्य के नए पेशवा घोषित हुए। पेशवाई संभालने के 1857 में पूरे देश में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह हो गया। हालांकि, यह व्यवस्थित विद्रोह समय से पहले ही मेरठ छावनी में अंग्रेजी सेना के सिपाही मंगल पांडे द्वारा शुरू कर दिया इसके साथ ही पूरे भारत में रजवाड़े, पेशवा, मुगल बादशाहों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ बगावत छेड़ दी। हालांकि, आजादी की यह पहली जंग सब अपने हितों और राज्य को बचाने के लिए लड़ रहे थे तो 1857 का यह गदर असफल हो गया। 16 जुलाई 1857 के दिन कानपुर में ब्रिटिश सेनानायक हेवलोक ने नाना साहब की सेना को हरा दिया था। दिसंबर 1858 में फिर से नाना साहब ने अवध के शासक वाजिद अली शाह की पहली बेगम हजरत महल के साथ मिलकर अंग्रेजी सेना के खिलाफ फिर युद्ध लड़ा लेकिन लॉर्ड क्वाइब के नेतृत्व वाली अंग्रेजी सेना प रवह विजयी हासिल नहीं कर सके।
1857 के गदर के बाद ब्रिटेन की महारानी ने घोषणा की कि गदर में भाग लेने वाले लोग ब्रिटिश सरकार की अधीनता स्वीकार कर लेते हैं तो उन्हें क्षमा कर दिया जाएगा वरना गदर में हिस्सा लेने के लिए मृत्यु दंड दिया जाएगा।
ब्रिटिश सेना की ओर से नाना साहेब को भी अधीनता स्वीकार करने का प्रस्ताव भेजा गया लेकिन नाना साहेब ने मेजर रिचर्डसन को जवाब भेजा कि मृत्यु ने एक दिन आना ही है तो फिर मैं अपमानित होकर क्यों मरूं। उन्होंने एलान किया कि वह बंदी बनाए जाने, फांसी पर चढ़ाए जाने से नहीं डरते हैं वह आखिरी दम तक ब्रिटिश सेना से तलवार के दम पर लड़ते रहेंगे।
इसके बाद अंग्रेजी हुकूमत उनके पीछे उन्हें गिरफ्तार करने के लिये पड़ गई। कुछ समय नेपाल में बिताने के बाद गोरखा राजा द्वारा धोखा दिए जाने के बाद नाना साहब टिहरी रियासत में पहुंचा।
बताया जाता है तब तक नाना साहब साधु का वेश धर चारों धाम की यात्रा करने लगे और उत्तरकाशी में सुरक्षित ठिकाने का अहसास होने पर नाना साहेब ने उत्तरकाशी में डेरा जमा लिया। कुछ साल तो शांति से बीते लेकिन फिर अंग्रेजी हुकूमत को सूचना मिली कि गदर का नेतृत्व करने वाले वीर नाना साहब उत्तरकाशी में डेरा जमाए हुए है। गढ़वाल रियासत को गोरखों से मुक्ति दिलवाने के लिए टिहरी का राजा ब्रिटिश सेना के प्रति सम्मान रखता था। लिहाजा, टिहरी राजा ने भी अंग्रेजी सेना की राह नहीं रोकी। नाना साहब को सूचना मिली कि अंग्रेजी सेना उन तक पहुंचने वाली है तो वह अपना मकान उत्तरकाशी के धनारी निवासी केशर सिंह रमोला को सौंपकर उसकी मदद से टिहरी रियासत से बाहर निकल गया।
जीवित रहते हुए नाना साहब अंग्रेजों के हाथ नहीं लग सके। उनके बारे में उसी तरह किंवदतियां प्रचलित हैं जैसे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सुभाष चंद्र बोस के बारे में प्रचलित रही। भारत माता का यह सपूत जीते जी कभी अंग्रेजों के हाथ नहीं लग सका।

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