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शिमला समझौता: मैदान में भारत ने युद्ध जीता पर मेज पर पाकिस्तान जीत गया

– ऐतिहासिक शिमला समझौते के 51 साल पूरे, बांग्लादेश की आजादी के साथ ही पाकिस्तान के इतिहास में दर्ज हुई थी शर्मनाक हार
PEN POINT : 51 साल पहले, हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में 2 जुलाई की देर रात एक समझौता लिखा जा रहा था, आधिकारिक तौर पर 3 जुलाई की सुबह इस समझौते पर भारत और पाकिस्तान के मुखियाओं के हस्ताक्षर इस पर हुए थे लेकिन समझौते में दर्ज थी तारीख 2 जुलाई 1972 लिहाजा इसे 2 जुलाई का शिमला समझौता ही माना जाता रहा है। समझौते को पांच दशक से ज्यादा हो चुके हैं लेकिन आज भी माना जाता है कि 72 की जंग भले ही भारत के जवानों ने अपने अदम्य साहस की बदौलत युद्ध के मैदान में जीत ली हो लेकिन देश के नेताओं ने दरियादिली दिखाकर समझौते के टेबल पर यह जंग पाकिस्तान के हाथों हार दी। आज भी माना जाता है कि अगर भारत पाकिस्तान युद्ध की जीत की हीरो के तौर पर प्रसिद्धि पा चुकी और बांग्लादेश के रूप में एक नए मुल्क को आकार देने में मदद करने वाली तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी समझौते के मेज पर रहमदिली न दिखाती तो पाकिस्तान और भारत के बीच तमाम विवादों का अंत उसी मेज पर हो जाता।
देश में मानसून दस्तक दे चुका था लेकिन जहां भारत का मैदानी हिस्सा गर्मी उमस से तप रहा था वहीं शिमला में मौसम ठंडा था लेकिन भारत पाकिस्तान के अधिकारियों, सैन्य अधिकारियों, खुफिया तंत्र, मीडिया की मौजूदगी ने इस ठंडे से रहने वाले शहर की फिजाओं में खूब गर्माहट घोल रखी थी। 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में हुई बगावत के बाद छिड़े भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद पाकिस्तान की सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था। पाकिस्तान के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 73 हज़ार युद्धबंदी भारतीय हिरासत में थे, जिसमें 45 हजार सैनिक या अर्धसैनिक थे। वहीं, पश्चिमी पाकिस्तान का 5 हजार वर्ग मील के करीब का क्षेत्र भारतीय सेना के कब्जे में था। यूं कहा जाए कि पूर्वी पाकिस्तान से बांग्लादेश निर्माण के रूप में डेढ़ लाख वर्ग किमी का क्षेत्र तो पाकिस्तान गंवा चुका था शेष उसके हिस्से बचे क्षेत्रफल में भी 13 हजार वर्ग किमी से भी अधिक का क्षेत्र भारत के कब्जे में था। भारत और पाकिस्तान के बीच 1971 के युद्ध के बाद पूर्वी पाकिस्तान, बांग्लादेश के रूप में एक स्वतंत्र देश बन गया। अब दोनों देश शांतिपूर्ण तरीकों से आपसी बात-चीत के जरिए अपने मतभेदों को आपसी सहमति से हल करने की दिशा में आगे बढ़ रहे थे। 1971 में देश के दो टुकड़े हो जाने और बड़ी हार के बाद पाकिस्तान में राजनीतिक स्थिति यह थी कि पाकिस्तान में कोई संविधान नहीं था। वहीं, 1971 में पाकिस्तान को करारी शिकस्त देने के साथ ही पाकिस्तान के दो हिस्से करने के लिए भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी देश की सबसे ताकतवर व लोकप्रिय नेता बनकर सामने आ चुकी थी। भारत के पास मौका था कि वह 1947 के बाद से लेकर 1971 तक पाकिस्तान की हर हरकत का उससे हिसाब पूरा करे और कश्मीर मामले को भी स्थाई तौर पर हल कर दे। तत्कालीन सुरक्षा सलाहाकारों, रक्षा विशेषज्ञों को कश्मीर मामला निपटाने के लिए यह स्वर्णिम अवसर लग रहा था।
पूर्वी पाकिस्तान में आत्मसमर्पण के बाद, पाकिस्तानी सेना में अशांति बढ़ गई थी और क़ैद हो चुके सैनिकों को रिहा कराने का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था, क्योंकि कोई संविधान नहीं था लिहाजा मार्शल लॉ नियम जारी किए गए और सत्ता एक सिविलियन को हस्तांतरित कर दी गई। इस तरह से एक सिविलियन चीफ़ मार्शल एडमिनिस्ट्रेटर नियुक्त किया गया था।
हालांकि, शुरूआती दौर में इंदिरा गांधी पाकिस्तान से किसी भी तरह की वार्ता करने के पक्ष में नहीं थी। लेकिन, पाकिस्तान ने यहां एक कूटनीतिक खेल खेला। पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो और तत्कालीक व्यवस्था के लिए नियुक्त सिविलियन चीफ मार्शल ने लगातार रूस के सामने गिड़गड़ाकर भारत पर दबाव डालने की कोशिश की जिससे भारत वार्ता की मेज पर आ जाए। रूस का दबाव काम कर गया। रूस के बीच में आने से दोनों देशों के प्रतिनिधियों के संपर्क बहाल होने शुरू हुए। पाकिस्तान के राष्ट्रपति भुट्टो ने भारत आकर बातचीत करने का फैसला लिया। भुट्टो के दिमाग में साफ था कि जो भी शुरूआती दौर में बातचीत में तय हो उसे समझौते का रूप दिया जा सके। साल 2019 में एक अंग्रेजी अखबार में इंदिरा गांधी की जयंती पर प्रकाशित एक लेख की माने तो साल 1972 के शिमला समझौता इंदिरा गांधी की एक बड़ी राजनीतिक गलती थी। लेखक ने उस लेख में दावा किया था कि हम कभी भी यह नहीं जान पाएंगे कि ऐसी कौन सी परिस्थितियां थीं, जिन्होंने 1971 के युद्ध के बाद इंदिरा गांधी को पाकिस्तान के साथ एक नुक़सानदायक सौदा करने पर मजबूर किया। शिमला समझौते और उसके बाद के दिल्ली समझौते ने पाकिस्तान को वह सब कुछ दिया जो वह चाहता था। उक्त लेखक शिमला समझौते के दौरान उस पूरे प्रकरण को बारीकी से देखने वाले लोगों में शामिल थे।
शिमला समझौते से पहले भारत की ओर से वार्ता में शामिल एक अधिकारी केएन बख्शी एक इंटरव्यू में बताते हैं कि शिमला समझौते की पूरी तैयारियों के दौरान हमने कुछ प्रमुख बिंदुओं को उजागर करने की कोशिश की जिसमें पहला यह था कि भुट्टो विश्वसनीय नहीं थे और हम उन पर भरोसा नहीं कर सकते। वह कहते हैं कि ज़ुबानी तौर पर हम यहां तक कह देते थे, कि उनकी मां भी उन पर पूरा भरोसा नहीं कर सकती। बख्शी उस इंटरव्यू में बताते हैं कि कभी भारत से एक हजार साल तक युद्ध करते रहने की भभकी देने वाले भुट्टो की जुबान अब पूरी तरह बदल चुकी थी। अब बहुत मीठा बन चुके थे, दूध और शहद की नहरों, शांति और समृद्धि की बात कर रहे थे।
हालांकि, यह सवाल हमेशा उठता रहता है कि भारत के पास इस समझौते के दौरान मौका था कि वह कश्मीर मुद्दे को पूरी तरह से सुलझा दे लेकिन इंदिरा गांधी ने कश्मीर मुद्दे को बेहद कम ही इस पूरे समझौते में छेड़ा। इसे लेकर अब भले ही इंदिरा गांधी की आलोचना होती रहती हो लेकिन विशेषज्ञ बताते हैं कि इंदिरा गांधी ने बड़ी चतुराई से भुट्टो की पाकिस्तानी सेना के बारे में चिंताओं का इस्तेमाल करके बांग्लादेश को मान्यता दिलाने की कोशिश की थी। लिहाजा, कश्मीर वाला चैप्टर का पक्ष इस समझौते में कमजोर पड़ गया।

भुट्टो खेल गए थे 
शिमला समझौते में 75 हजार से अधिक युद्ध बंदियों की रिहाई और भारत की ओर से कब्जाए 13 हजार वर्ग किमी क्षेत्रफल को मुक्त करने, दोनों में से एक ही शर्त पूरी करने पर भारत ने रजामंदी जताई थी। भारत का मानना था कि युद्ध आरोपियों को लेकर एक पक्ष बांग्लादेश भी है जो युद्ध आरोपियों के खिलाफ अपने कानून के मुताबिक कार्रवाई करे। भुट्टो ने 75 हजार युद्ध आरोपियों को रिहा करवाने के बजाए भारत के कब्जे में 13 हजार वर्ग किमी क्षेत्र के हिस्से को छुड़वाने को प्राथमिकता दी। यह जमीन 1972 के आखिर तक भारत ने पाकिस्तान को वापिस भी कर दी थी। जुल्फिकार अली भुट्टो की बेटी और बाद में पाकिस्तान का नेतृत्व करने वाली बेनजीर भुट्टो अपनी किताब में इस बात का जिक्र करती हैं कि वह अपने पिता से नाराज हो गई थी कि उनके पिता उन युद्ध बंदियों के बजाए जमीन के टुकड़े को मुक्त करने पर ध्यान दे रहे हैं जबकि युद्ध बंदियों के परिवार उनका इंतजार कर रहे हैं इस पर भुट्टो ने जवाब दिया था कि जमीन का टुकड़ा अभी लेना महत्वपूर्ण है जबकि युद्धबंदियों को मानवीय आधार पर वैश्विक दबाव के चलते भारत को एक न एक दिन छोड़ना ही पड़ेगा। बकौल भुट्टो जमीन मानवीय मुद्दा नहीं था लिहाजा उसका वापिस मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था जबकि युद्धबंदी मानवीय विषय थे जिस पर पूरी दुनिया की नजर थी।

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