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हरियाली के जश्न में डूबा उत्तरकाशी का टकनौर इलाका

-मानसूनी बारिश के दिए जख्मों पर लोक संस्कृति का मरहम, पांरपरिक रूप से हरियाली के जश्न में डूबे हैं इन दिनों टकनौर के ग्रामीण
PEN POINT, DEHRADUN : मानसूनी बारिश के बाद पहाड़ों में जन जीवन बुरी तरह प्रभावित हो गया है। भारी बारिश भूस्खलन और भूधंसाव से यहां माहौल पूरी तरह अस्त व्यस्त है। लेकिन पहाड़ के लोगों की जीजीविषा ही है कि इन सब दुश्वारियों के बावजूद यहां जमकर जश्न मनाए जाते हैं। जिसकी मिसाल है उत्तरकाशी का टकनौर क्षेत्र। जहां नाल्ड कठूड़ वाला हिस्सा हरियाली के जश्न को समर्पित मेले त्यौहारों के उत्साह में डूबा हुआ है। बीते दिनों से शुरू हुए हरियाली के मेले त्यौहारों का यह दौर सितंबर के मध्य तक चलेगा। यूं तो हर साल मानसून इस क्षेत्र के लिए गहरे जख्म देने वाला साबित होता रहा है लेकिन लोक संस्कृति का मरमहम इन जख्मों को भर देने का इलाज भी साबित होता रहा है।

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बीते दिनों टकनौर के उपला क्षेत्र में धराली, झाला, मुखबा में ग्रामीण हार दूधा के मेले के जश्न में डूबे हुए हैं। बुग्यालों से रंग बिरंगे फूलों को तोड़कर गांव में अपने लोक देवता समेश्वर को अर्पित कर पूरे दिन भर रासौं नृत्य में डूबने का जश्न है हार दूधा का यह पर्व। उपला टकनौर क्षेत्र में जहां हरियाली के इस जश्न को हार दूधा के नाम से मनाया जाता है तो टकनौर के निचले इलाकों रैथल, गोरसाली समेत अन्य गांवों में इसे हरूणी के नाम से मनाया जाता है। नाम भले ही अलग हों लेकिन जश्न और मनाने का तरीका, और इस लोक उत्सव का जोश एक समान सा रहता है। पहाड़ के इस हिस्से में सावन की दस्तक के साथ ही इन लोक त्यौहारों का आयोजन शुरू हो जाता है जो मानसून की विदाई तक जारी रहता है। हरूणी और हारदूदा के साथ शुरू हुआ यह जश्न भाद्रपद की संका्रति यानि 17 अगस्त को अढूंडी उत्सव में जिसमें ग्रामीण छानियों में मक्खन छाछ की होली खेलते हैं तक पहुंचकर सितंबर महीने में जब पहाड़ में सर्दियां दस्तक देना शुरू कर देंगी तो सेलकू के आयोजन के साथ खत्म होगा।
उत्तरकाशी के इस इलाके में ग्रामीणों के आराध्य समेश्वर देवता है, इन सारे त्यौहार मेलांे में समेश्वर देवता को पूजा जाता है लेकिन यह सारे त्यौहार मेले इस क्षेत्र के लोगों का प्रकृति से अनूठे बंधन को भी दर्शाता है। सर्दियों में कड़ाके सर्दियों का दौरान बेहद शांत सा रहने वाले टकनौर क्षेत्र के हिस्से कुदरत की रंग मानसून के दौरान ही आती है। ऐसे में प्रकृति के इस यौवन को स्थानीय ग्रामीण अलग अलग नामों से मेले लोक उत्सव के रूप में मनाते है।

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हारदूदा – मुखबा, धराली, झाला, भंगेली, हुर्री पाला गांवों में हारदूदा मेले का आयोजन किया जाता है। बुग्यालों से रंग बिरंगे फूल तोड़ लाकर ईष्ठ देव समेश्वर को अर्पित किए जाते हैं। गांव के देव प्रांगण में पूरे दिन भर ग्रामीण ढोल की थाप पर लोकनृत्य रासौं में डूबे रहते हैं। इस मौके पर दूर दराज ब्याही गई बेटियों के लिए अपने मायके आकर इस जश्न में शामिल होने की परंपरा भी है।

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हरूणी – टकनौर क्षेत्र के निचले इलाकों में हरियाली के इस उत्सव को हरूणी के नाम से बुलाया जाता है। गांव के मंदिर प्रांगण में देव डोलियों के नृत्य के बाद ग्रामीण पूरे दिन भर देर शाम तक लोक नृत्य में डूबे रहते हैं।

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अढूंडी उत्सव – गर्मियां शुरू होते ही ग्रामीण अपने मवेशियों के साथ बुग्यालों में बनी छानियों में चले जाते हैं, अगस्त के आखिर में सर्दियों की दस्तक के साथ ही ग्रामीण मवेशियों को लेकर वापिस गांव लौटना शुरू कर देते हैं, बुग्यालों में मवेशियों व खुद की रक्षा के लिए वह प्रकृति का आभार जताने के लिए भाद्रपद की संक्राति को अढूडी उत्सव मनाते हैं। इस दिन प्रकृति देवताओं, प्रकृति में निवास करने वाले अदृश्य लोक देवताओं को मक्खन मट्ठा का भोग लगाकर पूजा जाता है।

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सेलकू – सितंबर महीने की शुरूआत के साथ ही टकनौर व नाल्ड कठूड के इस हिस्से में सर्दियां भी दस्तक देनी शुरू कर देती है, बुग्यालों में छाई हरियाली भी सूखने लगती है। उससे पहले ही बुग्यालों में उगने वालों फूलों को ग्रामीण लाकर गांव में लोक देवता को समर्पित कर हरियाली की इस ऋतु को अलविदा कहते है। पारंपरिक रूप से सेलकू का मेला रात को मनाया जाता है। सेलकू शब्द का अर्थ ‘सेलू कू’ यानि सोएगा कौन है। पूरी रात भर रासौं और तांदी नृत्य का आयोजन किया जाता है, अगले दिन दोपहर बाद समेश्वर देवता अपने पश्वा अपर अवतरित होकर तेज धार वाली कुल्हाड़ियों पर चलकर लोगों की समस्याओं का निदान बताते हैं और लोगों को सुख समृद्धि का आर्शीवाद देते हैं। सेलकू पर्व निपटने के बाद ही ग्रामीण अपने कृषि कार्य में जुट जाते हैं जो कार्तिक महीने में होने वाली बूढ़ी बग्वाल जिसे स्थानीय दीवाली के नाम से जाना जाता है, तक चलते हैं। सेलकू पर्व का आयोजन मुखबा, रैथल, गोरसाली, स्यावा, सौरा, सारी गांवों में किया जाता है।

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